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MP: इंजीनियर भाइयों ने छोड़ी नौकरी, इस फूल की खेती से हर महीने कमा रहे हैं लाखों रुपये

Flowers Plantation: काली मिट्टी वाली जमीन झरबेरा फूलों की खेती के लिए फायदेमंद नहीं होती है. इसलिए दोनों भाइयों ने जिले के अलग-अलग स्थानों से करीब ढाई महीने में मिट्टी लाकर खेत को तैयार कर पॉलीहाउस बनवाकर झरबेरा का प्लांटेशन किया.

Gerbera flowers plantation in chhindwara: Gerbera flowers plantation in chhindwara:
पवन शर्मा
  • छिंदवाड़ा,
  • 16 नवंबर 2021,
  • अपडेटेड 1:40 PM IST
  • ​​दो दिन के अंतराल में फूल खिलते हैं
  • ​पॉलीहाउस में 25 हजार पौधे लगाए जाते हैं

Gerbera Flowers Cultivation: मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में रहने वाले दो भाई शुभम और सौरभ रघुवंशी ने इंजीनियर की प्राइवेट नौकरी छोड़कर झरबेरा फूलों की खेती (Jhabrera Flowers) करनी शुरू की. दोनों भाई इससे लाखों रुपये कमा रहे हैं.साथ ही कई लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं. 2019 की शुरुआत में शुभम और सौरभ ने झरबेरा फूलों के पॉलीहाउस में स्टैडी की और अपने 28 एकड़ खेत में से एक एकड़ जमीन को इसके लिए बनाना शुरू किया. 

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काली मिट्टी वाली जमीन इन फूलों की खेती के लिए फायदेमंद नहीं होती है, इसलिए उन्होंने जिले के अलग-अलग स्थानों से करीब ढाई महीने में मिट्टी लाकर खेत को तैयार कर पॉलीहाउस बनवाकर झरबेरा का प्लांटेशन किया. लेकिन कोरोना पहली वेव में लॉकडाउन लगने के कारण फूलों की पर्याप्त बिक्री नहीं हो पाई लेकिन फिर बाजार खुलने और दोबारा लॉकडाउन लगने के बाद भी अलग- अलग स्थानों में बाजार खुलने के कारण फूलों को अच्छा रेट मिला.  

फूलों का कैसे रखा जाता है ख्याल?
झरबेरा फूलों के प्लांट हॉलैंड से आते है. इन फूलों की खेती के लिए संतुलित तापमान और सिंचाई के शुद्ध पानी की आवश्यकता होती है. एक एकड़ के बने पॉलीहाउस में 25 हजार पौधे विशेष प्रकार की मिट्टी में लगाए जाते है. इन पौधो में बोर नहीं बल्कि कुएं का पानी को फिल्टर कर ड्रीपिंग द्वारा प्रतिदिन 24 मिनिट पानी दिया जाता है. साथ ही पत्तियों के शोवरिंग की जाती है. पॉलीहाउस के चारो ओर लगे पर्दे को समय समय पर खोलकर और ढांककर तापमान को नियंत्रित किया जाता है. इन पौधो का प्लांटेशन का अगर उचित रखरखाव किया जाए तो करीब छह साल तक इसमें फूल आते है. 

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दो दिन के अंतराल में खिल जाते हैं फूल 
झरबेरा के प्लांटेशन के दो महीने बाद फ्लोवर आने लगते है, दो दिन के अंतराल में फूल पूरे खिल जाते है. इन फूलों को तोड़कर बैकेट में भरें पानी में रखा जाता है ताकि यह फूलों में ताजगी बनी रहे इसके बाद इन फूलों के पंखुड़ियों वाले हिस्से को पॉलिथिन द्वारा पैक किया जाता है ताकि फूलों में डस्ट न जमने पाए फिर इनको बाजार तक व्यवस्थित भेजा जाता है. आकर्षक रंग वाले झरबेरा के फूल दो दिन में पूरे खिल जाते है. इन फूलों को तुड़वाकर पानी भर बाल्टी में पूरे एक दिन रखा जाता है. इसके बाद इन फूलों की पंखुड़ियों को पॉलिथिन में पैक कर 10/10 के बंच बनाकर  शुभम और सौरभ अपनी स्कॉर्पियो गाड़ी से हैदराबाद ले जाकर बेचते हैं. 

एक फूल की लागत एक रुपए से डेढ़ रुपए -
झरबेरा के एक फूल की लागत एक रुपए से डेढ़ रुपए आती है और यह फूल बाजार में 6 रुपए से लेकर 10 रूपये में बिकता है. यह फूल हैदराबाद से देश के सभी बड़े शहर मंबई दिल्ली, चेन्नई, बंगलौर, इंदौर में इन फूलो की अच्छी खासी मांग है. अब बाजार खुला है तो शादियों और कार्यक्रम के आयोजन में इस फूल की कीमत 20 रूपये प्रति नग जाने की उम्मीद है. 

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24 हजार की नौकरी छोड़ी - 
बड़े भाई शुभम रघुवंशी मैकेनिक इंजीनियर है उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई नागपुर से 2016 से पूरी कर पूना में महिंद्रा कंपनी में 24 हजार रुपए महीना की तनख्वाह पर इंटर्न शिप ज्वाइन की. नौकरी के दौरान उनके मन में हमेशा कसक रही कि उनको उनके टेलेंट के हिसाब से पैसा नहीं मिल पा रहा है इसलिये वह अक्सर नौकरी के दौरान लंच टाइम में कुछ नए की तलाश में लगे रहते थे. एक दिन उनकी नजर झरबेरा फूलों की खेती के पॉली हाउस पर पड़ी उसके बाद वह अक्सर लंच टाइम में झरबेरा फूलों के पॉलीहाउस में समय बिताते और रोज कुछ न कुछ नया सीखते थे. 

 
नौकरी के दौरान दिसंबर 2018 में इंजीनियरिंग शुभम लगने लगा कि अपने टेलेंट का इस्तेमाल कर फूलो की खेती में किया जाए. नौकरी छोड़ने और फूलो की खेती करने के लिए परिवार को विश्वास में लिया और फिर इस फूलों की खेती के प्रोजेक्टमें जी जान से लग गए. 

शुभम ने अपने घर छिंदवाड़ा लौटकर छोटे भाई सौरभ रघुवंशी को भी फूलों की खेती के विषय में बताया इसके बाद छोटे भाई सौरभ रघुवंशी सिविल इंजीनियर ने 40 हजार रुपये महीने की नौकरी छोड़कर अपनें बड़े भाई शुभम् के साथ खेती में लग गए. प्रोजेक्ट बड़ा होने की वजह से उ्नहोंने घर-परिवार दोस्तों से रुपयों का इंतजाम करके जान से फूलों की खेती में मेहनत की.  महज 18 महीने के लॉक डाउन जैसे कठिन और विपरीत समय में ही उन्होंने अपने पूरे प्रोजेक्ट में लगी 80 लाख रुपये की लागत निकाल ली. कभी महज कुछ हजार की नौकरी करने वाले इंजीनियर बंधु पांच से छह लाख रुपये प्रतिमाह कमाकर खुद आत्मनिर्भर बन गए. साथ ही 10 अन्य लोगों को रोजगार भी दे रहे है. 

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