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अंडा नहीं खाने वाले शख्स ने मुर्गे के पंखों से किया कमाल, चिकन फाइबर से बना दिए कपड़े और कागज

जयपुर के राधेश अग्रहरी को भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान में रिसर्च के दौरान कचरे से नया सामान बनाने का प्रोजेक्ट दिया गया. लंबी रिसर्च के बाद इसी प्रोजेक्ट को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया.

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विशाल शर्मा
  • जयपुर,
  • 12 सितंबर 2024,
  • अपडेटेड 3:45 PM IST

हमारे देश में घरों से निकले कचरे से कई तरह के प्रोडेक्ट बनने लगे हैं, लेकिन कहीं आपने सुना है कि मुर्गे और मुर्गियों के पंख के कूड़े से भी बेहद ही मुलायम फैब्रिक तैयार हो रहा हो. लोग मुर्गे के अवशेष को छूना तो दूर उसको देखना तक पसंद नहीं करते लेकिन अब उसी से बने कपड़े और कई तरह के अनगिनत प्रोडेक्ट उपयोग में ले रहे हैं. इससे ना सिर्फ बूचड़ वेस्ट से निजात मिल रही है बल्कि आदिवासी महिलाओं को रोजगार और हजारों पेड़ों को कटने से भी बचाने की दिशा में इसे एक बड़ी पहल माना जा रहा है.

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चिकन वेस्ट से बनाया कपड़ा और पेपर

जयपुर के राधेश अग्रहरी को भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान में रिसर्च के दौरान कचरे से नया सामान बनाने का प्रोजेक्ट दिया गया. लेकिन लंबी रिसर्च के बाद इसी प्रोजेक्ट को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. फिर उन्होंने चिकन वेस्ट पर काम शुरू किया और कई साल की रिसर्च के बाद चिकन फाइबर की सफाई कर उससे कपड़ा और पेपर बनाने की शुरुआत की. इसके लिए राधेश ने पुणे में कूड़ा उठाने वालों को ट्रेनिंग दी और फिर मुर्गे और मुर्गियों के पंख इकट्ठा कर अपने स्टार्टअप की शुरुआत की. इसके बाद राजस्थान में सफाई प्लांट से लेकर बुनकरों की तलाश के लिए आदवासी इलाके को चुना गया. जहां ख़ासकर महिलाओं को प्रोडेक्ट के बारे में ट्रेनिंग देकर मुर्गे के पंखों से बैग, पर्स, शर्ट, कंबल, पेंसिल, कॉपी जैसी अनगिनत सामग्री तैयार कर रहे हैं.

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सेकड़ों लोगों को मिला रोजगार

उनका मानना है कि 1 किलो चिकन में 350 ग्राम वेस्ट निकलता है. इसके लिए सबसे पहले चिकन वेस्ट कचरे को सैनिटाइज करके छूने लायक बनाया जाता है और फिर 1 किलो पेपर के लिए 1 किलो मुर्गे के पंख और सिर्फ 3 लीटर खारे पानी की आवश्यकता पड़ती है जबकि बाकि दूसरे 1 किलो पेपर बनाने के लिए 3 किलो लकड़ी और 200 लीटर जमीनी पानी उपयोग में लिया जाता है. उनका दावा है कि चिकन फाइबर साफ कर कपड़ा और पेपर बनाने से हजारों पेड़ों को उन्होंने कटने से बचाया है और सेकड़ों लोगों को रोजगार भी मिला है.

मुर्गे के पंखों का 27 तरीकों से सैनिटाइजेशन

को-फाउंडर मुस्कान सैनिक ने बताया कि इसके लिए सबसे पहले 150 कूड़ा उठाने वाले लोगों को ट्रेनिंग दी गई, जो मुर्गे और मुर्गियों के कूड़े को प्रोसेसिंग यूनिट पर लेकर आते हैं. जहां कूड़े में से पंखों को इकट्ठा कर उनकी सफाई करते हैं और उसके बाद उन्हीं मुर्गे के पंखों को 100 डिग्री भाप और 27 तरीकों से सैनिटाइज कर 1200 से ज्यादा आदवासी महिलाओं को उनके घरों पर साफ पंख देते है. फिर पंखों को एक-एक कर बुना जाता है और बाद में धागे से कपड़ा बनाकर 37 से ज्यादा प्रोडेक्ट डिजाइन बनाए जाते है. जिसमें एसेसरीज, बैगस, टेक्सटाइल भी शामिल है. सबसे खास बात यह है कि इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह का कोई केमिकल इस्तेमाल नहीं होता. साथ ही जो दूसरे सामान्य प्रोडक्ट के मुकाबले बेहद किफायती भी है.

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सामने थीं कई चुनौतियां

हालांकि, चिकन बूचड़ वेस्ट पर काम करना भी आसान नहीं था और इसमें उन्हें कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा. इसको लेकर राधेश ने बताया कि गुप्ता परिवार से ताल्लुक रखना, जहां अंडे को नॉनवेज माना जाता है, वहां चिकन वेस्ट से काम करना बेहद मुश्किल था. शुरुआत में 15 हजार में स्टार्टअप शुरू किया, तब परिवारवालों ने भी खूब विरोध किया लेकिन आज करोड़ों के टर्नओवर के साथ ग्लोबल वार्मिंग के लिए काम करने पर सभी खुश हैं. फिलहाल बड़ी-बड़ी कंपनियों के जरिए इनकी सोच कई देशों तक पहुंच चुकी है. इस अनूठी पहल के लिए उन्हें 25 से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. लेकिन उनका मानना है कि अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाएं तो बूचड़ वेस्ट से निपटने का यह अच्छा मौका है.

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