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फाग, राग, रंग, मस्ती और मल्हार... वसंत का चढ़ता खुमार और होली के ये 5 यार!

होली का त्योहार तो कई दिन पहले से धीरे-धीरे आता है धीरे-धीरे सबको रंगों और उमंगों में सराबोर करता चलता है. होली भी केवल रंगों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि इसमें लोक संगीत, परंपराएं और सामाजिक मेलजोल भी गहराई से जुड़े होते हैं. ये सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत का एक जीवंत रूप है. होली के पांच यार- फाग, राग, रंग, मस्ती और मल्हार ऐसी धूम मचाते हैं कि होली भुलाए नहीं भूलती.

होली के त्योहार के पांच यार हैं, जिससे इसका रंग जमता है होली के त्योहार के पांच यार हैं, जिससे इसका रंग जमता है
विकास पोरवाल
  • नई दिल्ली,
  • 14 मार्च 2025,
  • अपडेटेड 6:53 AM IST

हिंदी महीनों में सबसे आखिरी और 12वां महीना है फाल्गुन. लोक भाषा में इसे फागुन कहते हैं और यह अंत का प्रतीक है, लेकिन ठहरिए! क्या अंत ऐसा होता है? उल्लास और उन्माद से भरा, उत्सव की धूम से लबरेज और आनंद से भरपूर?

अंत तो होना चाहिए शोक और संवेदना से भरा हुआ. उदासियों के समुद्र जैसा और बर्फ की सफेदी से ढका हुआ, जिसमें निराशा और दुख की खाई ऐसी गहरी खुदी हुई हो कि जो इसमें गिरे तो निकलना मुश्किल हो जाए, मुश्किल ही क्यों बल्कि निकल ही न सके. ऐसा होना चाहिए अंत...

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लेकिन भारतीय मनीषा और सनातन परंपरा कुछ और ही बात कहती है. यहां कहा जाता है कि अंत भला तो सब भला और संस्कृत में एक सूक्ति भी है, 'अंतः अस्ति प्रारंभः' यानी अंत कोई खात्मा नहीं है, बल्कि नई शुरुआत है. 

इसी शुरुआत और अंत में सब भले का नाम है होली. इसी को समझ लेने का आनंद है होली और इसी को गाने-बजाने और इसी के रंग में रंग जाने का का नाम है होली. 

पुराने जमाने में ज्यों ही दिखाई दिया कि अब महुआ लदने लगा है और सरसों फूलने लगी है, टेसू, पलाश झरने लगे हैं, सेमल फूटने लगी है और आम बौराने लगा है और सारी बगिया ही लहकने-महकने लगी है तो लोग समझ जाते थे कि सर्दी बीतने को है और बसंत राजा आ रहे हैं. फिर तो चौराहे पर जैसे ही सम्मत धरी गई उसी दिन से रंग उड़ने लगा. टोली बनाकर और ढोलक-ताशे लेकर लोग गली-गली निकलने लगे और चारों तरफ एक ही आवाज आने लगी....

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अरे रई रई रई रई रई 

हां रई रई रई रई रई

फागुन मस्त महिनवा रे मनवा,

फागुन मस्त महीनवा रे

ढोलक पे देके ताल मचा दे 

मचा दे मचा दे बवाल रे

अरे रई रई रई रई.....

होली और रंग का दिन सिर्फ फाल्गुन की पूर्णिमा और अगले दिन की धुलैंडी नहीं है, बल्कि ये दिन तो रंग खेलने का आखिरी दिन हुआ करता था, लेकिन अब जब कारपोरेट कल्चर पांव पसार चुका है और महंगाई विकराल हो चुकी है, संकट, समस्या और संघर्ष रोज के साथी बन चुके हैं तो त्योहारों ने भी खुद को समेट कर सीमित कर लिया है. लिहाजा दशहरा, सिर्फ नवमी-दशमी का दिन हो चुका है, दीपावली दीपक जलाने तक रह गई है और होली सिर्फ एक दिन रंग खेलने के नाम पर सिमट गई है, 

क्या है असली होली?

फिर भी जो आप खेल रहे हैं वो असल होली नहीं है. ये त्योहार तो कई दिन पहले से धीरे-धीरे आता है धीरे-धीरे सबको रंगों और उमंगों में सराबोर करता चलता है. होली भी केवल रंगों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि इसमें लोक संगीत, परंपराएं और सामाजिक मेलजोल भी गहराई से जुड़े होते हैं. ये सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत का एक जीवंत रूप है. जब फागुन का महीना आता है, तो इसके साथ ही होली के पांच यार- फाग, राग, रंग, मस्ती और मल्हार ऐसी धूम मचाते हैं कि होली भुलाए नहीं भूलती.

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फागुन में चढ़ता है फाग का रंग

दौर को थोड़ा ही पीछे ले जाकर देखें तो माघ की पंचमी के बाद से ही गांव में एक अलग ही माहौल खिलने लगता था. पकी फसल खलिहान पहुंच रही होती थी. कनेर, पलाश, गुलमोहर, सरसों के फूल, महुआ के फूल और आम के बौर भी खिले होते थे. नवान्न (नए अनाज की बाली) भी झूमती दिखती थी. खेत से लेकर बाग-बगीचे तक में मदनोत्सव ऐसा छा जाता था कि लगता था खुद कामदेव आकर हर ओर अपने तीर चला रहे हैं. 

इन्हीं तीरों से घायल मन गा उठता है और वह जो गान करता है, उसे ही फाग कहते हैं. फाग दो महीने तक चलने वाली पारंपरिक गायन की एक विधा है, जो है तो शास्त्र में ही समाई हुई, लेकिन शास्त्रीय मान्यताओं से कुछ परे. फाग की खासियत ये है कि बस ताल के साथ मेल करते हुए गाए जाओ, एक बारगी स्वर से भटके तो कोई समस्या नहीं, लेकिन बेताला नहीं होना चाहिए. 

यूपी-बिहार में फाग की गूंज

उत्तर प्रदेश के पूर्वी ओर से लेकर पूरे बिहार में फाग की ऐसी गूंज है कि इसके आगे सब सूना है. ऐसा नहीं है कि फाग पर भोजपुरी भाषी इलाकों का एकाधिकार है, बल्कि फाग की परंपरा तो अवध, ब्रज, बुंदेलखंड, राजस्थान और हरियाणवी रागिनी में भी है, लेकिन यूपी-बिहार के फाग में मस्ती भी है, पलायन का दर्द भी है. विरही की वेदना भी है. इसमें सास-ननद और परिवार का ताना भी है और सामाजिक बाना भी. 

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इस फाग में चिड़िया (चिरई), तोता (सुग्गा), सांप-बिच्छू (संपिनिया- बीछी) से लेकर खेत-खलिहान, गांव-दुआर सब कुछ है. इसके अलावा इसमें राम भी हैं, कृष्ण भी हैं. राधा और सीता भी हैं. शिव-पार्वती तो अनिवार्य रूप से हैं, जो-जो भी हैं वह सब जी भरकर रंग खेल रहे हैं, अबीर-गुलाल उड़ा रहे हैं और सबको प्रेम रंग में सराबोर कर रहे हैं. भोजपुरी भाषा के मशहूर कवि रहे हैं महेंद्र मिश्र (1865-1946) जिन्हें साधारण तौर पर महेंदर मिसिर के नाम से पहचाना जाता है. उन्होंने अपनी कई लोक रचनाओं में फाग के रंग को खास तौर पर बिखेरा है, और भोजपुरी की स्वर कोकिला कही जाने वाली शारदा सिन्हा ने उनके लिखे कई गीतों को गाकर अमर कर दिया है. महेंदर मिसिर के फाग की एक बानगी देखिए, इसमें 

होरी-होरी कहत दिन थोरी सी बची आली लिए पुष्प डाली चलो सरयू किनार पे।

मदन मरोर डारे पंचवान मारे अली गली-गली गाँवन में फागुन की बहार है।

फागुन में लोक लाज के समाज छूट जात बाल बृद्ध पूछे कवन आपनो सुतार है।

द्विज महेन्द्र साज के समाज आज चलो आली आवें रंग डाली सभी दशरथ कुमार के।

इस फाग में महेंदर मिसिर फागुन का असर बता रहे हैं. कह रहे हैं कि मदन यानी कामदेव ने फागुन का ऐसा तीर चलाया है कि समझ ही नहीं आ रहा, कौन बालक है, कौन बूढ़ा, कौन जवान है. ऐसे में सारी सखियां फूलों की टोकरी और रंग भरी गगरियां लेकर कह रही हैं, चलो इसी बूझ-अबूझ (जाने-अनजाने) में राम जी और चारों भाइयों को भी रंग डाल आएं, वो कौन से अपने लड़कों (बेटे) में से हैं. 

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इसी तरह उनका एक फाग राधा और कृष्ण को लेकर है.  कृष्ण अपनी मस्ती में गोपियों को अबीर-गुलाल से रंग रहे हैं, पिचकारी चला रहे हैं, और समाज की परवाह किए बिना होली की मस्ती में डूबे हैं. गोपियां उनकी शरारतों से परेशान होते हुए भी प्रसन्न हैं और अंत में यह संकेत देती हैं कि एक दिन वे भी कृष्ण को इसी तरह रंग डालेंगी और इस दिन का बदला लेकर रहेंगीं.

मैं कैसे होरी खेलूं राम श्याम करे बरजोरी।

अबीर गुलाल गाल में लावत धरी बहियां झकझोरी।

बार-बार अंगियाबंद तोरी सारी रंग में बोरी।

ग्वाल बाल संग गारी गावत अबिर लिए भर झोरी।

अवचक में मारी पिचकारी केसर के रंग घोरी।

लोक लाज एको नाहीं मानत मोसों करत ठिठोरी।

राह बाट में रार मचावे अबहीं उमिर की थोरी।

द्विज महेन्द्र कोई बरजत नाहीं देख रही सब गोरी।

कबहीं कसर सधैहों मोहन तब बृषभान किशोरी।

 

राग... यानी कबीरा और जोगीरा सा रा रा रा...

फाग की बात हो चुकी है तो मस्ती का अगला पड़ाव है जोगीरा. उत्तर भारत की नाथ संप्रदाय वाली परंपरा के योगियों का जहां-जहां वर्चस्व रहा, वहां-वहां जोगिरा गायन की परंपरा ने जड़ें जमा लीं. हालांकि योगियों की बात है तो उसमें हठयोग शामिल था, लेकिन इसके उलट जब यही योग लोक रंग में छाया तो जोगीरा बन गया. योगियों ने पहले-पहल इस परंपरा में चेतावनी भजन और गीत बनाए गए थे, जिनमें प्रश्नोत्तरी शामिल थी. यही चेतावनी थोड़ा आगे बढ़कर तंज बनी और फिर फागुन की मस्ती में शामिल होकर मौज बन गई. जोगीरा गायन में एक टेक होती है, जोगीरा सा रा रा रा... और हर एक पंक्ति के साथ मस्ती का उठान अपने चरम की ओर बढ़ता जाता है.

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पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक परंपरा पर खूब काम करने वाली लेखिका आकृति विज्ञा 'अर्पण' बताती हैं कि, पुराने जमाने में तो, ढोलक, झाल, झांझ, करताल जैसे बाजों की धुन के साथ हर शाम गांव के मंदिरों पर टोली जुटती थी और होली के गीतों की तान छिड़ जाती थी. देर रात तक चलने वाले इस आयोजन में धीरे-धीरे सारा गांव जुड़ता जाता था. एक-एक करके फागुन के गीत, जोगीरा, चैतावर, धमार सब कुछ रात से परवान चढ़ता जाता था. होली वाले दिन तो इस तरह की महफ़िल पूरे परवान पर रहती थी.

प्रश्नोत्तर शैली के ये गीत पहले निर्गुण को समझाते हैं, जिनमें टेक के लिए कबीरा सा रारा रा कहा जाता है और यह उनकी रहस्यभरी उलटबासियों का सहारा लेते हुए आगे ब्रह्म तक पहुंचते हैं तो यही टेक जोगीरा सारा रा रा हो जाता है. इस काव्य विधा में तो सबसे रोचक होती है आशु कविता, यानी कि सिर्फ मौके पर छंद रच दिए जाते हैं, जिनमें तत्कालिक समाज की स्थिति-परिस्थितियों की झलकियां शामिल हो जाती हैं. 

वैसे परंपरागत जोगीरा काम-कुंठा को दूर करने का भी साधन है. इसमें एक तरह से काम अंगों और प्रतीकों का भरमार है. संभ्रांत और प्रभुत्व वर्ग को जोगीरा के बहाने गरियाने और उन पर गुस्सा निकालने का यह एक अनोखा ही तरीका है, पहले तो खूब जी भरके गरिया लिया और फिर गदगद होने के बाद, समझाते-मनाते हुए मनुहार भी कर ली गई कि अरे भाई बुरा न मानो होली है.  होली में बुरा न मानने-मनाने का ये ध्येय वाक्य यहीं से निकला है. 

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जोगीरा सा रा रा रा

प्रथम सुमिरो सरस्वती की, दूजे दुरगा माय ।

फागुन में जोगीरा गाऊँ कण्ठ विराजो आय । 

 

सवाल :- कवन देस को चलें भवानी, कवन देस को जाती ।

कवना हाथे खप्पड़ ले के।

कवना हाथे खाती ॥

जोगीरा सा रा रा रा

जबाब :- पुरुब देस को चले भवानी,

पच्छिम देस को जाती ।

बावां हांथ में खप्पड़ ले के,

दाहिना हांथे खाती ।।

जोगीरा सा रा रा रा

 

झाल बाजे डम्फ बाजे, बाजे मिरदंग । 

सिवसंकर खेले होली पारबती के संग ।। 

अबीर गुलाल डारे, घोर घोर के रंग ।

संकरजी के जटा-जट से वहती माता गंग ।। 

फिर देखे चलो जा सा रा रा रा........

 

सवाल : केकर बेटा राज भरथरी, कह देना त नाम जी।

कवन गुरु के चेला बन के

भजते हरि का नाम जी ।।

कै बरिस की उमिर भरथरी जोग रमाता तप में जी।

कवन देस के रानी ब्याहे, का पछताये मन में जी ।।

फिर देख चली जा सा रा रा रा

 

जवाब :- चंद्रसेन राजा के बेटा, जाहिर जग में नाम जी।

गुरु गोरख के चेला होके, भटकत फिरे तमाम जी ।।

तेरह बरस की उमिर भइआ, खाक रमाए तन में जी।

 सिंघलदीप की रानी ब्याहे जोग, करन पछताय जी ।। फिर देख चली जा सा रा रा रा

 

अररररररररर

होरी होरी का कहो,

हरि होरी का मूल,

जिस होरी में हरि नहीं,

उस होरी में धूल ।

जोगीरा सा रा रा रा

ये तो था नाथ संप्रदाय के योगी कवियों का जोगीरा, जिसमें शिव, दुर्गा, सरस्वती, पार्वती, राजा भतृहरि और ऐसे ही साधु-संत समाज का जिक्र होता है, लेकिन यह जोगीरा जब जन की लोकवादी परंपरा में पहुंचता है तो इसकी रंगत भी लोक की हो जाती है. कबीर की परम्परा के जनकवि आचार्य रामपलट दास के कबीरा और जोगीरा पूरबियों में ढोलक की थाप के साथ जीवंत हैं. इन जोगीरा गीतों के मूल में कौन हैं और क्यों हैं ये कहने की जरूरत नहीं. उनके लिखे की एक बानगी देखिए.

 

केकर खातिर पान बनल बा, केकरे खातिर बांस

केकरे खातिर पूड़ी पूआ, केकर सत्यानास

जोगीरा सा रा रा रा………………….

 

नेतवन खातिर पान बनल बा, पब्लिक खातिर बांस

अफसर काटें पूड़ी पूआ, सिस्टम सत्यानास

जोगीरा सा रा रा रा………………….

 

आधी टांग क धोती पहिरे, आधी पीठ उघार

पलटू कारन बजट क घाटा, बोल रहल सरकार

जोगीरा सा रा रा रा...

चिन्नी चाउर महंग भइल, महंग भइल पिसान

मनरेगा का कारड ले के, चाटा साँझ बिहान

जोगीरा सा रा रा रा………………….

 

रंग... यानी टेसू,-पलाश से रंग बनाना

होली आते ही रंग बनाने की तैयारी भी पकवान बनाने की साथ होने लगती थी. तब रंग आज की तरह केमिकल वाले नहीं थे. प्राकृतिक थे. फूलों और पत्तियों से बनाए जाते थे. टेसू के फूल रंग बनाने के लिए बड़े काम में लाए जाते थे. टेसू के फूलों को बड़े हौदे में भिगो दिया जाता था. फिर इसे उबालकर सूती कपड़े में निचोड़ लेते थे. इस तरह से गीला रंग तैयार हो जाता था. वहीं टेसू, पलाश और गुड़हल की पंखुड़ियों को सुखाकर पीस लेते थे तो इनका गुलाल बन जाता था. रंग बनाने की ये प्रक्रिया भी गीतों से अछूती नहीं रही है, यहां भी साज है, सुर है, तान है और ताल भी हैं. रंग बनाते-बनाते जो गीत गाया जाता है, उसकी एक बानगी देखिए.

बम भोले हो लाल, कहां रंगवल पागड़िया 

बम भोले हो लाल कहां रंगवल पागड़ियां

कवना शहरिया से रंगवा मंगवल

कवना शहरिया से पागडिया

हो कवना शहरिया से पागड़िया

 

बम भोले हो लाल कहां रंगवल पागड़िया

बम भोले हो लाल कहां रंगवल पागड़िया ...

देवघर नगरिया से रंगवा मंगवल

काशी नगरिया से पागड़िया

हो काशी नगरिया पगड़िया

बम भोले हो लाल कहां रंगवल पागड़िया

होली गीतों के गायन में बनारस का विशेष स्थान है. बनारस के पंडित साजन मिश्र, छन्नूलाल मिश्र जैसे महान गायकों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया है. शारदा सिन्हा की आवाज ने इसे समृद्ध किया है. लोकसंगीत में होली के गीतों को 'फगुआ' कहा जाता है, जिनकी प्रस्तुति बैठकी होली के रूप में होती है और इन गीतों के साथ ही 'चैती' भी गाई जाती है, जो चैत माह की शुरुआत के साथ लोकप्रिय होती है. यहीं से होली के गीतों में स्त्री स्वरों की प्रधानता भी शामिल होती है. 

फागुन के साथ चैती के सुर, स्त्री स्वरों की भी आवाज

इन चैती गीतों में जहां एक ओर फागुन की विदाई की बात है तो दूसरी ओर राम जन्म की खुशी के साथ मातृत्व का सुख भी है. चैती गीतों में मस्ती के साथ आध्यात्मिकता का जोड़ भी देखने को मिलता है. जिसमें मिलन और विरह की भावनाएं तो प्रमुख होती हैं, इसके साथ ही सामाजिकता, भक्ति रस और आध्यात्मिक चेतना भी देखने को मिलती है. होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं है, बल्कि यह लोकगीतों और सांस्कृतिक धरोहर का भी पर्व है. यही धरोहर हमारी सामाजिक पहचान है, हमारी युगों से चली आ रही ऐतिहासिक यात्रा है और यही धरोहर हमारी पहचान है.

होली के दो-तीन दिन बाद रंग जरूर उतर जाते हैं, लेकिन आनंद का जो रंग मन की गहराई में जाकर बैठ जाता है, वह नहीं उतरता है, बल्कि पीढ़ियों तक असर डाले रहता है.

होली की मस्ती में कबीर की मल्हारी

होली की इस मस्ती और मल्हारी में कबीर की एक बात ध्यान आ जाती है. वह कहते हैं कि इस संसार में धरती और आकाश के बीच तो रोज ही होली हो रही है. रोज होलिका जलती है और रोज आनंद मनता है. आंखें खुली हों तो इस नजारे को देखो. आना-जाना तो रोज ही लगा हुआ है, लेकिन एक पल को ठहर कर जरा जी भी लो, जो जीवन मिला है, उसे समझ भी लो और भोग भी लो. वैसे भी एक दिन होली तो जल ही जानी है. सतगुरु की कृपा ले लो और आनंद को समझ लो. 

गगन मण्डल अरुझाई, नित फाग मची है।

गगन मण्डल अरुझाई, नित फाग मची है।।

ज्ञान गुलाल अबीर अर्घजा, सखियाँ लै लै धाई।

उमंगि उमंगि रंग डारी, पिया पर फगुआ देहु भलाई।।

गगन मण्डल बिच होरी मची है, कोई गुरु गम तैं लखि पाई।

शब्द डोर जहँ अगर धरतु है, शोभा बरनि न जाई।।

फगुआ नाम दियो मोहिं सतगुरु, तन की तपन बुझाई।

कहै 'कबीर' मगन भई बिरहिनी, आवागवन नसाई।।

कबीर के शब्दों में जीवन में तो हर दिन फाग ही फाग है. ये फाग शरीर के भीतर है. इसी को बाहर लेकर आने का नाम होली है. आत्मा को परमात्मा से मिलाकर एक हो जाने का नाम होली है. सबको गले लगाने और सबके गले लग जाने का नाम होली है. यही प्रेम है, यही भक्ति है, मस्ती है, इश्क है, आशिकाना है, सूफियाना है. रंगीन है और यही है सब बातों की एक बात, आज रंग उड़ो है मस्त मगन मन भंवरा है....

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