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सत्य की खोज, शिव हो जाने की यात्रा... नागा साधुओं के अबूझ रहस्यों से पर्दा उठा रहा है 'भस्मांग'

इस सीरीज की हर तस्वीर शुरुआत से ही आपको अपने मोहपाश में जकड़ लेगी. यह एक अलग ही तरीके की विवेचना है कि जो तस्वीरें संसार के हर बंधन, हर मोह से अलगाव का उदाहरण हैं, उनको भी देखने का एक अलग ही मोह देखने वाले की आंखें में जागेगा ही जागेगा. गैलरी की शुरुआत में ही जटा बिखेरे खड़े नागा साधु की आदमकद तस्वीर आपको उनकी रहस्यमयी दुनिया को झांक आने का आमंत्रण देती हुई लगती है.

भस्मांगः नागा साधुओं के रहस्यमय जीवन की तस्वीरें सहज ही आकर्षित करती हैं. फोटोज क्रेडिट: बंदीप सिंह (इंडिया टुडे के ग्रुप फोटो एडिटर) भस्मांगः नागा साधुओं के रहस्यमय जीवन की तस्वीरें सहज ही आकर्षित करती हैं. फोटोज क्रेडिट: बंदीप सिंह (इंडिया टुडे के ग्रुप फोटो एडिटर)
विकास पोरवाल
  • नई दिल्ली,
  • 28 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 7:56 PM IST

नग्न किशोर तन पर भस्म सजी हुई है. सिर, चेहरा, कंधे,  हाथ, छाती और पेट को पूरी तरह भस्म से रंग लेने के बाद राख भरी हथेलियां, पांवों की ओर बढ़ चली हैं. जैसे-जैसे हाथ नीचे की ओर बढ़ते गए, कमर से ऊपर का तन उतने ही कोण बनाता हुआ झुकता गया, पहले, 30 अंश का कोण, फिर 45 अंश, क्रमशः 60 और देखते-देखते बायां पांव, दाहिने पैर से कुछ आगे निकलकर आया, कमर ने ऊपरी धड़ को और झुकाया. इस तरह उस किशोर नागा का शरीर समकोण बनाता दिख रहा है.

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सम पर आने की यही स्थिति तस्वीर में कैद हो गई है. संगीत (गायन और नृत्य) की कला में सम पर आने का मतलब है कि ताल की एक ठाह  (एक लय) पूरी हुई. कथक और भरतनाट्यम करते हुए नर्तक ताल के सम पर आते ही अपने नृत्य की शुरुआती स्थिति में आ जाते हैं और कुछ ऐसी ही बात फोटोग्राफर बंदीप सिंह अपनी इस तस्वीर की व्याख्या करते हुए कहते हैं.

भस्म शृंगार की अद्भुत तस्वीर

वह कहते हैं कि इस बाल नागा का अपने कर्तव्य, अपनी साधना के प्रति झुकाव देखिए, कितने निष्पाप और निष्पकपट भाव से यह खुद के तन पर भस्म की रंगत चढ़ा रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई नर्तकी, नृत्य से पहले घुंघरू बांधकर अपनी सज्जा को अंतिम रूप दे रही है. उनके कही इस बात को सहजता से समझने के लिए इस तस्वीर को देखिए.

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ऐसी ही रोमांचक, रहस्यवाद से भरी और अध्यात्म के अनछुए पहलू को सामने रखने वाली इस भाव यात्रा का साक्षी बनना चाहते हैं तो नई दिल्ली में मौजूद त्रावणकोर पैलेस (कस्तूरबा गांधी मार्ग) आइए, जहां के गलियारे में प्रदर्शित ये तस्वीरें आपके मस्तिष्क के उस अबूझ द्वार को खोल देंगी, जिसकी चाबी अब तक आपसे खोई रही थी.  

महाकुंभ-2025 के महा आयोजन का अभी हाल ही में समापन हुआ है. प्रयागराज के संगम तट पर श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ा, इस दौरान शंख-घंटे-घड़ियाल, आरती की धुन के अलावा कोई और नाद, कोई और संगीत यहां था ही नहीं. हर-हर गंगे के घोष से संगम तट और हर-हर महादेव से शिवालय गुलजार रहे. इतने सारे दृश्य और आंखें सिर्फ दो. आखिर दो आंखों से कितना देखा जा सकता था?

रोमांच जगाते हैं नागा साधु

तिस पर नागा साधुओं के दृश्यों और दर्शन का अलग ही रोमांच. यह जमघट अपने आप में रोचकता तो जगाता ही रहा लेकिन इससे भी अधिक जिज्ञासा जगाते रहे कि कुंभ में आने वाले अखाड़े और इनके साधु. कोई भभूत लगाए, भस्म रमाए, कौपीन-लंगोट पहने, त्रिपुंड सजाए, शस्त्र उठाए, धूनी रमाए यहां-वहां दिख जाता था. इनमें से कई थे दिगंबर साधु, जिन्हें देखकर ये सवाल सहज ही आता कि हमारी ही तरह हाड़-मांस के शरीर से बने ये लोग आखिर हमसे कितने अलग हैं? उनके इस अवस्था तक पहुंचने की प्रक्रिया है? आखिर कोई साधु जब नागा बनता है तो इसकी दीक्षा कैसे लेता है?

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इंडिया टुडे ग्रुप के प्रधान फोटो संपादक बंदीप सिंह के कैमरे ने साल 2019 और 2025 के कुंभ मेलों के दौरान इन्हीं सवालों का पीछा किया और लेंस के उस पार से जो जवाब हासिल हुए हैं, वह अपने आप में तस्वीरों से सजा एक पूरा महाकाव्य है. जिसे उन्होंने  ‘भस्मंग: द वे ऑफ द नागा साधुस’ नाम की फोटोग्राफी सीरीज में सजाकर पेश किया है. इस सीरीज में एक तो आपको कुंभ मेलों के दौरान की नागा साधुओं की दुर्लभ झलक देखने को मिलेगी, तो दूसरी ओर कुंभ से अलग नागा साधुओं का जीवन कैसा है, उसके भी दर्शन होंगे.

पहली ही तस्वीर से शुरू हो जाती है रहस्यभरी यात्रा

इस सीरीज की हर तस्वीर शुरुआत से ही आपको अपने मोहपाश में जकड़ लेगी. यह एक अलग ही तरीके की विवेचना है कि जो तस्वीरें संसार के हर बंधन, हर मोह से अलगाव का उदाहरण हैं, उनको भी देखने का एक अलग ही मोह देखने वाले की आंखें में जागेगा ही जागेगा. गैलरी की शुरुआत में ही जटा बिखेरे खड़े नागा साधु की आदमकद तस्वीर आपको उनकी रहस्यमयी दुनिया को झांक आने का आमंत्रण देती हुई लगती है.

उस आमंत्रण के बाद जैसे ही आप उनके संसार में प्रवेश करने लगते हैं, ऐसा लगता है कि तस्वीर दर तस्वीर रहस्य का एक-एक पन्ना पलटता चला जा रहा है. फिर तो नजर आते हैं, चेहरे पर झुर्रियों की गंभीरता ओढ़े, रक्तिम निगाहों से आपकी ओर एकटक देख रहे नागा साधु, जिनकी बड़ी और गहरी आंखें ऐसी लगती हैं कि मानों दुर्योधन की सभा में विराट स्वरूप दिखलाते कृष्ण कह रहे हैं,

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'पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

हंसने लगती है सृष्टि उधर!

मैं जभी मूंदता हूं लोचन,

छा जाता चारों ओर मरण।'

हर बारह वर्ष बाद होने वाला महाकुंभ आयोजन प्रयागराज के पवित्र संगम तट और अन्य तीन स्थानों पर मानवीय आस्था का विराट सागर बनकर उमड़ता है. करोड़ों श्रद्धालु इस प्राचीन परंपरा में शामिल होकर आध्यात्मिक शुद्धिकरण की राह तलाशते हैं. इस राह में भस्म से लिप्त, निर्वस्त्र शरीर को भक्ति की जीवंत अभिव्यक्ति का जरिया बनाकर यह नग्न संन्यासी अलौकिक भी लगते हैं और दिव्य भी. वे त्याग और मोक्ष की उस सनातन साधना का प्रतीक हैं, जो सांसारिक बंधनों से पूरी तरह मुक्त होने की यात्रा का प्रमाण है.

नागा साधु कुंभ मेले के दौरान सबसे अधिक चर्चा में रहने वाले पात्र हैं और उनके हठयोग के साथ उनका क्रोध भी सामान्य जन की जुबान पर तैरता-उतराता दिखता है. इस अबूझ और अनजाने में  उनकी छवि उग्र स्वभाव वाले संतों की गढ़ दी जाती है, लेकिन इन नाटकीय दृश्यों से परे उनका एक और गूढ़ संसार है, जिसे बहुत कम लोग करीब से देख पाए हैं. इन तस्वीरों का केंद्रीय भाव उसी सच को उजागर करना भी है. तस्वीरें कैमरे के जरिए सामान्य लोगों और संन्यासियों के बीच विकसित हुए उस अनूठे संबंध की कहानी भी हैं, जो अध्यात्म की राह पर निकले हैं. जिसमें हर किसी का अध्यात्म उसकी अपनी खोज है, अपनी यात्रा है. तस्वीरें क्षणिक और शाश्वत के बीच की कड़ी भी हैं. यह तस्वीरें व्यक्तिगत अनुभवों का दर्शनशास्त्र हैं और जो आम धारणाओं से परे है और जिसे हर कोई अपने स्तर पर ही महसूस कर सकता है.

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हर तस्वीर कुछ कहती है

हो सकता है कि आप पहली नजर में इन तस्वीरों में नग्न शरीरों को देखें, लेकिन इसी नग्नता की सहजता आपके भीतर उमड़-घुमड़ करने लगेगी. फिर दिमाग खुद ही अपनी कुलबुलाहट में यह सवाल करेगा कि यह नग्न क्यों हैं? कैसे हैं? तस्वीरें इतनी जीवंत हैं कि खुद ही कह उठेंगी कि पहले यह समझो कि नग्नता क्या है? इस जवाब में गीता का एक और श्लोक ध्यान आएगा, 'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय... यह शरीर तो खुद ही एक वस्त्र है, जिसने आत्मा को ढंक रखा है. कपड़े के ही ऊपर कपड़े, आखिर कितने कपड़े?

इसका जवाब अगली ही तस्वीर देगी, जिसमें एक बाल नागा 'नागफनी' (कमर के नीचे के हिस्से पर बंधने वाला कपड़ा) बांध रहा है. यह तस्वीर बताती है कि अगर मान लज्जा को ही ढंकना है तो यह इतना टुकड़ा ही काफी है, लेकिन फिर अगली ही तस्वीर सवाल करेगी, लज्जा कैसी और लज्जा है किससे? क्या हम अपनी यौनिकता और वासना में जकड़े हुए हैं जो हमें खुद ही खुद से लाज आती है?

अगली तस्वीर में एक नागा साधु ने जांघों के बीच से लाठी को पीछे की ओर पकड़ रखा है, जिसमें उसका शिश्न भी लिपटा हुआ  है. इस लाठी पर दूसरा नागा साधु संतुलन बनाकर खड़ा है. यह तस्वीर वासना पर नियंत्रण को बताती है और कहती है कि इंद्रिय नियंत्रण ही वह जरूरी विधान है, जो हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर मजबूत और सक्षम बना सकता है.

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इसी तस्वीर के सामने वाली दीवार पर नदी तट पर हवा में जटा लहराते साधु की तस्वीर जड़ी हुई है. जो इस तथ्य का प्रतीक है कि विचारों के विकार और वासना के रोग से मुक्त हो जाने के बाद जो दिव्य काया सामने आएगी वह परमेश्वर की बनाई इस सृ्ष्टि का सहज ही अनुभव कर पाएगी. नागा साधु के शरीर पर पुलकित हो उठे एक-एक रोम के उभार को तस्वीर में महसूस किया जा सकता है.

ये तस्वीरों का शिवतत्व से इतनी सहज निकटता है कि इन्हें देखते हुए पुराणों में लिखा एक प्रसंग अनायास ही याद आ जाता है. पार्वती के विवाह के लिए शिव का प्रस्ताव लेकर गए सप्तऋषियों से उनकी मां मैना शिव के रूप, गुण, संस्कार और परिवार के बारे में पूछती हैं तो सप्तऋषि जो बताते हैं, वो देखिए

मातृहीन पितृहीन गुणहीन धनहीन
गृहहीन उदासीन विपिन विहारी हैं.

शीशगंग भालचन्द्र नेत्र लाल कण्ठव्याल
भस्मयुक्त नग्नतन, जटाजूटधारी हैं.

भूतेश्वर नागेश्वर डमरू त्रिशूलधर
अशुचि का घर, बैल उनकी सवारी है.

सत्यम शिवम सुंदरम उन्हें कहें वेद
कन्या के तुम्हारे वही शिव अधिकारी हैं.

भस्म ओढ़े, शुचिता का दिव्य रूप धरे और गुरु के आदेश से हठयोग में रमे ये नागा साधु शिवतत्व के ही परिचायक हैं. वह शिव होने की ही यात्रा पर हैं. वह सत्य की खोज में लगे हुए लोग हैं, सत्य जो शिव भी है और ब्रह्मांड में सुंदरतम भी है.

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फोटोज क्रेडिट: बंदीप सिंह (इंडिया टुडे के ग्रुप फोटो एडिटर)

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