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क्या पेट्रोल-डीज़ल गाड़ियों से भी ज़्यादा प्रदूषण फैलाते हैं इलेक्ट्रिक वाहन? जानें पूरी डिटेल

अमेरिकी राष्ट्रपति Donald trump ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले दिन, कई एक्जीक्यूटिव ऑडर्स पर साइन किए. अब ट्रम्प ने अमेरिका में इलेक्ट्रिक वाहनों की अनिवार्यता को खत्म कर दिया है. विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंप का ये कदम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में हो रहे वैश्विक प्रयासों के लिए अच्छा संकेत नहीं है. ये भी कहा जा रहा है कि पेट्रोल-डीजल से ज्यादा प्रदूषण तो इलेक्ट्रिक वाहनों (EV's) से होता है. आइए जानते हैं कि सच क्या है. क्या वाकई इलेक्ट्रिक गाड़ियां पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं? अगर ऐसा है, तो क्यों?

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पारुल चंद्रा
  • नई दिल्ली,
  • 28 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 1:01 PM IST

पर्यावरण को बचाने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों का कॉन्सेप्ट लाया गया. कुछ साल पहले जहां इक्का-दुक्का कार कंपनियां ही EV  बनाती थीं, वहीं आज हर बड़ा प्लेयर इलेक्ट्रिक वाहन बना रहा है. वो इसलिए, क्योंकि भारत सरकार EV को बढ़ावा दे रही है. हाल ही में भारत सरकार ने 10,900 करोड़ की PM E Drive योजना को मंजूरी दी, ताकी लोग ज्यादा से ज्यादा ईवी खरीदें. इसके लिए सब्सिडी भी दी जा रही है. इन कारों के लिए बहुत सारे मॉनिटरी बेनिफिट्स भी दिए जा रहे हैं, जैसे GST, Tax और परमिट वगैरह में छूट. सरकार ने 2030 तक प्राइवेट इलेक्टिक कार में 30 प्रतिशत वृद्धि और टू-व्हीलर और थ्री व्हीलर में 80 प्रतिशत वृद्धि हासिल करने के लिए नए टारगेट भी सेट किए हैं. यही वजह है कि भारत में ईवी का मार्केट बूम कर रहा है. और उम्मीद की जा रही है कि 2030 तक भारत में ईवी का मार्केट 100 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा.

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आमतौर पर इलेक्ट्रिक वाहनों को Eco Friendly, यानी पर्यावरण के लिए सुरक्षित माना जाता है. वो इसलिए, क्योंकि इनसे प्रदूषण नहीं फैलता और ये आवाज़ भी नहीं करतीं, लेकिन ये पूरा सच नहीं है. हो सकता है कि आपके लिए EVs किफायती हों, लेकिन जिस फिक्र को लेकर EV का कॉन्सेप्ट लाया गया था, उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता. असल में ये गाड़ियां तो पर्यावरण को पेट्रोल-डीजल कार से भी ज़्यादा नुकसान पहुंचा रही हैं. इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रोडक्शन प्रोसेस हो, उनके ब्रेक और टायर हों या उनकी बैटरी हो, ये सभी इतना प्रदूषण फैलाते हैं कि आप सोच नहीं सकते. आइए एक-एक करके समझते हैं, कैसे.

इलेक्ट्रिक गाड़ियों का उत्पादन

EV और नॉर्मल इंजन के एमिशन की तुलना करने पर पाया गया कि EV के टोटल कार्बन एमिशन का 46 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ प्रोडक्शन प्रोसेस से आता है. जबकि नॉर्मल गाड़ियों में ये 26 प्रतिशत है. हैरान करने वाली बात ये है कि एक इलेक्ट्रिक कार के बनने की प्रक्रिया के दौरान करीब 5- 10 टन कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है.

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ईवी और नॉर्मल गाड़ी की बॉडी, चेसिस और दूसरे कंपोनेंट लगभग एक जैसे ही होते हैं. इन्हें बनाने में एलुमिनियम और स्टील जैसी धातुओं का इस्तेमाल किया जााता है. लेकिन ईंधन की बात करें, तो ईवी बैटरी से चलती है. ये लीथियम आयन बैटरी होती हैं, जो रेयर अर्थ मेटल्स से बनी होती है. ये मैटल हैं- लीथियम, कोबाल्ट, निकल और मैगनीज़.

बैटरी से होता है प्रदूषण

IMF की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईवी की एक सामान्य बैटरी को बनाने में 8 किलो लीथियम, 35 किलो मैगनीज और 6 से 12 किलो कोबाल्ट की जरूरत होती है. इनमें से कोबाल्ट एक रेयर अर्थ मेटल है, जो आसानी से नहीं मिलता, इसलिए मैनुफैक्चरर्स इसकी मात्रा को कम करने के लिए निकल का सहारा लेते हैं, जो कोबाल्ट की तुलना में सस्ता होता है. बैटरी में इन सबका इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इन मेटल की माइनिंग सबसे बड़ा enviornental कंसर्न है. लीथियम और कोबाल्ट जैसे मेटल की माइनिंग की वजह से ईवी गाड़ियों का कार्बन फुटप्रिंट सामान्य गाड़ियों से कहीं ज्यादा हो जाता है. इन्हें जमीन से निकालने में 4,275 किलो एसिड वेस्ट और 57 किलो Radioactive residue पैदा होता है.

क्यों खतरनाक है लिथियम?

एक टन लीथियम से करीब 100 ईवी गाडियों की बैटरी बन सकती है. लेकिन इस एक टन लिथियम को निकालने के लिए 2 मिलियन टन पानी की ज़रूरत होती है. ईवी में 13,500 लीटर पानी लगता है, जबकि पेट्रोल कार में यह करीब 4 हजार लीटर है. चिली, बोलीविया और अर्जेंटीना में इस वजह से पानी की भारी कमी हो गई. अकेले चिली नें 65 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल लिथियम निकालने के लिए किया जा रहा था. क्यूबा में जहां जहां निकल और कोबाल्ट की खदानें हैं, वहां की करीब 570 हेक्टेयर ज़मीन पर जीवन खत्म हो चुका है. वहीं 10 किलोमीटर से ज़्यादा इलाका प्रदूषित हो गया. भारी प्रदूषण की वजह से फिलीपींस को निकल और कोबाल्ट की 23 खदानें बंद करनी पड़ीं.

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वहीं अगर एल्युमीनियम की बात करें, तो एक ईवी बनाने में करीब 250 किलो एल्युमीनियम का इस्तेमाल किया जाता है. ये औसत पेट्रोल या डीजल इंजन की तुलना में 25-27% ज़्यादा है. 2030 तक, ईवी इंडस्ट्री की मांग को पूरा करने के लिए 10 मिलियन टन एल्युमीनियम की ज़रूरत होगी.

बैटरी चार्जिंग के लिए बिजली

ईवी चार्जिंग की बात करें, तो यह भी पर्यावर्ण के लिए बहुत फेवरेबल नहीं दिखती. लोग ईवी घर पर या चार्जिंग स्टेशन पर चार्ज करते हैं. लेकिन जिस बिजली से ये चार्ज हो रही हैं, वो कहां और कैसे बन रही है? रिकार्डो कंसल्टेंसी के मुताबिक, अगर ईवी को कोयले से बनी बिजली से चार्ज किया जाए, तो डेढ़ लाख किलोमीटर चलने पर, पेट्रोल कार के मुकाबले 20% ही कम कार्बन निकलेगा. बता दें कि भारत में 70% बिजली कोयले से ही बनती है.

खराब हो चुकी बैटरी खतरनाक!

बैटरी लाइफ खत्म होने पर उसे फेंक दिया जाता है या लैंडफिल में दबा दिया जाता है, जो पर्यावरण के लिए और भी ज़्यादा खतरनाक है. इससे और ज्यादा कार्बन फुटप्रिंट बढ़ता है. ज़मीन में इसलिए दबा दिया जाता है क्योंकि बैटरियों को रीसाइकल करने की प्रोसेस बहुत लंबी है और महंगी भी पड़ती है. हालांकि कुछ कंपनियों ने बैटरी रीसालइकिलिंग के प्लांट लगाए हैं, लेकिन इनमें भी कुल बैटरियों का केवल 5 प्रतिशत ही रीसाइकिल हो पाता है.

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एरिजोना यूनिवर्सिटी के इकोलॉजी विभाग के एमिरेट्स प्रोफेसर गाई मैक्फर्सन कहते हैं कि लीथियम दुनिया का सबसे हल्का मेटल है. यह बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉन छोड़ता है. इसी कारण ईवी की बैटरी में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. ग्रीन फ्यूल कहकर लीथियम का महिमामंडन हो रहा है, पर इसे जमीन से निकालने से पर्यावरण 3 गुना ज्यादा जहरीला होता है. लीथियम की 98.3% बैटरियां इस्तेमाल के बाद गड्‌ढों में गाड़ दी जाती हैं. पानी के संपर्क में आने से इसका रिएक्शन होता है और आग लग जाती है. उन्होंने बताया कि अमेरिका के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के एक गड्ढे में जून 2017 से दिसंबर 2020 तक इन बैटरियों से आग लगने की 124 घटनाएं हुईं.


EV के ब्रेक और टायर भी फैलाते हैं प्रदूषण

रिसर्च रिपोर्ट कहती है, गैस से चलने वाली कारों के मुकाबले इलेक्ट्रिक व्हीकल के ब्रेक और टायर 1850 गुना ज्यादा प्रदषण फैलाते हैं. एमिशन एनालिटिक्स की रिपोर्ट कहती है, इलेक्ट्रिक वाहनों का वजन ज्यादा होता है. वजन ज्यादा होने के कारण इसके टायर जल्दी घिसते हैं. यानी तेजी से इनकी उम्र घटती है. ये हवा में नुकसान पहुंचाने वाले केमिकल रिलीज करते हैं. ज्यादातर टायर क्रूड ऑयल से निकले सिंथेटिक रबर से तैयार किए जाते हैं. ये प्रदूषण की वजह बनते हैं.

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पेट्रोल इंजन के मुकाबले EV की बैटरी ज्यादा भारी होती है. ये अतिरिक्त वजन ही ब्रेक और टायर पर पड़ता है और इनकी उम्र तेजी से कम होती है. रिसर्च रिपोर्ट में टेस्ला के मॉडल Y और फोर्ड एफ-150 लाइटनिंग का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि दोनों ही गाड़ियों में करीब 1800 पाउंड की बैटरी लगी है. पेट्रोल कार के मुकाबले इन इलेक्ट्रिक वाहनों में लगी आधे टन की इस बैटरी से 400 गुना अधिक उत्सर्जन होता है.

EV भी ईको फ्रेंडली बन सकती है, बशर्ते...

इन सभी फैक्टर्स को देखें तो, EVs को इको फ्रैंडली कैसे कहा जा सकता है. तो क्या ये मान लिया जाए की इलेक्ट्रिक वीकल का कॉन्सेप्ट गलत था. नहीं. ईवी ईकोसिस्टम अभी अपने शुरुआती चरण में है. इसलिए इसमें परेशानियां आ रही हैं. लेकिन ईवी भी ईकोफ्रेंडली तब बन सकती है, जब माइनिंग के प्रोसेस को डीकार्बोनाइज़ कर दिया जाए, अगर ईवी चार्ज करने वाली बिजली कोयले से न बनी हो. जब इसकी बैटरी को रीसाइकल करने और खराब बैटरी को सेफली डीकंपोज़ करने का नया तरीका निकाला जाए.
 

 

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