
हर साल सड़क दुर्घटनाओं (Road Accidents) में लाखों लोग अपनी जान गंवाते हैं. भारत में सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाने के मामले दुनिया के औसत से काफी अधिक है. यही कारण है कि भारत सरकार देश में बिकने वाली कारों को अधिक सुरक्षित बनाने पर जोर दे रही है. इन सारी कवायदों के बीच सबसे ज्यादा चर्चा है एयरबैग्स (Airbags) की. सरकार सभी कारों में छह एयरबैग्स अनिवार्य बनाने जा रही है. आइए जानते हैं कि दुर्घटना की स्थिति में कैसे एयरबैग तुरंत खुद ही खुल जाते हैं और कार के ड्राइवर समेत सवार लोगों की जान बचाते हैं.
ऐसे हुई कारों में एयरबैग की शुरुआत
अगर दुनिया के पहले एयरबैग की बात करें तो अमेरिका के जॉन हेट्रिक (John Hetrick) और जर्मनी के वाल्टर लिंडरर (Walter Linderer) का नाम आता है. दोनों ने लगभग एक ही समय में एयरबैग का डेवलपमेंट किया. अमेरिकी इन्वेन्टर हेट्रिक ने अगस्त 1952 में पहले एयरबैग का डिजाइन तैयार किया और इसे अगस्त 1953 में पेटेंट मिल गया. वहीं जर्मन इन्वेन्टर लिंडरर ने अक्टूबर 1951 में ही पेटेंट के लिए फाइल किया, लेकिन उन्हें नवंबर 1953 में पेटेंट मिल पाया. लिंडरर का डिजाइन मर्सिडीज (Mercedes) ने अपनी लग्जरी कारों में इस्तेमाल किया, वहीं हेट्रिक से प्रेरित होकर फोर्ड (Ford) और क्राइसलर (Chrysler) जैसी कंपनियों ने एयरबैग बनाए.
इस तरह काम करता है एयरबैग
जब कार की कोई टक्कर होती है, उसकी स्पीड तेजी से कम हो जाती है. एक्सेलेरोमीटर (Accelerometer) स्पीड में अचानक आए इस बदलाव को डिटेक्ट करता है. इसके बाद एक्सेलेरोमीटर एयरबैग के सर्किट में लगे सेंसर को एक्टिवेट कर देता है. एयरबैग सर्किट सेंसर एक्टिवेट होते ही एक हीटिंग एलीमेंट के जरिए इलेक्ट्रिक करेंट देता है. इससे एयरबैग के अंदर केमिकल विस्फोट होता है. विस्फोट होते ही एयरबैग के अंदर अचानक गैस बनने लगती है, जिससे नाइलॉन का बना बैग तुरंत फूल जाता है. यह बैग ड्राइवर और कार सवारों को बॉडी या किसी सख्त चीज से टकराने से बचाता है. हालांकि एयरबैग भी तभी अच्छे से बचाव कर पाता है, जब कार चालक व सवार सीटबेल्ट ऑन रखते हैं.
नाइट्रोजन गैस का एयरबैग में अहम रोल
शुरुआत में एयरबैग में सोडियम एजाइड (Sodium Azide) यानी NaN3 केमिकल का इस्तेमाल किया जाता था. टक्कर की स्थिति में इग्नाइटर में बिजली दौड़ती थी और वह गर्म हो जाता था. गर्मी से सोडियम एजाइड सोडियम मेटल (Sodium Metal) और नाइट्रोजन गैस (Nitrogen Gas) में बदल जाता है. यही गैस एयरबैग को पूरा खोल देता है. अभी कार कंपनियां एयरबैग में अलग केमिकल्स का इस्तेमाल करने लगी हैं, जो पहले की तुलना में और जल्दी गैस छोड़ता है. एयरबैग में बनने वाले गैस को लेकर इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह यात्रियों के ऊपर कोई बुरा असर नहीं डालता हो. इसी कारण मुख्य तौर पर नाइट्रोजन का ही इस्तेमाल होता है.
एयरबैग से इतने कम हुए मौत के मामले
अब यह जान लेना भी जरूरी है कि क्या एयरबैग वाकई में जान बचाते हैं या कंपनियां अधिक पैसा कमाने के लिए इसके ऊपर जोर देती हैं. साल 1995 में Adrian Lund और Susan Fergueson ने इस टॉपिक पर अहम रिसर्च पब्लिश किया. उन्होंने इसके लिए 1985 से 1993 के दौरान अमेरिकी सड़कों पर हुए कार एक्सीडेंट के आंकड़ों का सहारा लिया. आंकड़ों से पता चला कि आमने-सामने की टक्कर के मामले में एयरबैग के कारण जान जाने की घटनाओं में 23-24 फीसदी की गिरावट आई. हालांकि एयरबैग्स के चलते आंखों में चोट या आंशिक बहरेपन जैसे मामले भी सामने आए. बहरहाल अब कंपनियां एयरबैग के जो आधुनिक डिजाइन का इस्तेमाल करती हैं, उनमें ऐसी चोटों के खतरे भी मामूली रह गए हैं. वैसे भी जान चली जाए, उससे कहीं बेहतर मामूली चोट है. कहावत भी है, जान बची तो लाखों पाए...