
आज के समय में ग्लोबल NCAP, यूरो NCAP जैसी कई प्राइवेट एजेंसियां हैं जो कि, वाहन की मजबूती या फिर वाहन में सफर करने वाले यात्रियों की सुरक्षा को सेफ्टी रेटिंग्स के आधार पर तय करती हैं. इन सेफ्टी रेटिंग्स को देखकर व्हीकल के सुरक्षित होने का अंदाजा लगाना जितना आसान होता है, वाहन की क्रैश टेस्टिंग की प्रक्रिया उतनी ही जटिल होती है. इसके बारे में हम आपको अपने पूर्व के लेख में विस्तार से बता चुके हैं. जानिए कैसे होती है NCAP क्रैश टेस्टिंग.
लेकिन क्या आपने कभी विचार किया है कि, जब दुनिया में टेक्नोलॉजी इतनी विकसित नहीं थी उस दौर में वाहनों की सुरक्षा जांच के लिए क्या इंतज़ाम थें. हालांकि वाहनों के बाजार में आने के कई सालों के बाद तक लोगों के जेहन में व्हीकल क्रैश टेस्टिंग के ख्याल नहीं आए थें. घंटों की मेहनत, भारी लागत से तैयार वाहन उस दौर में भी तकरीबन हर किसी के लिए उतने ही लग्ज़री आइटम थें जैसे कि आज हैं. ऐसे समय में सेफ्टी टेस्ट के लिए किसी भी वाहन को जान बूझकर क्रैश करना यानी कि पूरी तरह से नष्ट करना हर किसी को गवारा नहीं था. लेकिन यात्रियों की सुरक्षा के मद्देनजर यह बहुत ही जरूरी भी था.
दुनिया का पहला कार क्रैश टेस्ट:
तकनीकी का इजाद होना और व्यवहार में आते हुए उसका सुरक्षित होना यही तो हम सभी चाहते हैं. ऐसा ही कुछ साल 1934 में भी हुआ, इसके पहले तक किसी भी कार का क्रैश टेस्ट नहीं किया गया था, कम से कम रिकॉर्ड के तौर पर तो बिल्कुल नहीं. उस साल, जनरल मोटर्स ने मिशिगन में मिलफोर्ड प्रोविंग ग्राउंड में अपना पहला बैरियर टेस्ट (Barrier Test) किया. साल 1924 में शुरू की गई जनरल मोटर्स मिलफोर्ड प्रोविंग ग्राउंड ऑटो इंडस्ट्री की पहली डेडिकेटेड ऑटोमोबाइल परीक्षण (टेस्टिंग) फेसिलिटी थी. मिलफोर्ड, मिशिगन में स्थित 4,000 एकड़ (1,600 हेक्टेयर) में फैले इस ग्राउंड में आज भी कार्य किया जाता है.
जब मर्सिडीज़ बेंज ने की क्रैश टेस्टिंग:
इसके बाद मर्सिडीज-बेंज द्वारा किए गए कंपनी के पहले कार क्रैश टेस्ट ने इस दिशा में नए आयाम जोड़ें और ऑटोमोबाइल सेफ्टी की दुनिया में एक नए दौर की शुरुआत हुई. यह 10 सितंबर 1959 की बात थी जब संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ अंतरिक्ष की दौड़ में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थें, फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में सत्ता संभाल ली थी और MINI की पहली छोटी कार ने हाल ही में ब्रिटेन के बाजार में दस्तक दी थी. इसी बीच मर्सिडीज-बेंज के इंजीनियरों का एक ग्रुप दक्षिण जर्मनी में सिंडेलफिंगेन के एक खुले मैदान में एक नए परीक्षण की तैयारी कर रहा था.
बड़े से मैदान में सबकी निगाहें ग्राउंड के बीच में एक टेस्टिंग सेट-अप से थोड़ी दूर खड़ी एक कार पर टिकी थीं, जिसके थोड़ी देर में ही परखच्चे उड़ने वाले थें. सेटअप कुछ ऐसा था कि, कार के सामने एक बड़ा सा बैरियर बनाया गया था. कार और बैरियर के बीच एक केबल का इस्तेमाल किया गया था, जो टोइंग सिस्टम का हिस्सा था. इस केबल को मर्सिडीज के इंजीनियरों ने शहर के तकनीकी विश्वविद्यालय HFT स्टटगार्ट में ग्लाइडर पायलटों से उधार लिया था. इसी टोइंग सिस्टम का इस्तेमाल कार को स्पीड में धकेलने के लिए किया जाना था.
टेस्टिंग की प्रक्रिया शुरू होती है और "टेल फिन बॉडी" वाली मर्सिडीज-बेंज 190 अपने सामने खड़ी 17 टन के बैरियर से टकराती है जो कि कंक्रीट और अन्य मजबूत मैटीरियल से बना था. इस क्रैश टेस्ट में कार का बोनट पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाता है. हालांकि इस परीक्षण से पहले ही कार के ड्राइवर की तरफ के दरवाजे हटा दिए गए थें, ताकि चालक का प्रतिनिधित्व करने वाले पुतले (Dummy) के साथ होने वाली प्रतिक्रियाओं को फिल्माया जा सके. वहीं अन्य "यात्रियों" के तौर पर कार के भीतर रेत से भरे तीन बैग रखे गए थें.
कैसे होती थी पुराने दौर में टेस्टिंग:
जाहिर है उस दौर में तकनीक इतनी विकसीत नहीं थी, ऐसे में क्रैश टेस्ट करना किसी भी कंपनी के लिए भी एक बड़ी चुनौती थी. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि, जब तक बैरियर टेस्टिंग की शुरुआत नहीं की गई थी तब तक क्रैश टेस्ट के लिए टेस्टिंग व्हीकल को खाली कर तेज स्पीड में धकेलते हुए किसी पहाड़ी से नीचे लुढ़का दिया जाता था - या चालक/इंजीनियर चलते वाहन से छलांग लगा देते थें, जिसके बाद कार सामने किसी मजबूत दिवार, पेड़ या पहाड़ी इत्यादि से टकराता था.
इतना ही नहीं, उस वक्त कुछ क्रैश टेस्ट में डेड बॉडी/शवों (Cadaver), चिंपैंजी, सुअर और अन्य जानवरों का भी इस्तेमाल किया जाता था. इन शुरुआती परीक्षणों में, पैसेंजर की सुरक्षा पर कम और कारों को मजबूत और अधिक लचीला बनाने के तरीके का अध्ययन करने पर ज्यादा जोर दिया जाता था. यही कारण है कि कारों के चलन के बावजूद लंबे समय तक सीटबेल्ट को कारों की फीचर्स लिस्ट में शामिल नहीं किया गया था. उस दौर में व्हीकल क्रैश टेस्ट के लिए डमी (Dummy) के इस्तेमाल के बारे में अभी किसी ने नहीं सोचा था.
डेड बॉडी से क्यों होती थी टेस्टिंग:
मनुष्य के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच के लिए इंसानी जिस्म से बढ़कर उस वक्त कोई और दूसरा उपाय नहीं था. कम से कम तब तक तो बिल्कुल नहीं था जब तक कि डमी या पुतले का अविष्कार नहीं कर लिया गया. सामान्य तौर पर भी डेड बॉडी को बायोमैकेनिकल अध्ययन करने के लिए एक बेहतर विकल्प माना जाता है, आज भी मेडिकल साइंस की दुनिया में मृत शरीर का इस्तेमाल किसी भी तरह प्रभावों की जांच के लिए किया जाता है. शरीर के कुछ हिस्सों (सिर, छाती, कंधे, जांघ, पेट आदि) पर क्रैश के दौरान पड़ने वाले चोटों की जांच की जाती थी. ये सबकुछ महज एक डाटा एकत्र करने के लिए किया जा रहा था और ये सब इतना आसान भी नहीं था. हर बार अलग-अलग उम्र, कद और वजन के शवों के नमूने परीक्षणों में इस्तेमाल के लिए चुने जाते थें और दुर्घटना के दौरान शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का डाटा इकट्ठा किया जाता था.
सैमुअल एल्डरसन के क्रैश टेस्ट डमी ने बदली तस्वीर:
दुनिया की ऑटो इंडस्ट्री तेजी से आगे बढ़ रही थी, लेकिन वाहनों में यात्रियों की सेफ्टी को लेकर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी था. ऐसे में 21 अक्टूबर 1914 को ओहियो के क्लीवलैंड शहर में जन्मे सैमुअल डब्ल्यू एल्डरसन, जो कि एक भौतिक विज्ञानी और इंजीनियर थें उन्होनें कुछ ऐसा किया जिसने व्हीकल क्रैश टेस्टिंग को एक नया आयाम दिया. दरअसल, सैमुअल ने दुनिया का पहला क्रैश टेस्ट डमी (Dummy) बनाया, जिसे वी.आई.पी. नाम दिया गया था.
सैमुअल ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मिसाइल गाइडलाइन सिस्टम के लिए छोटे इलेक्ट्रिक मोटर्स विकसित किए, फिर आईबीएम के लिए काम करने लगें. जहां उन्होनें मोटर-संचालित प्रोस्थेटिक आर्म डिजाइन किया. इस काम के अनुभवों के आधार पर ही, उन्होंने 1952 में विमान में इस्तेमाल की जाने वाली इजेक्शन सीटों की सुरक्षा का परीक्षण करने के लिए एंथ्रोपोमेट्रिक डमी डिजाइन किया और इसके लिए एक एग्रीमेंट के तहत उन्होनें अपनी खुद की कंपनी की स्थापना की. मोटर वाहन उद्योग को भी ऐसी ही डमी की जरूरत थी, क्योंकि सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या लगातार बढ़ रही थी.
अब तक व्हीकल क्रैश टेस्ट में इस्तेमाल किए जाने वाले शवों, जानवरों इत्यादि से कोई पुख्ता डाटा नहीं मिल रहा था. तकरीबन हर बार आंकड़ों में अंतर देखने को मिल रहा था, जिसके कारण इंजीनियर और शोधकर्ता किसी मजबूत नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे थें. यहीं से शुरू होती है ऑटो इंडस्ट्री में क्रैश-टेस्ट के लिए डमी के चलन की कहानी.
सैमुअल की कंपनी ने साल 1949 में एक एंथ्रोपोमेट्रिक टेस्ट डमी (ATD) तैयार किया, जिसे "सिएरा सैम" नाम दिया गया था. इसे विमान इजेक्शन सीट, एविएशन हेलमेट और पायलट सेफ्टी हार्नेस का परीक्षण करने के लिए पेश किया गया था. इसके बाद साल 1968 में उन्होंने V.I.P डमी का निर्माण किया, जिसे ऑटोमोटिव परीक्षण के लिए डिज़ाइन किया गया था. इसमें एक स्टील रिब केज, आर्टिकुलेटेड जॉइंट्स और एक लचीली गर्दन दी गई थी, जिसमें इंस्ट्रूमेंटेशन रखने के लिए भी जगह दी गई थी, और एक औसत पुरुष के वजन, आकार और मूवमेंट गुणों की नकल करते हुए इसे इंसानी जिस्म के रूप में डिज़ाइन किया गया था.
सैमुअल एल्डरसन के इस डमी डिज़ाइन ने ऑटो इंडस्ट्री के क्रैश टेस्ट की समस्या को काफी हद तक हल करते हुए एक नया विचार दे दिया था. 1970 के दशक तक, जनरल मोटर्स के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने भी बाजार में एंट्री की और एक प्रतियोगी के तौर पर सिएरा इंजीनियरिंग के साथ एल्डरसन के मूल डिजाइन के पहलुओं को मिलाकर हाइब्रिड I (Hybrid I) नाम से अपनी डमी को तैयार किया. इसके बाद हाइब्रिड II और हाइब्रिड III नाम से नेक्स्ट जेनरेशन डमी तैयार किए गएं. इन पुतलों की ख़ास बात ये थी कि, इनमें गर्दन के लचीलेपन और मानव शरीर की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए काफी सुधार किया गया था, जो कि क्रैश-टेस्ट के दौरान ज्यादा सटीक आंकड़े प्रस्तुत कर रहे थें.
सैमुअल डब्ल्यू एल्डरसन का नाम आज भी ऑटो इंडस्ट्री में सबसे बेहतर योगदान के लिए जाना जाता है. 90 साल की उम्र में 11 फरवरी 2005 को लॉस एंजिल्स में उनके घर पर उनका निधन हो गया. लेकिन व्हीकल क्रैश टेस्टिंग के लिए जो डमी उन्होनें तैयार किया था, उसी मूल आधार पर चलते हुए दुनिया की ऑटो इंडस्ट्री आज नए तकनीक के साथ उस मुकाम पर खड़ी है जहां मानव शरीर के हूबहू नकल जैसे डमी तैयार किए जा रहे हैं, जो कि किसी भी दुर्घटना में शरीर पर लगने वाले चोटों के बारे में ज्यादा सटीक आंकड़े देते हैं. वहीं क्रैश टेस्ट एजेंसिया उन्हीं डाटा के आधार पर वाहनों को सेफ्टी रेटिंग्स प्रदान करती हैं.