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राजनीति और जाति, सियासत को गठबंधन की नजर से देखें तो इनका बंधन गजब का है. खासकर हिंदी पट्टी के दो बड़े राज्यों यूपी और बिहार में ये धारणा मजबूत है कि बगैर जाति के राजनीति नहीं हो सकती. बिहार की राजनीति में जातियों का मकड़जाल ही ऐसा है कि हिंदुत्व की हवा के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) कभी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ सकी. बिहार के सियासी फलक पर अब एक नई पार्टी का उदय हो चुका है- जन सुराज. पीके लगातार जाति की भावना से ऊपर उठकर वोट करने के आह्वान करते आए हों लेकिन उनकी असली चुनावी परीक्षा भी इसी जातीय राजनीति की पिच पर होगी.
जन सुराज पार्टी की लॉन्चिंग से पहले ही राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के अध्यक्ष लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने पीके पर निशाना साधते हुए इसके संकेत भी दे दिए. रोहिणी ने कहा, "'कौन है प्रशांत किशोर पांडे? पांडे लोगों का तो काम ही है यादव को गाली देना तभी तो इनकी दुकान चलेगी." जन सुराज की सियासत में एंट्री से पहले आए रोहिणी के इस बयान को अगड़ा-पिछड़ा पॉलिटिक्स का रंग देने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. अब सवाल है कि क्या प्रशांत किशोर बिहार की कॉस्ट पॉलिटिक्स का मकड़जाल तोड़ पाएंगे?
चुनाव रणनीतिकार के रूप में अलग-अलग दलों के लिए चुनाव विजयी रणनीति का ताना-बाना बुनते आए पीके को भी इस बात का अंदाजा होगा कि बिहार जैसे राज्य में यह चुनौती बड़ी होगी. खासकर तब, जब एक-एक जाति के लिए एक-एक पार्टी का विकल्प उपलब्ध हो. यादव और मुस्लिम लालू यादव की अगुवाई वाली आरजेडी का कोर वोटर माने जाते हैं तो निषाद मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के. नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का बेस लव-कुश (कुर्मी-कोईरी) समीकरण है तो कोईरी जाति का प्रतिनिधित्व उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) भी करती है.
जीतन राम मांझी की अगुवाई वाली हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (लोकतांत्रिक) की इमेज मुसहर और महादलित की पार्टी की है तो दलित और पासवान वोट की दावेदारी चिराग पासवान की अगुवाई वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी) करती हैं. सभी सांसदों के साथ छोड़ जाने के बाद अकेले रह गए चिराग पार्टी का नाम-निशान गंवाने के बावजूद हालिया लोकसभा चुनाव के समय चाचा पशुपति को किनारे कर एनडीए में पुरानी धमक के साथ वापसी कर पाए तो इसके पीछे भी यही नैरेटिव था कि उनकी जाति उनके साथ है.
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सामान्य वर्ग के साथ गैर यादव ओबीसी पर बीजेपी का फोकस है. जातीय गणित में उलझी बिहार की सियासत में नई-नवेली जन सुराज पार्टी को पीके की रेनबो पॉलिटिक्स से वोट गणित साधने की उम्मीद है.
कास्ट पॉलिटिक्स को लेकर क्या कर रहे पीके?
प्रशांत किशोर की पार्टी भले ही नई-नवेली हो, सियासत के लिए वह नए नहीं हैं. पीके 2011 से ही बतौर चुनाव रणनीतिकार ही सही, सियासत में सक्रिय हैं. नरेंद्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश से लेकर पंजाब तक, सफलतापूर्वक चुनावी रणनीति बनाने का काम कर चुके हैं. बिहार की ही बात करें तो पीके 2015 में विजय रथ पर सवार बीजेपी को रोकने वाले जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन के लिए भी चुनाव विजयी रणनीति तैयार कर चुके हैं. उनको भी इस बात अंदाजा रहा होगा कि खुद पार्टी का नेतृत्व लिया तो इसे अगड़ा-पिछड़ा राजनीति की शक्ल दी जा सकती है और शायद यही वजह है कि पीके ने पार्टी की अगुवाई के लिए मनोज भारती के रूप में दलित चेहरे को आगे किया.
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पीके पार्टी के संचालन के लिए संचालन समिति बनाने की बात कर रहे हैं, आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का दांव चल रहे हैं. पीके ने आजतक से खास बातचीत में कहा भी कि जाति सच्चाई है लेकिन राजनीति में केवल जाति ही नहीं है. एक पूर्वाग्रह बना दिया गया है कि जाति की ही राजनीति है. लालू यादव की जाति के मुसलमान नहीं हैं, फिर भी आरजेडी को वोट करते हैं. मोदी जी के नाम पर बड़ी संख्या में लोग बीजेपी को वोट करते हैं जबकि उनकी जाति का एक भी आदमी बिहार में नहीं है.
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बिहार में क्या है जातियों का गणित?
जाति सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी सबसे अधिक है. ईबीसी की आबादी 36.01 और ओबीसी की आबादी 27.12 फीसदी है. अनुसूचित जाति (एससी) 19.65, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 1.68 और सामान्य वर्ग की आबादी 15.52 फीसदी है. जाति के हिसाब से देखें तो ओबीसी में सबसे प्रभावशाली जाति यादव है जिसकी आबादी 14.26 फीसदी है. वहीं, पीके जिस ब्राह्मण जाति से आते हैं, उसकी आबादी सूबे में 3.67 फीसदी है. बिहार में मुस्लिम भी 17.7088 फीसदी हैं.
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क्या पीके गिरा पाएंगे जातीय अस्मिता की दीवार?
पीके पार्टी की अगुवाई के लिए नेताओं के ग्रुप, संगठन से सरकार तक आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने की बात कर रहे हैं तो यह कुछ वैसा ही है जैसे बीजेपी की रणनीति यूनिवर्सल हिंदू वोटबैंक की रहती है. पीके की ये रेनबो पॉलिटिक्स बिहार की राजनीति में जातीय अस्मिता की दीवार गिरा पाने में कितनी सफल होती है, जाति से हटकर बच्चों के भविष्य और रोजी-रोजगार के लिए वोट देने का आह्वान क्या जादू दिखा पाता है? ये कुछ ही महीनों बाद होने वाले चार विधानसभा सीटों के उपचुनाव, 2025 के बिहार चुनाव के नतीजे ही बताएंगे.