
कहते हैं कि मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती है और देर-सवेर इसका परिणाम मिलता ही है. यह कहावत चरितार्थ हुई है एक भारतीय युवा के साथ, जिसे काफी मेहनत के बाद अंतत: वर्ल्ड बैंक में नौकरी मिली है. येल यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट इस युवा को 600 ईमेल और 80 फोन कॉल के बाद यह शानदार नौकरी मिली है.
कोरोना काल में हुआ ग्रेजुएट
वत्सल नाहटा की इस कहानी की शुरुआत होती है साल 2020 में, जब कोरोना महामारी का प्रकोप अपने चरम पर था. नाहटा ने अप्रैल 2020 में ग्रेजुएशन तो पूरा कर लिया, लेकिन महामारी के चलते परिस्थितियां अनिश्चितताओं से भरी थी और नाहटा इस बात को लेकर परेशान थे कि उन्हें नौकरी मिल पाएगी या नहीं. उन्होंने अपनी पूरी कहानी प्रोफेशनल सोशल मीडिया वेबसाइट लिंक्डइन पर शेयर की है. नाहटा लिखते हैं, 'मैं जब भी यह याद करता हूं कि मुझे वर्ल्ड बैंक में नौकरी कैसे मिली, मेरी कंपकंपी छूट जाती है.'
नहीं मिल रही थी कोई नौकरी
2020 के पहले छह महीने हर किसी के लिए मुश्किलों से भरे हुए थे. लोग महामारी के प्रकोप का सामना करने में लगे हुए थे और नौकरी के मोर्चे पर काफी मुश्किल हालात थे. कोविड को महामारी बताए जाने के बाद कंपनियां छंटनी करने लगी थीं और हजारों-लाखों लोगों का रोजगार छिन चुका था. नाहटा उस दौर को याद करते हुए कहते हैं, 'सभी कंपनियां सबसे बुरी परिस्थिति का सामना करने की तैयारी की रही थीं और ऐसे में नई भर्ती करने का कोई मतलब नहीं बनता था. एक ऐतिहासिक मंदी का खतरा सभी के सिर पर था.'
वीजा को लेकर हुई दिक्कतें
ऐसे समय में नाहटा मई 2020 में येल यूनिवर्सिटी से इंटरनेशनल एंड डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में मास्टर ऑफ आर्ट्स की अपनी डिग्री लेने की तैयारी में थे. उसी साल अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इमिग्रेशन के नियमों को कड़ा बना दिया था. नाहटा उन भारतीय प्रतिभाओं में से एक थे, जो उस समय ऐसी कोई कंपनी खोज पाने में नाकामयाब हो रहे थे, जो उनका वीजा स्पॉन्सर कर दे. वह कई कंपनियों में अंतिम राउंड के इंटरव्यू तक पहुंच रहे थे, लेकिन उन्हें रिजेक्ट कर दिया जाता था क्योंकि कंपनियां उनका वीजा स्पॉन्सर करने में असमर्थ थीं.
नाहटा अपने पोस्ट में बताते हैं कि उस समय सभी कंपनियां अनिश्चय की स्थिति में थीं और उन्हें यह नहीं पता था कि आगे इमिग्रेशन पॉलिसी कैसी रहने वाली है. ट्रंप के रवैये ने इसे अनिश्चित बना दिया था और इस कारण कंपनियां अमेरिकी लोगों को नौकरी पर रख रही थीं. वह कहते हैं कि ऐसा लग रहा था, जैसे येल यूनिवर्सिटी की डिग्री कागज का एक टुकड़ा भर है. जब माता-पिता फोन कर पूछते थे कि मैं कैसा हूं और सब कैसा चल रहा है, उन्हें कुछ बता पाना मुश्किल हो गया था.
अभी आईएमएफ के साथ कर रहे हैं काम
नाहटा फिलहाल इंटरनेशल मॉनिटरी फंड में एक रिसर्च एनालिस्ट के तौर पर काम कर रहे हैं. वह बताते हैं कि तमाम प्रतिकूल हालात के बाद भी वह हार मानने को तैयार नहीं थे. दो चीजें उनके लिए साफ थीं...वापस भारत लौटना कोई विकल्प नहीं है और दूसरी कि उनकी पहली सैलरी अमेरिकी डॉलर में होनी चाहिए. ऐसे में उन्होंने एक कड़ा निर्णय लिया कि अब जॉब के लिए अप्लाई नहीं करना है और जॉब पोर्टल्स को नहीं छानना है. इसके बजाय उन्होंने नेटवर्किंग का सहारा लिया. नेटवर्किंग का मतलब अनजान लोगों को ईमेल भेजना और फोन करना, इस उम्मीद में कि शायद कोई बढ़िया रिस्पॉन्स दे.
इतने प्रयासों के बाद मिली पहली नौकरी
नाहटा ने नेटवर्किंग पर दो महीने जमकर मेहनत की. उन्होंने लिंक्डइन पर 1500 से ज्यादा कनेक्शन रिक्वेस्ट भेजा. इसके अलावा उन्होंने अनजबियों को 600 से ज्यादा ईमेल और 80 से ज्यादा फोन कॉल किया. नाहटा बताते हैं, 'मैं हर रोज अजनबियों को कम से कम 02 कॉल कर रहा था और अपने जीवन में सबसे ज्यादा रिजेक्ट हो रहा था. हालांकि समय के हिसाब से मैंने अपनी चमड़ी मोटी कर ली.' अंतत: उन्हें सफलता हाथ लगने लगी. मई के पहले सप्ताह में उन्हें चार नौकरियों के ऑफर मिले, जिनमें एक ऑफर वर्ल्ड बैंक का था. अंतत: उन्होंने वर्ल्ड बैंक का ऑफर स्वीकार कर लिया, जो वर्ल्ड बैंक के मौजूदा रिसर्च डाइरेक्टर के साथ मिलकर मशीन लर्निंग पर किताब लिखने का था.