
सफलता की राह संघर्षों से तैयार होती है. कभी हार नहीं मानने की ऐसी ही जिद भरी कहनी है प्रसिद्ध उद्योगपति एवं वेदांता ग्रुप (Vedanta Group) के चेयरमैन अनिल अग्रवाल (Anil Agarwal) की, जिसे वह इन दिनों खुद ही सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं. ताजी कड़ी में उन्होंने बताया कि कैसे केबल कंपनी का कारोबार बढ़ाने के लिए वह पहली बार अमेरिका गए और अंग्रेजी की कम जानकारी के चलते किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
वेदांता चेयरमैन पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'कहा जाता है कि अच्छी चीजें आप तक तब ही आती हैं, अगर आप उनके लिए काम करना शुरू करें. फल पाने के लिए आपको जड़ों को अच्छे से सींचना भी तो पड़ेगा! साल 1986 में पॉलिसी बदलने के साथ ही मेरी किस्मत भी बदल गई. मेरे पहले बिजनेस ने रफ्तार पकड़नी शुरू की और मैं शेयर्स की public offering के साथ जिंदगी के पहले 4 करोड़ रुपये जुटाने में कामयाब रहा. मैं अपने केबल बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए सस्ते, सेकंड हैंड मशीनरी खरीदना चाहता था, और उसके लिये... फिर एक नए सपने की शुरुआत हुई और मैंने ठान लिया, कि उसे सच कर दिखाना है. मेरी अगली उड़ान थी दुनिया के उस मजबूत देश की तरफ, जिसका नाम था अमेरिका.'
अग्रवाल आगे बताते हैं, 'उम्र - 24 साल, अंग्रेजी - टूटी फूटी. घर के बने हुए स्वादिष्ट परांठे और चुरमुर से भरा सूटकेस! शाकाहारी हूं तो सेफ रहना जरूरी समझा. मेरे साथ में था मेरे बचपन का दोस्त अजय आनंद. हम दोनों की ये पहली अमेरिका यात्रा थी. दोनों नर्वस थे, लेकिन साथ होने से मानो हिम्मत बंधी हुई थी. मजेदार बात ये थी कि हम मंजिल की ओर बढ़ तो चले थे, पर वहां पर रहने का कोई ठिकाना तय नहीं था. मैंने ये रिस्क उठाई क्योंकि पीछे हटने वालों में मैं हरगिज नहीं था.'
वेदांता चेयरमैन ने इस कड़ी में बताया कि कैसे वह पहली बार बर्फ की चादर देख हैरान रह गए थे. वह बताते हैं, 'कई घंटों का सफर तय कर हमारा विमान आखिरकार JFK एयरपोर्ट पर उतरा. मैंने खिड़की के बाहर देखा. अविश्वसनीय दृश्य! बर्फ!! मानों दूध सी सफेद कोई चादर चारों ओर बिछी हो... एकदम अद्भुत नजारा. रवाना होने से पहले हमें कहा गया था कि न्यूयॉर्क शहर में जेबकतरों और ठगों से सावधान रहना है. मैंने अपने साथ लाए हुए कुल जमा 500 डॉलर को अपने कोट के अंदरूनी हिस्से में अच्छी तरह से पनाह दी हुई थी.'
अनिल अग्रवाल ने इससे पहले एक पोस्ट में बताया था कि अगर आप कुछ करने का इरादा तय कर लेते हैं, तो यूनिवर्स भी आपकी मदद करने लगता है. उनकी यह बात इस एपिसोड में सही साबित होती है. बिना ठिकाना तय किए अमेरिका निकल पड़े अग्रवाल को वहां ठिकाना भी ऐसे ही संयोग से मिला. इस बारे में वह कहते हैं, 'अब संयोग देखिए! फ्लाइट में पास वाली सीट पर कोई कोटावाला जी बैठे थे और बातचीत के दौरान पता चला कि वो राजस्थान में मेरे दादाजी के अच्छे परिचित थे. जब उन्हें पता चला कि हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है, तो उन्होंने हमें अपने घर में रुकने का ऑफर दिया और कुछ ऊनी कपड़े भी दिए. हमने भी जी जान लगाकर उनके घर को मानो टेक ओवर ही कर लिया. हम उनके आभारी थे. तो... हम उनके मेहमानों को अटेंड करते, उनसे बतियाते, उनके बच्चों को स्कूल, टेनिस और दूसरी क्लासेज में छोड़ने जाते, ले कर आते.'
आज बड़े कारोबारी साम्राज्य के मालिक बने बैठे अग्रवाल को अंग्रेजी कम कम जानकारी के चलते शुरुआती दिनों में परेशानियां हुईं. वह कहते हैं, इसी के साथ मैं अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में हर दिन चालीस से पचास कॉल करता था... ताकि ये पता लगाया जा सके कि मुझे सस्ती सेकंड हैंड मशीनरी कहां मिल सकती है. मैंने सुना था कि अमेरिका भरपूर अवसरों की भूमि है. वहां आप जो चाहो हासिल कर सकते हो... और मैं अपनी उसी चाह को पूरा करने वहां पहुंच चुका था...