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नीतीश की मांग, PM मोदी का ऐलान... 5 साल तक डबल इंजन की सरकार से बिहार को क्या-क्या मिला?

बिहार की राजनीति के लिए अर्थव्यवस्था कभी बड़ा इश्यू नहीं रहा है. चेहरों पर लड़े जाने वाले चुनाव में अपराध, जाति, भ्रष्टाचार आदि ही हावी रहते आए हैं. पिछले कुछ दशक में तो बिहार की राजनीति जंगलराज बनाम सुशासन के बहस पर केंद्रित रहते आई है. फिर भी गहराई में जाकर खोजें तो आर्थिक लिहाज से विशेष राज्य का दर्जा और स्पेशल पैकेज की मांग ये दो मुद्दे निकलकर सामने आते हैं.

नीतीश कुमार और पीएम मोदी (फाइल फोटो) नीतीश कुमार और पीएम मोदी (फाइल फोटो)
सुभाष कुमार सुमन
  • नई दिल्ली,
  • 10 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 12:50 PM IST
  • आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे नीतीश
  • नीतीश कुमार कई बार बदल चुके हैं पाला

Bihar Politics: राजनीति कहीं की भी हो, होती दिलचस्प है. राजनीतिक बिसात पर शह-मात का खेल भले ही हमेशा सामने से दिखाई नहीं देता हो, लेकिन पृष्ठभूमि में पटकथा के मंचन का अभ्यास लगातार जारी रहता है. इसी कारण कहावत भी प्रचलित है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. बिहार की राजनीति में यह कहावत एक बार फिर से चरितार्थ हुई है. प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Bihar CM Nitish Kumar) और उनकी पार्टी ने एक बार फिर से भारतीय जनता पार्टी (BJP) के साथ ब्रेकअप कर लिया है. नीतीश कुमार अब अपने धुर-विरोधी लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) की पार्टी राजद (RJD), कांग्रेस (Congress) और वाम दलों (Left Parties) के साथ मिलकर नई सरकार का गठन करने जा रहे हैं. इससे पहले पिछले पांच साल से राज्य में भाजपा और जदयू गठबंधन (BJP JDU Alliance) की सरकार चल रही थी, जिसे डबल इंजन की सरकार (Double Engine Kii Sarkar)  का नाम दिया गया था. आइए आर्थिक लिहाज से ये जानने का प्रयास करते हैं कि पिछले पांच साल बिहार के लिए कैसे रहे और राज्य के लोगों के ऊपर डबल इंजन की सरकार का क्या असर हुआ...

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नीतीश कुमार ने पहली बार किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं तोड़ा है. अपने 40 साल के राजनीतिक करियर में वे कई बार ऐसा कर चुके हैं.

साथ-साथ शुरू हुआ राजनीति का सफर

आर्थिक आंकड़ों की बातें करने से पहले पिछले कुछ सालों के दौरान बिहार की राजनीति के कुछ प्रमुख घटनाक्रमों को समझ लेते हैं. बिहार की राजनीति के पिछले 3-4 दशक में दो प्रमुख चेहरे ही मुख्य तौर पर छाए रहे हैं और ये दो चेहरे हैं लालू यादव व नीतीश कुमार के. कालांतर में एक-दूसरे के धुर-विरोधी बन जाने से पहले ये दोनों नेता कभी कंधे-से-कंधे मिलाकर चला करते थे. लालू यादव और नीतीश कुमार ने लगभग साथ-साथ राजनीतिक करियर की शुरूआत की. इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान पूरे देश में आपातकाल लगाया गया था, जिसके खिलाफ ऐतिहासिक जेपी आंदोलन (JP Movement) हुआ था. इसी आंदोलन ने लालू और नीतीश समेत कई नेताओं की राजनीति को आधार प्रदान किया. बिहार के ये दोनों दिग्गज नेता उस समय से साथ-साथ राजनीति में आगे बढ़ते रहे.

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कभी गहरी थी दोस्ती

इस तरह पाला बदलते रहे नीतीश कुमार

लालू यादव जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तो उस समय नीतीश कुमार उनके सबसे करीबी व विश्वस्त सहयोगी माने जाते थे. नीतीश कुमार लालू यादव को अपना बड़ा भाई बताते थे, जबकि लालू यादव नीतीश को अपना छोटा भाई बोलते थे. हालांकि दोनों मुंहबोले भाइयों का रिश्ता लंबा नहीं चला और साल 1994 में नीतीश कुमार बागी हो गए. उन्होंने जॉर्ज फर्नांडीस समेत कई समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर समता पार्टी (Samta Party) का गठन किया, जिसका नाम बाद में बदलकर जदयू (JDU) कर दिया गया. साल 1998 में नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ पहली बार गठबंधन किया और अटल बिहारी वाजपेयी की तत्कालीन सरकार में रेल मंत्री समेत कई मंत्रालयों को संभाला. यह गठबंधन करीब 15 साल चला और साल 2013 में नीतीश इससे अलग हो गए. तब उन्होंने राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई और महागठबंधन के बैनर तले 2015 का विधानसभा चुनाव जीते. इसके तहज दो साल बाद ही यानी 2017 में नीतीश राजद से भी अलग हो गए और दोबारा भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली. साल 2020 में हुए आखिरी विधानसभा चुनाव में भाजपा और जदयू साथ में उतरीं और उन्हें जीत भी मिली. अब पिछले करीब 05 साल के दौरान भाजपा के साथ सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार एक बार फिर से अलग हो चुके हैं.

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चाचा-भतीजे की जोड़ी की सरकार

पांच साल में डबल हुई बिहार की जीडीपी

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, साल 2017 में जब आखिरी बार नीतीश कुमार ने भाजपा का दामन थामा था और डबल इंजन की सरकार बनाई थी, उस समय बिहार का सकल राज्य घरेलू उत्पाद यानी स्टेट जीडीपी (Bihar GSDP) का साइज करीब 4,21,051 करोड़ रुपये था. डबल इंजन की इस सरकार के पहले साल में यानी 2017-18 में बिहार की जीडीपी बढ़कर 4,68,746 करोड़ रुपये हो गई. 2018-19 में बिहार की जीडीपी ने पहली बार 5 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा पार किया और इसका साइज 5,30,363 करोड़ रुपये हो गया. साल 2019-20 में बिहार की जीडीपी का आंकड़ा 6,11,804 करोड़ रुपये पर पहुंच गया. राज्य के ताजा बजट की बात करें तो उसके अनुमान के अनुसार 2021-22 में राज्य की जीडीपी के 7,57,026 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने का अनुमान है. इस तरह देखें तो डबल इंजन की सरकार के बीते पांच साल के दौरान बिहार की जीडीपी का साइज करीब 80 फीसदी बढ़ा.

बिहार की राजनीति में हाशिये पर अर्थव्यवस्था

बिहार की राजनीति के लिए अर्थव्यवस्था कभी बड़ा इश्यू नहीं रहा है. चेहरों पर लड़े जाने वाले चुनाव में अपराध, जाति, भ्रष्टाचार आदि ही हावी रहते आए हैं. पिछले कुछ दशक में तो बिहार की राजनीति जंगलराज बनाम सुशासन के बहस पर केंद्रित रहते आई है. फिर भी गहराई में जाकर खोजें तो आर्थिक लिहाज से विशेष राज्य का दर्जा और स्पेशल पैकेज की मांग ये दो मुद्दे निकलकर सामने आते हैं. अभी जब नीतीश कुमार और भाजपा का ताजा ब्रेकअप हुआ है तो ये दोनों गड़े मुद्दे भी बोतल में कैद जिन्न की तरह बाहर निकल आए हैं. बिहार की राजनीति में बोतल में कैद जिन्न के बाहर आते रहने की परंपरा भी रही है. तो इस बार नीतीश कुमार और उनके नए सहयोगी तेजस्वी यादव इन दोनों मुद्दों के सहारे भाजपा को घेरने का प्रयास कर रहे हैं. नीतीश कुमार इन दोनों के सहारे भाजपा से अपने ताजे ब्रेकअप को तार्किक ठहराने का भी प्रयास कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर भाजपा का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने डबल इंजन की सरकार को वो सारी चीजें दी, जिनका वादा जनता से किया गया था. आइए इसे भी जान लेते हैं कि किनके दावे में कितना दम है...

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विशेष राज्य के दर्जे से स्पेशल पैकेज का सफर

सबसे पहले बात विशेष राज्य के दर्जे की करते हैं. यह नीतीश कुमार का दशकों पुराना मुद्दा है. उन्होंने सबसे पहले साल 2010 में इसकी मांग की थी, जब केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार थी. तब उन्होंने मार्च 2013 में इस मांग को मनवाने के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में बड़े कार्यक्रम का आयोजन भी किया था. इसके कुछ ही समय बाद नीतीश कुमार भाजपा से अलग हो गए थे और इसके एक साल बाद 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल की थी. तब नीतीश कुमार विपक्षी हो चुके थे, तो उनकी मांग भी ठंडे बस्ते में चली गई. अभी से पांच साल पहले जब नीतीश कुमार दोबारा भाजपा के साथ आए, तब उन्होंने राज्य के लिए 2.75 लाख करोड़ रुपये के स्पेशल पैकेज की मांग की थी. 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान एक जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार को 1.25 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने का ऐलान किया था. उस चुनाव में भाजपा भले ही हार गई थी, लेकिन इस पैकेज के ऐलान की खूब चर्चा हुई थी. जब 2017 में भाजपा और जदयू की सरकार बनी तो इस पैकेज को डिलीवर करने का नैतिक दबाव भी आया.

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प्रधानमंत्री ने किया था पैकेज का वादा

प्रधानमंत्री के पैकेज से बिहार को मिला इतना

विपक्ष का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी का चुनावी पैकेज महज जुमला पैकेज साबित हुआ है. वहीं भाजपा का दावा है कि उस पैकेज के तहत अधिकांश हिस्सा केंद्र सरकार की ओर से बिहार को मिल चुका है. आज से करीब एक साल पहले पिछले साल जुलाई में संसद में हुए एक सवाल-जवाब का जिक्र यहां जरूरी हो जाता है. भाजपा नेता एवं बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने तब संसद में पूछा था कि प्रधानमंत्री के आर्थिक पैकेज के तहत कितना काम हो पाया है. सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने तब बताया था कि अगस्त 2015 में प्रधानमंत्री द्वारा घोषित पैकेज में से 54,700 करोड़ रुपये की 90 परियोजनाओं पर राज्य में काम चल रहा है. तब तक करीब 18 परियोजनाएं पूरी हो पाई थीं और उनके ऊपर करीब 17 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए थे. अभी की स्थिति है कि उक्त पैकेज की करीब 60 परियोजनाओं का काम पूरा हो चुका है. पैकेज की कुछ परियोजनाएं इस कारण अटकी हुई हैं कि उनके लिए जमीन अधिग्रहण का काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है. इस समस्या पर पटना हाई कोर्ट भी चिंता जाहिर कर चुका है.

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अब तेजस्वी पर ये चुनावी वादा निभाने का दबाव

बहरहाल बिहार की जनता को नई सरकार मिलने जा रही है. अब इस सरकार में राजद और उसके नेता तेजस्वी यादव को भी बड़ी भूमिका मिलने वाली है. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान तेजस्वी यादव ने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो वह 20 लाख नौकरियां देंगे. चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बाद भी राजद की सरकार नहीं बन पाई थी. भाजपा और जदयू की गठबंधन को उक्त चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया था. हालांकि अब हालात बदल चुके हैं. भाजपा और जदयू के रास्ते अलग हो चुके हैं. नीतीश कुमार के साथ राजद की सरकार बनने वाली है. ऐसे में तेजस्वी यादव के ऊपर नौकरियों का अपना चुनावी वादा पूरा करने का दबाव रहेगा.

 

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