
भारतीय निर्यात की रफ्तार सुस्त पड़ चुकी है और शुद्ध निर्यात तो पिछले कई दशकों से नेगेटिव ग्रोथ में है यानी इसमें गिरावट है. निर्यात जीडीपी के चार प्रमुख घटकों में से एक होता है, इसकी वजह से अर्थव्यवस्था की तरक्की में यह एक बड़ी कमी साबित हो रही है. कुल निर्यात और आयात मूल्य के अंतर को ही शुद्ध निर्यात या व्यापार संतुलन कहते हैं.
पिछले दशकों में भारतीय निर्यात और आयात की खाई लगातार बढ़ती जा रही है पिछले एक दशक में यह सबसे ज्यादा हो गई है. यह खाई साल 2008-09 में 100 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर चुकी है और साल 2018-19 में यह 184 अरब डॉलर थी.
विदेश व्यापार संतुलन जितना ज्यादा नेगेटिव होता है चालू खाते का घाटा (CAD) उतना ही ज्यादा होता है और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव उतना ही ज्यादा बढ़ता है.
वाणिज्यिक वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात में गिरावट साल 2010-11 और 2011-12 के बीच आई अच्छी तेजी के बाद अब भारत में निर्यात में बढ़त एक अंक में आ गई है.
हाल के वर्षों में निर्यात में सेवाओं का हिस्सा बढ़ा है. कुछ साल पहले कुल निर्यात में करीब 32 फीसदी हिस्सा सेवाओं का होता था, लेकिन अब यह 38 फीसदी से ज्यादा हो गया है.
वैश्विक निर्यात परिदृश्य खराब
वैश्विक संदर्भ में देखें तो भारतीय निर्यात की ग्रोथ इतनी खराब नहीं लगती. UNCTAD द्वारा जारी वैश्विक आंकड़ों के मुताबिक भारतीय वस्तुओं के निर्यात में बढ़त एक सामान्य ट्रेंड के तहत हो रही है, जिससे लगता है कि इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ाव है.
वित्त वर्ष 2017-18 में डॉलर के मद में भारत के निर्यात में बढ़त 8.8 फीसदी की बढ़त हई, जबकि वैश्विक निर्यात में 9.8 फीसदी की बढ़त हुई. पहले की बात करें तो साल 2017 में भारतीय निर्यात में 13.3 फीसदी की ग्रोथ हुई थी, जबकि उस साल वैश्विक निर्यात में 10.6 फीसदी की बढ़त हुई थी.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड (IIFT) के प्रोफेसर विश्वजीत नाग ने इस गिरावट की वजह बताई. उन्होंने कहा कि असल में भारत का निर्यात ज्यादातर विकसित देशों को होता है. अब ज्यादातर बड़े देशों जैसे अमेरिका, जापान, चीन, यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ रही है, इस वजह से उनकी आयात जरूरतें घट रही हैं और इस वजह से भारतीय निर्यात में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो पा रही.
वैश्विक निर्यात में आजादी के समय का आंकड़ा भी हासिल नहीं!
भारत वैश्विक निर्यात में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाकर 2 फीसदी करने के आजादी के बाद वाले दौर में भी नहीं ले जा पा रहा. साल 1948 में वैश्विक निर्यात में भारत का हिस्सा 2.2 फीसदी तक पहुंच गया था. इसके बाद से भारत का हिस्सा लगातार 2 फीसदी से नीचे ही है और वित्त वर्ष 2010 से 2018 के बीच यह 1.5 से 1.7 फीसदी रहा है.
दूसरी तरफ, चीन का वैश्विक माल निर्यात में हिस्सा साल 2010 अब तक 10.3 से 13.8 फीसदी के बीच रहा है. वहां 1980 के ही दशक से निर्यात में काफी तेजी आई है. प्रोफेसर नाग के मुताबिक चीन के निर्यात में बढ़त हुई है, क्योंकि उसने ऐसी इंडस्ट्री को खूब बढ़ावा दिया है जिनमें निर्यात की संभावना ज्यादा होती है.
चीन ने एसईजेड और अन्य संबंधित बुनियादी ढांचे जैसे बंदरगाहों, लॉजिस्टिक और सिंगल विंडो क्लीयिरंग सिस्टम आदि के विकास पर जोर दिया है. इसके अलावा चीन ने अपने श्रमिकों को कुशल बनाने के लिए दीर्घकालिक रणनीति अपनाई है, जिससे वे वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे सस्ती मजदूरी वाले देशों से मुकाबला कर सके हैं, लेकिन भारत ऐसा कुछ नहीं कर पाया है.
उच्च मूल्य वाले निर्यात में चिंताजनक संकेत
इंजीनियरिंग गुड्स, रत्न एवं आभूषण, रेडीमेड गारमेंट (कपड़े) भारत के निर्यात में वैल्यू यानी मूल्य के हिसाब से तीन शीर्ष सेक्टर हैं. इनका देश में मूल्य के हिसाब से निर्यात में सबसे ज्यादा योगदान है और श्रम गहनता वाले क्षेत्र होने की वजह से इनमें बड़ी संख्या में रोजगार भी मिलता है.
लेकिन रिजर्व बैंक के आंकड़े परेशान करने वाले हैं. इंजीनियरिंग वस्तुओं के निर्यात (जिनका कुल कमोडिटी निर्यात में 25 फीसदी हिस्सा होता है) में वर्ष 2018-19 में सिर्फ 6.3 फीसदी की बढ़त हुई, जबकि साल 2017-18 में इसमें 17 फीसदी की बढ़त हुई थी. इसी तरह के आंकड़े रत्न-आभूषण और रेडीमेड कपड़ों के भी हैं. इन दोनों में तो पिछले दो वित्त वर्ष में निर्यात में गिरावट देखी गई है.
प्रोफेसर नाग के मुताबिक आयात लागत बढ़ जाने की वजह से रत्न और आभूषण के निर्यात पर विपरीत असर पड़ा है. इसके अलावा वैश्विक मंदी से भी ऐसे लग्जरी उत्पादों की खपत पर असर पड़ा है.
इसी तरह, रेडिमेड कपड़ों के निर्यात में गिरावट की कई वजहे हैं, जैसे-कच्चे माल के आयात पर निर्भरता, डिलीवरी टाइम ज्यादा होना और वियतनाम, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों के सस्ते श्रम से मुश्किल मुकाबला. दुनिया अब कॉटन और सिंथेटिक जैसे कपड़ों की ब्लेंडिंग को अपनाने लगी है, लेकिन भारत अभी टेक्नोलॉजी के लिहाज से इसके लिए तैयार नहीं हो पाया है. भारतीय कारखाने घरेलू खपत पर ज्यादा निर्भर हैं और निर्यात के लिए अपनी क्षमता विकास पर जोर नहीं दे पा रहे.
सीआईआई के नेशनल कमिटी ऑन एग्जिम के चेयरमैन संजय बुधिया के मुताबिक हाल के वर्षों में इंजीनियरिंग वस्तुओं के कच्चे माल की लागत में बढ़त हुई है और स्टील की कीमतें तो एक साल में 20 फीसदी तक बढ़ गई हैं.
क्या हो आगे का रास्ता
बुधिया ने कहा कि अमेरिका-चीन ट्रेड वॉर वास्तव में भारत के लिए एक बड़ा अवसर है कि अपने निर्यात में तेजी ला सके. भारतीय उत्पाद अच्छी गुणवत्ता के होते हैं, लेकिन वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा का मुकाबला नहीं कर पा रहे.
उनके मुताबिक तीन वजहों से भारत का निर्यात पीछे जा रहा है. पहला, भारतीय निर्यातकों के लिए कर्ज बहुत महंगा है. भारतीय निर्यातकों को 6 से 7 फीसदी की ब्याज दर पर कर्ज मिलता है, जबकि चीन एवं वियतनाम में तो ब्याज दर लगभग शून्य है. MSME को निर्यात पर 5 फीसदी तक की ब्याज सब्सिडी मिलती है, जिसे बढ़ाकर सभी निर्यातकों के लिए करने की जरूरत है.
दूसरा, स्टील जैसे कच्चे माल को उसी तरह से प्रतिस्पर्धी कीमत पर उपलब्ध कराना होगा जैसे कि स्टील कंपनियां इंटरनेशनल बायर्स को देती हैं.
तीसरा, बिजली पर ड्यूटी और पेट्रोलियम आदि उत्पादों पर टैक्स, ड्यूटी को निर्यातकों को जीएसटी मेकैनिज्म के द्वारा रिफंड करने की व्यवस्था नहीं है. इस तरह के करों से निर्यातकों की जो लागत बढ़ जा रही है, उसकी सरकार को भरपाई करनी चाहिए.
इसके अलावा प्रोफेसर नाग के मुताबिक, प्रभावी स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम, इनोवेशन को बढ़ावा और उत्पादों एवं प्रक्रियाओं के लिए वैल्यू चेन इफिसिएंसी पर बढ़ावा देना चाहिए.