
मोदी सरकार के पिछले छह साल के कार्यकाल में भारतीय बैकिंग एवं वित्तीय सेक्टर के लिए मुश्किलें बढ़ती गई हैं. अब कोरोना संकट के बाद बैंकों की हालत और खराब हो गई है. वे कर्ज देना नहीं चाहते और कारोबारी कर्ज लेना नहीं चाहते. आज पीएम मोदी इन्हीं सब मसलों पर बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं के प्रमुखों के साथ समीक्षा करने जा रहे हैं. देखना यह होगा कि इस मंथन से क्या रास्ता निकलता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में 15 अगस्त 2014 को लालकिले की प्राचीर से दिए अपने भाषण में वित्तीय समावेश के लिए जंग की तरह काम करने का ऐलान किया था और यह संदेश दिया था कि बैंक भारत में बदलाव के वाहक बनेंगे.
बैंक इस बदलाव के वाहक जरूर बने हैं, लेकिन खुद उनकी हालत खराब होती चली जा रही है.
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क्या हैं चुनौतियां
इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी कहते हैं, 'लाख कोशिशों के बावजूद इकोनॉमी में रिवाइवल की कोशिशें कामयाब नहीं हो रहीं. क्रेडिट की ग्रोथ रेट बहुत खराब है. आज की मीटिंग में रिव्यू होगा. इसकी समीक्षा करने की कोशिश होगी कि क्या किया जाए. बैंक लोन देने के इच्छुक नहीं हैं. इकोनॉमी में जब ग्रोथ नहीं है. इकोनॉमी पहली तिमाही में 20 फीसदी तक गिरावट देख सकती है. कौन पैसा लगाएगा? बैंक डूब रहे हैं. उन्हें प्रोविजनिंग की वजह से घाटा रहा है. सरकार इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रही. बैंक कर्ज देने को तैयार नहीं, कॉरपोरेट कर्ज लेने को तैयार नहीं और बैंक अपने डिपॉजिटर्स को ब्याज देने के मामले में एक सीमा से ज्यादा रिस्क नहीं ले सकते. इसलिए बीच का कोई रास्ता निकालने की कोशिश की जाएगी.'
पिछले छह साल में ये रही हालत
अंशुमान तिवारी ने कहा, 'पिछले छह साल की बात करें बैंक को मोदी सरकार ने गिनी पिग बना दिया. पहले जनधन थोपा, फिर नोटबंदी लाए. फिर बोले एनपीए कम करो और अब उर्जित पटेल का कहना है कि एनपीए कम करने से रोका गया. इन सबकी वजह से डिपॉजिटर्स को मिलने वाला ब्याज काफी कम हो गया. इन सबकी वजह से बैंकों को काफी नुकसान हुआ और सबसे ज्यादा नुकसान डिपॉटिर्स को हुआ जिन्हें अब 5-6 फीसदी ब्याज से संतोष करना पड़ रहा है.'
लोकलुभावन कार्यक्रमों का बोझ
गौरतलब है कि सरकारी बैंकों पर लोकलुभावन कार्यक्रमों का काफी बोझ रहता है. उनसे सामाजिक सरोकारों को पूरा करने की उम्मीद की जाती है और इसकी वजह से जब उनका एनपीए बढ़ जाता है तो फिर उनको नाकारा घोषित कर दिया जाता है. किसानों की कर्जमाफी, जनधन योजना, मुद्रा योजना जैसे तमाम योजनाओं में बैंकों को भारी रकम खर्च करनी पड़ती है. अब तो इसमें MSME को दिया जाने वाला 3 लाख करोड़ रुपये तक का लोन भी जुड़ गया है. ऐसे कर्ज का बड़ा हिस्सा एनपीए में बदल जाता है और इसी वजह से बैंकों का एनपीए बढ़ता जा रहा है.
भ्रष्टाचार की वजह से विफल होते बैंक
मोदी सरकार के कार्यकाल में ही एनबीएफसी का संकट खड़ा हुआ. भ्रष्टाचार और कर्ज संकट की वजह से कई एनबीएफसी डूब गए. इस पूरे सेक्टर में नकदी की भारी कमी हो गई. बैको और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में बढ़ते घोटाले, कई बैंकों का विफल हो जाना, इसकी वजह से ग्राहकों में भरोसे की कमी, ब्याज दरों का घटते जाना, बैंका का विलय मोदी सरकार के लिए इस साल सबसे बड़ी चुनौती है.
पिछले साल सितंबर में भारतीय रिजर्व बैंक ने लोन देने में घोटाले को देखते हुए पंजाब ऐंड महाराष्ट्र बैंक (PMC) के बोर्ड को भंग कर दिया. बैंक ने अपने लोन की जानकारी रिजर्व बैंक से छिपाई थी.
इसी तरह निजी क्षेत्र का दिग्गज बैंक येस बैंक भी घोटाले की चपेट में आकर लड़खड़ाने लगा. पीएमसी की तरह यहां भी अनियमित तरीके से एचडीआईएल को लोन देने का मसला सामने आया. बैंक के नेटवर्थ में भारी गिरावट आ गई और उसका एनपीए काफी बढ़ गया. आखिकर रिजर्व बैंक ने इसके भी बोर्ड को भंग कर इसके लिए एक राहत पैकेज निकाला. एसबीआई के नेतृत्व वाले कई बैंकों के कंसोर्टियम को बैंक की हिस्सेदारी खरीदने को कहा गया और इसके लिए नया बोर्ड बनाया गया.
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इसके बाद फ्रैंकलिन टेम्पलटन म्यूचुअल फंड का मसला भी सामने आया जिसने अपने छह क्रेडिट रिस्क फंड को बंद कर दिया और निवेशकों के करीब 30 हजार करोड़ रुपये फंस गए.
बैंकों का विलय
इस साल अप्रैल से देश के कई सरकारी बैंकों का विलय कर दिया गया और इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के सिर्फ 10 बैंक बचे हैं. मीडिया में तो ऐसी खबरें आ रही हैं कि आगे और विलय करते हुए सरकारी बैंकों की संख्या 5 तक लाई जाएगी. लेकिन इससे बड़े बैंकों को नुकसान हो रहा है. कई अच्छे बैंकों के साथ परेशान या ज्यादा एनपीए वाले बैंकों का विलय कर दिया गया है जिससे उन्हें समायोजन में काफी परेशानी हो रही है.
अब कोरोना संकट
पिछले साल एक बैंक प्रमुख ने बड़े भरोसे के साथ कहा था कि 2020 बैंकिंग सेक्टर के लिए राहत वाला साल साबित होगा. लेकिन कोरोना संकट ने उनके इस उम्मीद को धराशायी कर दिया है. आज शायद वे अपने बयान को पलटकर नहीं देखना चाहते होंगे. कोरोना संकट की वजह से अर्थव्यवस्था तबाह है. बैंकों को लोन मोरेटोरियम देना पड़ रहा है. बड़ी मात्रा में लोग कर्ज की ईएमआई नहीं जमा कर रहे हैं. लोग लोन डिफाल्ट कर रहे हैं. इन सबकी वजह से बैंक परेशान हैं. इसकी वजह से बैंक अब कर्ज देने से हिचकने लगे हैं.
क्या हुए हैं सुधार
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल का बजट पेश करते हुए कहा था, 'एक साफ सुथरा, भरोसेमंद, और मजबूत वित्तीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है. सरकार के सुधारों से बैंक ज्यादा प्रतिस्पर्धी, पारदर्शी और पेशेवर बनेंगे और एक बैंकिंग तंत्र की मजबूती सुनिश्चित होगी.'
सरकार ने बैंक में जमा रकम पर बीमा कवरेज 1 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये करने की इजाजत दी है. सहकारी बैंकों और एनबीएफसी को मजबूत बनाने के लिए भी मोदी सरकार ने कदम उठाए हैं. बैंकिंग एक्ट में बदलाव कर सहकारी बैंकों को ज्यादा पेशेवर बनाने की कोशिश की गई है और उनमें रिजर्व बैंक की निगरानी को बढ़ाया गया है. इसी प्रकार एनबीएफसी को SARFAESI Act, 2002 के द्वारा डेट रिकवरी सुविधा के योग्य बनाया गया है.
एनबीएफसी में नकदी की संकट को दूर करने के लिए मोदी सरकार ने पार्शियल क्रेडिट गारंटी स्कीम को समर्थन देने के लिए नई व्यवस्था की है. मोदी सरकार ने 2015 में एनपीए मसले को हल करने के लिए सफाई अभियान शुरू किया. एक इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्शी कोड (IBC) की स्थापना की गई ताकि ऐसे बड़े मसलों को हल किया जा सके.