
सरकारी महकमों में भले ही इस बात को लेकर बहस चल रही हो कि भारत की मौजूदा आर्थिक सुस्ती संरचनात्मक है या चक्रीय, लेकिन यह सच है कि अर्थव्यवस्था को दो अंकों की तेज रफ्तार देनी है तो संरचनात्मक बदलावों के व्यापक काम को आगे बढ़ाने की जरूरत है. दो अंकों की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हाल के वर्षों तक गर्म चर्चा का विषय रही है, लेकिन अब इसे भुला दिया गया है.
एनडीए सरकार की पहली पारी में हुई थी शुरुआत
एनडीए सरकार की पहली पारी की शुरुआत में सरकार के आर्थिक नीति दस्तावेज (इकोनॉमिक सर्वे) में इसके लिए स्पष्ट खाका खींचा गया था. इसमें संरचनात्मक बदलावों का प्रस्ताव रखा गया था, जिनमें ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को काफी आगे बढ़ाने, कम उत्पादक कृषि जैसे सेक्टर में अतिरिक्त और अकुशल श्रमिकों को लगाने और उच्च उत्पादक तथा उच्च बढ़त की संभावना वाले मैन्युफैक्चरिंग एवं सेवा सेक्टर को पर्याप्त कुशल श्रमिक मुहैया कराने के लिए ‘स्किल इंडिया’ कार्यक्रम को बढ़ावा देना शामिल है.
मोदी सरकार के दोनों महत्वाकांक्षी कार्यक्रम लड़खड़ा रहे हैं और काफी समय से इनकी चर्चा नहीं हो रही है, ऐसे में संरचनात्मक बदलावों पर जाहिर है कम ही ध्यान दिया जा रहा है. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले इकोनॉमिक सर्वे (2018-19) में इस बात को स्वीकार किया गया कि मांग, उत्पादकता, रोजगार आदि बढ़ाने के लिए ‘निवेश और खासकर निजी निवेश’ को ‘मुख्य वाहक’ माना जा रहा है. हालांकि, इसमें भी दो अंकों की ग्रोथ रेट की कोई बात नहीं कही गई है.
अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए हाल में जो नीतिगत पहल किए गए हैं- कॉरपोरेट टैक्स में कटौती, बैंकों का पूंजीकरण, एनपीए को राइट-ऑफ करना यानी बट्टे खाते में डालना, एफपीआई और सुपर रिच पर लगे सरचार्ज को हटाना- वे भी साफतौर से निजी निवेश में तेजी लाने की नई सोच के तहत ही किए गए हैं.
हालांकि, इस बात पर नए सिरे से गौर करना जरूरी है कि अर्थव्यवस्था के तीन महत्वपूर्ण सेक्टर- कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और सेवाएं किस दिशा में जा रहे हैं, आज की दो बड़ी चिंताओं आमदनी और रोजगार में इनके योगदान और इनके बढ़त के लिहाज से. साल 1950-51 से इनके आंकड़ें देखें तो इनके तुलनात्मक महत्व का पता चलता है.
ज्यादा से ज्यादा आमदनी अब भी सेवाओं के द्वारा
आजादी के बाद के ज्यादातर वर्षों में आमदनी सृजन के मामले में सर्विस सेक्टर यानी सेवा क्षेत्र का योगदान सबसे ज्यादा रहा है, जिसका मापन जीडीपी ग्रोथ में योगदान के हिसाब से किया जाता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों (आधार वर्ष 2004-05, सतत कीमत) से पता चलता है कि साल 1950-51 में जब भारत मुख्यत: एक कृषि अर्थव्यवस्था था और ज्यादातर आमदनी कृषि से आती थी (जीडीपी का 52 फीसदी), तब भी सर्विस सेक्टर का राष्ट्रीय आय में योगदान 35 फीसदी तक था.
बढ़ने लगा सर्विस सेक्टर का योगदान
दूसरी तरफ, मैन्युफैक्चरिंग का योगदान बहुत ही खराब महज 9 फीसदी ही था. साल 1980-81 के बाद से ही राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का योगदान तेजी से गिरने लगी और सर्विस सेक्टर का योगदान तेजी से बढ़ने लगा.
नए सीरीज (आधार वर्ष 2011-12 ) से एक साल पहले 2010-11 में राष्ट्रीय आय में सर्विस सेक्टर का योगदान काफी बढ़कर 67 फीसदी तक पहुंच गया. इस साल राष्ट्रीय आय में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 16.1 फीसदी और कृषि का योगदान 14.1 फीसदी था. इस तरह 1990 के दशक में राष्ट्रीय आय में योगदान के लिहाज से मैन्युफैक्चरिंग यानी विनिर्माण ने कृषि को पीछे छोड़ दिया.
नए सीरीज (आधार वर्ष 2011-12, सतत कीमत ) में भी इस हालात में बदलाव नहीं आया. साल 2018-19 में सर्विस सेक्टर का योगदान 71.7 फीसदी था, जबकि मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 18.8 फीसदी था. समूचे उद्योगों का योगदान 21.8 फीसदी था. यह इस तथ्य के बावजूद हुआ कि साल 2011-12 के सीरीज में काफी बदलाव किए गए थे, मैन्युफैक्चरिंग एवं समूची इंडस्ट्री के योगदान को बढ़ा दिया गया था और सेवाओं के योगदान को घटा दिया गया था. दोनों सीरीज (2004-05 से 2013-14 के बीच) के आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन से इसको समझा जा सकता है.
उदाहरण के लिए साल 2013-14 में सर्विस सेक्टर का योगदान पुराने सीरीज के 86.7 फीसदी के मुकाबले नए सीरीज में घटकर 67.7 फीसदी रह गया. इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग का योगदान माइनस 2.4 फीसदी (-2.4) से बढ़कर 14.3 फीसदी तक पहुंच गया. अन्य वर्षों के लिए भी हालात कुछ ऐसे ही रहे.
रोजगार की रीढ़ बना हुआ है कृषि क्षेत्र
रोजगार इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी किसी भी सरकार ने इसके टाइम सीरीज का डेटा पेश नहीं किया है. पहले योजना आयोग ने कई साल तक रोजगार के तुलनात्मक आंकड़े पेश किए थे और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) वित्त वर्ष 2000 से ऐसी सूचनाएं उपलब्ध करा रहा है. इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के 3 दिसंबर, 1966 के अंक में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए 1950-51, 1955-56 और 1959-60 का आकलन पेश किया गया है. इन डेटा स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए 1950-51 के बाद रोजगार के मामले में प्रमुख सेक्टर की हालत इस प्रकार है.
जैसा कि ऊपर के ग्राफ से पता चलता है साल 1950-51 से अब तक कृषि और संबंधित गतिविधियां ही सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करती रही हैं. हालांकि, यह आंकड़ा साल 1950-51 के 72.4 फीसदी से घटकर 2018-19 में 43.9 फीसदी रह गया है.
सर्विस सेक्टर लगातार दूसरे पायदान पर बना हुआ है और साल 2018-19 में यह आगे बढ़ता दिखा. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में साल 1950-51 में 8.8 फीसदी नौकरियां मिलीं और 2018 में इसका हिस्सा बढ़कर 11.6 फीसदी तक पहुंच गया.
ऑटोमेशन के साथ मैन्युफैक्चरिंग लगातार ज्यादा पूंजी जरूरत वाला सेक्टर बनता जा रहा है, जिसकी वजह से नौकरियां खतरे में पड़ रही हैं, ऐसे में भविष्य में रोजगार देने के मामले में इस सेक्टर की क्षमता को संदेह की नजर से ही देखा जा सकता है.
सर्विस सेक्टर की बढ़त रफ्तार बनी हुई है
जीडीपी बढ़त के हिसाब से कोई महत्वपूर्ण ट्रेंड तो नहीं दिखता, लेकिन अन्य दोनों सेक्टर के मुकाबले सर्विस सेक्टर अपनी बढ़त की गति साल 1951-52 से ही अब तक बनाए हुए है, जबकि पिछली कुछ तिमाहियों से अर्थव्यवस्था सुस्ती के चपेट में है.
नई सीरीज में गणना को बदल दिया गया और ग्रॉस वैल्यू एडिशन (GVA) को शामिल किया गया है. गौरतलब है कि जीवीए में टैक्स को जोड़ने और उससे सब्सिएडी घटाने पर जीडीपी हासिल होता है.
कृषि जैसे मूल से करनी होगी शुरुआत
इकोनॉमिक सर्वे 2014-15 में दो चीजें करने को महत्वपूर्ण माना गया है- ए. कृषि से मैन्युफैक्चरिंग की तरफ बड़े पैमाने पर बढ़ने का लुइसियन शिफ्ट- जैसा कि विकसित देशों और कई एशियाई दिग्गजों ने कर दिखाया है- बी. इसके बाद सर्विस सेक्टर की तरफ शिफ्ट जैसा कि भारत और कई अफ्रीकी देशों ने करके ऊंची वृद्धि दर हासिल की है.
एशियाई विकास बैंक (ADB) द्वारा की गई एक स्टडी ‘एग्रीकल्चर ऐंड स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉर्मेशन इन डेवलपिंग एशिया: रीव्यू ऐंड आउटलुक' में एशियाई दिग्गजों की सफलता पर कुछ और रोशनी पड़ती है. इसमें कहा गया है कि इन देशों की तेज बढ़त कृषि के दम पर थी, जिसकी वजह से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी तेजी से विस्तार हुआ है.
इसमें कहा गया है: ‘पूर्वी एशिया के नई औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं (जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और ताइपेई) ने कृषि विकास के दम पर होने वाली औद्योगीकरण का रास्ता चुना है. तेजी से बढ़ती संक्रमण के दौर वाली अर्थव्यवस्थाएं (जैसे चीन, वियतनाम) भी इसी तरह के रास्ते पर चलती दिख रही हैं.
बाकी विकासशील एशियाई देशों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया और थाइलैंड में भी कृषि में वृद्धि एक प्रमुख विशेषता रही है. हालांकि, बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान और फिलीपींस जैसे देशों में कृषि विकास पिछड़ गया है. इन देशों में तेजी से होने वाला सतत विकास काफी देर से आया है या अभी तक नहीं हो पाया है.’
इसके बिल्कुल विपरीत, भारत और कई अफ्रीकी अर्थव्यवस्थाओं (जैसे तंजानिया, इथियोपिया) में ग्रोथ मुख्यत: सर्विस सेक्टर की वजह से हो रहा है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में बढ़त नहीं हो पा रही. अफ्रीकी अनुभवों पर आधारित एक स्टडी के मुताबिक इसकी वजह यह है कि टेक्नोलॉजी की तरक्की और ग्लोबलाइजेशन की वजह से दुनिया भर में सेवाओं के उत्पादन और व्यापार में विस्तार हुआ है. तुलनात्मक फायदों के आधार पर अब यह संभव है कि कम आय वाले देश तेजी से आगे बढ़ सकें, जैसा कि मैन्युफैक्चरिंग के मामले में देखा गया है. इसके अलावा ये दोनों एक साझे शुरुआत की ओर ले जाते हैं: वह है कृषि. इसकी वजह यह है कि कम आय वाले देशों में करीब आधी गरीब जनसंख्या की आमदनी का मुख्य स्रोत खेती ही है.