
कट 1: राजधानी दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक का रेला, लगातार आता हॉर्न का शोर, चारों ओर घनघोर धुआं और बीच में मैं...जो काला मास्क पहने हुए राजा-रंक की सवारी पर बैठ एक मास्कमैन का इंटरव्यू ले रही थी.
कट 2: कुछ महीने बाद वही काला मास्क... वही सड़क...झूमते हुए पेड़...खुला आसमान, उसमें टिमटिमाते तारे और ज़मीन पर मैं. दिनभर की लाइव कवरेज खत्म हुई तो सबकुछ भूलकर राजधानी के राजपथ पर अपने खाने का डिब्बा खोले हुए.
ये दो तस्वीरें हैं राजधानी दिल्ली की, जो कल्पना से परे हैं. दिल्ली का राजपथ इलाका है जहां गाड़ियां सरपट दौड़ा करती हैं, रात में लोगों की भीड़ खत्म होने का नाम नहीं लेती है, एक रात वही सड़क हमारे लिए खाने की मेज बन गई, लेकिन कैसे?
कोरोना वायरस की महामारी के बीच जारी इस दौर ने मुझे सदियों का सबक सिखा दिया. हर छोटी चीज़ की अहमियत पता चल चुकी है, आंख में लगने वाले काजल की कीमत, पुराने जूतों की काबिलियत और सबसे खास दूसरे की रक्षा के लिए खुद की परवाह करने का पाठ.
मौजूदा दौर की पत्रकारिता के बीच महामारी के इस संकट का आना, अच्छे-अच्छों के होश उड़ा गया.
आज एक गरीब की बेकारी कहानी लगने लगी है, बेरोजगार की भुखमरी सुर्खियां बटोर रही हैं, मजदूर की मजदूरी, बुढ़ापे की लाठी, फटे हुए पांव, खाली पेट और रेंगता हुआ बचपन... जिंदगी के एक अलग एहसास की तस्वीरें आज लोगों की आंखों के सामने हैं और वायरल हैं.
कोरोना के संकट ने आज एक मीडिया के बड़े धड़े को ही आइना दिखा दिया है. आज एक पत्रकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपने होने या ना होने का एहसास कर सके और अपने वजूद की गंभीरता को परख सके.
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लॉकडाउन के दौरान ऐसी कई तस्वीरें देश के अलग-अलग हिस्सों से सामने आईं, जिन्होंने भेदभाव की लकीरों को कुरेदकर समाज में छिपी बदसूरती को और भी क्रूर कर दिया.
दिल्ली की लोधी रोड... यहां से जब गुजरे तो वहां बैठी एक अम्मा पर नज़र गई. बिखरे हुए बाल..गुमसुम और शून्य में टकटकी लगाए बेसुध बैठी अम्मा. लुटियन्स ज़ोन की सड़कों पर जब लाल बत्ती होती है, तो वहां करतब दिखाने वाले मासूम की शरारत भी आज भूख की वजह से झुंझलाई हुई है.
सुनाने को ऐसी कहानियां और भी हैं, लेकिन आज सुनना कौन चाहता है? लेकिन हम लिख रहे हैं और देश का अवाम अब पढ़ भी रहा है. आज एक बार फिर अचानक ‘जनहित में जारी’ का महत्व और मायने दोनों बदल गए हैं, साथ ही हमारी रिपोर्टिंग करने के मायने भी बदल गए.
कहानी कहने का तरीका बदल गया है. जल्दी है...छाप दो...अब ये नहीं चल रहा है. क्योंकि दांव पर अपने साथ आज अपनों का स्वास्थ्य भी है. अब अक्सर कैमरामैन को डांटना होता है या खुद भी डांट खानी पड़ती है, ‘मास्क मत उतारो...सैनिटाइज़ करो’, बस दिनभर यही राग चलता रहता है. मास्क, ग्लव्स, चश्मा, सैनिटाइज़र अब हमारे नए हथियार बन गए हैं.
हर वक्त, हर पल, ओखला की उस बस्ती में.. अस्पताल के कोने में...मरघट के गलियारे में हम एक जंग लड़ रहे हैं. रिपोर्टिंग की गति धीमी है पर हर कदम के साथ वायरस के डर को समाज को दूर ले जाने की कोशिश है.
कोरोना कमांडोज़ का हौसला बढ़ाएं और उन्हें शुक्रिया कहें...
अब बात अगर पेट पूजा की हो, तो घर के खाने का ही स्वाद सबसे अच्छा लगता है क्योंकि जितनी तरह की वैराइटी हैं उनके पर कतर दिए जाते हैं. अब मां के हाथ की मठरी अपने साथ पोटली में लेकर चलती हूं. क्योंकि ये याद दिलाता है कि घर में कोई है जो तुम्हारा इंतजार कर रहा है और उसकी डोर तुम्हारे जीवन से बंधी है.
फिर दिल्ली शहर भी तो अनजाना-सा लगता है, बिना लोगों के बेगाना-सा लगता है.
अब बस यही उम्मीद है कि जल्द ही नया सवेरा होगा और इंसान अपनी नींद से जागेगा. फिर अपने जीवन के साथ-साथ जल-जंगल और ज़मीन का मोल भी समझेगा. ऐसे मौके पर इफ़्फ़त ज़र्रीं का वो शेर याद आता है...
देख कर इंसान की बेचारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए