
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने हाथरस की 19 वर्षीय दलित पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं किए जाने के सरकारी दावे पर सवाल उठाते हुए कहा कि जल्दबाजी में दाह संस्कार किया जाना पीड़िता और उसके परिवार के मानवाधिकारों का उल्लंघन है. हाई कोर्ट बेंच ने इस मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई है.
हाथरस कांड पर सोमवार को जस्टिस पंकज मिठल और राजन रॉय की खंडपीठ ने सुनवाई की थी. जिसका आदेश अब उपलब्ध कराया गया है. हाई कोर्ट ने एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर) प्रशांत कुमार और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) अवनीश कुमार अवस्थी सहित शीर्ष अधिकारियों से नाराजगी जताई थी.
अदालत ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद शासन और प्रशासन का सिद्धांत जनता की सेवा और रक्षा होना चाहिए ना कि उन पर शासन और नियत्रंण करना, जैसा कि स्वतंत्रता से पहले था. सरकार को ऐसे हालात से निपटने के लिए जिले के अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए सही प्रक्रियाओं के साथ आना चाहिए.
पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं होने के पुलिसिया दावे पर अदालत ने कहा कि हमने एडीजी (कानून और व्यवस्था) प्रशांत कुमार से पूछा कि क्या यह किसी के लिए उचित नहीं था कि वह सीधे जांच से जुड़े किसी भी सबूत को लेकर टिप्पणी न करे. खास कर जब आरोप बलात्कार का है. क्या उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना चाहिए कि अपराध किया गया था या नहीं, जबकि अभी जांच भी लंबित थी. और ऐसा व्यक्ति ये कहे जो जांच का हिस्सा नहीं था. वो भी सहमत होंगे कि यह नहीं होना चाहिए था.
अदालत ने आदेश में कहा कि हमने उनसे (एडीजी कानून व्यवस्था प्रशांत कुमार) यह भी पूछा था कि क्या उन्हें बलात्कार की परिभाषा से संबंधित कानून में 2013 में किए गए संशोधनों के बारे में पता था. फोरेंसिक जांच के दौरान वीर्य की अनुपस्थिति हालांकि विचार के लिए एक कारण हो सकता है. लेकिन यह खुद में तय करने के लिए काफी नहीं कि बलात्कार किया गया था या नहीं. अगर अन्य स्वीकार्य सबूत भी मौजूद हैं. और उन्होंने जवाब में कहा कि वे (एडीजी) इसके बारे में जानते थे.