
हाथरस में पुलिस ने जबरन जो लड़की की लाश को जलाया, वो कानून और इंसाफ का अंतिम संस्कार था. उसी चिता की राख भले ही ठंडी हो चुकी है. लेकिन पूरे देश में लोगों का मिजाज इस घटना और यूपी सरकार की करतूत से गर्म है. देश की जनता का गुस्सा और उस गुस्से की तपिश बिल्कुल उस चिता जैसी है. क्या हम अपने गुस्से को ज़िंदा रखने के लिए मोहताज हैं इन कैमरों और माइक के?
ये सवाल इसलिए कि हमारा गुस्सा तभी तक सुलगा रहता है, जब तक न्यूज़ टीवी के कैमरा फ्रेम में हमें जलती हुई चिता नज़र आती है. माइक पर किसी निर्भया की चीख और रुदाली हमारे कानों में पड़ती है. जैसे ही कैमरे का फ्रेम बदलता है, हम भी बदल जाते हैं. माइक जैसे ही दूसरी धुन सुनाता है, हमारे कान निर्भया की चीखों और रुदाली से आज़ाद हो जाते हैं.
समाज के ठेकेदार और सरकार दोनों इस सच से बखूबी वाकिफ़ हैं. वो जानते हैं कि ये एक बुलबुला भर है. दो चार दिन का शोर है. इससे ज़्यादा कौन सा कैमरा, कैसी माइक, कब तक हाथरस में रहेंगे. दो चार दिन बाद फ्रेम में कुछ नई तस्वीरें आ जाएंगी, माइक पर कुछ नई धुन और बस इसीलिए ठेकेदार और सरकार बस इन दो चार दिनों के बीत जाने का इंतज़ार करते हैं. फिर सब भूल जाते हैं जैसे हम और आप. जैसे ठंडी पड़ चुकी हाथरस की निर्भया की चिता की राख. यही सच है, यही होता आया है और यही होता रहेगा.
हमारा समाज दोहरी मानसिकता का शिकार है. हाथरस पर ये हादसा एक तमाचा है हमारी उन्हीं मानसिकताओं पर. शर्म आनी चाहिए हमें जिस देश में औरतों को देवी मानते हैं, उनकी पूजा की जाती है, उसी देश में मासूम लड़कियों और औरतों की आबरू को इस तरह नोचा खसोटा और कुचला जाता है. बलात्कार के आंकड़ों को देखे तो हैरत होती है. गुस्सा आता है. मगर बलात्कार सिर्फ़ एक आंकड़ा भर नहीं है. ये कत्लेआम है समाज का, कानून का, इंसाफ़ का और सबसे बढ़ कर उस एक पूरे परिवार का.
हाथरस की उस निर्भया का जिस्म तो कब का ठंडा हो चुका था, लेकिन रात के अंधेरे में ढाई बजे जिस तरह उसकी चिता सजाई गई वो पूरी इंसानियत का खून है. हाथरस की इस निर्भया के पास बचा ही क्या था? जिस्म छलनी था, रूह घायल. मरने की कोई उम्र भी नहीं थी. पर सितम देखिए मौत के बाद भी इज्जत भरी चिता नसीब तक ना हो सकी. इस बच्ची की इज्जत बचाने में हमारी पुलिस, हमारी सरकार पहले ही नाकाम थी. उन्हें अपनी नाकामी का भरपूर अहसास भी था. सोचा उस मासूम की इज्जत गई तो गई, उसकी गई इज्जत हमारी इज्जत ना ले डूबे.
इसलिए उसकी बची खुची इज्जत को रात के अंधेरे में चिता में लिटा दें. ताकि खुद इनकी रुसवा हो चुकी इज्जत का कुछ मान रह जाए. अरे कानून छोड़िए, क्राइम छोड़िए, झूठी इज्जत और शान छोड़िए, मजबूरी छोड़िए, बेबसी छोड़िए, पर इतना तो बता दीजिए कि इज्जत और सुकून से भले ही ना जी सकें. क्या इज्जत और सुकून की मौत भी नसीब ना होगी?
हर धर्म में अगर जीने के क़ानून हैं तो मरने के नियम भी हैं. रात के अंधेरे में हाथरस की किसी निर्भया के परिवार की इससे पहले कभी कोई चिता नहीं जली. मगर इसकी चिता रात को सजी. मां-बाप चीखते रहे, मिन्नतें करते रहे. चंद घंटे की मोहलत ही तो और मांगी थी. कहा था सूरज उग जाए, बेटी को विदा कर दूंगा. पर पंद्रह दिनों से ये तक पता ना लगा सकने वाली हाथरस पुलिस कि उसके साथ रेप हुआ या नहीं, उसके घरवालों को पांच घंटे देने को भी राज़ी नहीं थी.
चलिए ये चिता तो जल गई, ठंडी भी हो गई. अब आगे क्या? तो इंतज़ार कीजिए फिर किसी ऐसे ही हादसे का. जहां कैमरे पर आपको चिता दिखाई दे और माइक पर किसी सुनाई दे किसी निर्भया की रुदाली. तब तक आप यूं ही ठंडी हो चुकी इस चिता की राख की तरह बने रहिए. यही तो करते आए हैं. आगे भी यही करेंगे.
वैसे ये हाथरस की सिर्फ़ एक चिता है, वरना तो नामालूम ऐसी कितनी चिताएं हैं, जहां तक ना कभी कैमरा पहुंचा और ना कोई माइक. किस दौर में जी रहे हैं आप लोग साहब. क्या आपको पता भी है कि हमारे देश में हर रोज़ करीब 90 निर्भया को नोचा-खसोटा जाता है. इनमें से ना जाने कितनी निर्भया इसी तरह खामोशी से रात के अंधेरे में चिता पर लिटा दी जाती है. कभी आपने सुना है किसी निर्भया के लिए कहीं कोई सरकार गिरी, ये सब एक शोर है. एक बुलबुला है. अभी चिता गरम है तो हमारा खून भी गरम है. राख ठंडी होने दीजिए हम सब भी ठंडे हो जाएंगे. यही होता रहा है, यही होता रहेगा.