
मेरठ मर्डर कांड में रिश्तों के कत्ल ने पूरे देश को हिला दिया है. पत्नी मुस्कान रस्तोगी ने प्रेमी साहिल शुक्ला के साथ मिलकर पति की निर्मम हत्या करके शव के टुकड़े करके टुकड़ों को सीमेंट से जमा दिया. अब जब दोनों पुलिस के शिकंजे में हैं तो आरोपी इसे हत्या नहीं 'वध' कहकर अपने अपराध को जस्टीफाई करने में लगे हैं.
ऐसा पहली बार नहीं है जब अपराधी अपराध का मकसद नैतिक या धार्मिक बताकर खुद को सही ठहराने की कोशिश कर रहा हो. यह मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति काफी पुरानी है. इतिहास में कई ऐसे अपराधी हुए हैं जिन्होंने खुद को किसी न किसी रूप में न्याय का प्रतीक मानकर क्राइम को जस्टीफाई करने की कोशिश की. पुलिस ने बताया कि सौरभ के हत्यारोपी साहिल शुक्ला और मुस्कान साथ में नशा करते थे. यही नहीं साहिल तंत्र मंत्र पर विश्वास करता था, उसने बयान में बताया है कि वो अपनी मृत मां के साथ संपर्क में रहता है और वो ही उसे आदेशित करती हैं. लेकिन क्रिमिनल साइकोलॉजी इसे बहुत अच्छे से परिभाषित करता है.
क्या होती है ऐसे अपराधियों की मानसिकता
दिल्ली की क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट डॉ. अनुजा कपूर इस पर कहती हैं कि कई मामलों में आरोपी खुद को 'मसीहा' समझने लगते हैं. वो ऐसा दिखाते हैं कि वो समाज को सुधारने या किसी बड़े उद्देश्य के लिए अपराध कर रहे हैं. यह मनोवैज्ञानिक सोच बेहद खतरनाक होती है क्योंकि इससे व्यक्ति को अपराध करने में कोई मोरल गिल्ट महसूस नहीं होता.
डॉ. अनुजा कपूर ने इस विषय पर गहराई से चर्चा करते हुए बताया कि तंत्र और मंत्र दो अलग-अलग विधाएं हैं, लेकिन कई बार लोग तंत्र-मंत्र के नाम पर अपराध की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं. उनका कहना है कि तंत्र एक उच्च स्तर की साधना होती है, लेकिन यह किसी का वध करने की अनुमति नहीं देता. अपराधी कई बार इस विचारधारा को कल्ट (cult) मानसिकता से जोड़ लेते हैं और क्राइम करके खुद को न्याय का वाहक बताते हैं.
वे आगे बताती हैं कि जब एक व्यक्ति साइकोपैथिक प्रवृत्ति में आ जाता है और उसमें 'डेमोनिक बिहेवियर' (demonic behavior) विकसित हो जाता है, तो वह अपराध को किसी धार्मिक या तांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा मानकर करता है. यह मानसिक अवस्था साइकोसिस और पैरानॉयड पर्सनैलिटी से जुड़ी होती है. कई अपराधी अपने निजी अनुभवों को आधार बनाकर हत्या को उचित ठहराते हैं, जैसे कि किसी बचपन के ट्रॉमा को जस्टिफाई करने के लिए किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर देना.
मॉरल डिसएंगेजमेंट का भी होता है रोल
मॉरल डिसएंगेजमेंट एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने हर गलत कामों को नैतिक या धार्मिक रूप से उचित ठहराने लगता है, ताकि क्राइम करने के बावजूद उसे कोई आत्मग्लानि महसूस न हो. साइको एनालिस्ट डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी बताते हैं कि जब कोई अपराधी खुद को न्याय के प्रतीक के रूप में देखने लगता है, तो वह अपने अपराध को सही ठहराने के लिए इसे किसी उच्च उद्देश्य से जोड़ देता है. यह व्यवहार सीरियल किलर्स से लेकर धार्मिक अतिवादियों तक में देखा जाता है.
क्या तंत्र-मंत्र और ओझाओं में विश्वास क्राइम को बढ़ावा देता है?
तंत्र-मंत्र और ओझाओं के चक्कर में पड़ने वाले लोग अक्सर अपराध करने की ओर ज्यादा प्रवृत्त हो सकते हैं. खासकर जब वे अंधविश्वास को अपनी मॉरल और सोशल जिम्मेदारियों से ऊपर रखने लगते हैं. क्रिमिनल साइकोलॉजी के अनुसार, ऐसे लोग cognitive distortion यानी विकृत सोच का शिकार होते हैं, जहां वे अपनी इच्छाओं और भय को तर्कहीन मान्यताओं से आसानी से जोड़ लेते हैं.
साइकेट्रिस्ट डॉ. अनिल सिंह शेखावत इस पर कहते हैं कि जो लोग मानसिक रूप से इनसिक्योर होते हैं, वे तंत्र-मंत्र जैसी चीजों में समाधान खोजने लगते हैं. यह स्थिति तब और खतरनाक हो जाती है जब कोई ओझा या कथित तांत्रिक उन्हें यह विश्वास दिला दे कि किसी की बलि देना, किसी को नुकसान पहुंचाना या किसी विशेष कर्मकांड से उनकी समस्याएं दूर हो सकती हैं. यह moral disengagement (नैतिक विच्छेदन) की प्रक्रिया है, जहां व्यक्ति अपने अपराध को सही ठहराने लगता है.
इतिहास में भी दर्ज हैं ऐसे अपराध जिसमें क्रिमिनल...
निठारी कांड (2006): सुरिंदर कोहली ने बच्चों की हत्या कर उन्हें खा लिया. उसने तंत्र-मंत्र और आत्माओं की शांति का हवाला देकर अपने अपराध को उचित ठहराने की कोशिश की.
स्टोनमैन मर्डर केस (1980, कोलकाता और मुंबई): इस अनसुलझे मामले में हत्यारा फुटपाथ पर सो रहे लोगों की हत्या कर देता था. कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि वह खुद को समाज का सुधारक समझकर अपनी नजर में 'अनुपयोगी' लोगों को खत्म कर रहा था.
इंदौर का काली माता के भक्त केस (2017): एक व्यक्ति ने अपनी मां और बहन की हत्या कर दी, यह कहते हुए कि काली माता ने उसे यह करने के लिए कहा था. कोर्ट में भी उसने इसे धार्मिक आदेश बताया.
रांची का भगवान का दूत केस (2019): एक व्यक्ति ने अपने परिवार के 5 लोगों की हत्या कर दी और दावा किया कि वह भगवान के आदेश पर ऐसा कर रहा था.
जम्मू का पिशाच पूजा केस (2021): एक युवक ने अपने तीन रिश्तेदारों की हत्या कर दी और पुलिस को बताया कि वह पिशाच साधना कर रहा था.
मध्यप्रदेश का बलि प्रथा केस (2022): एक व्यक्ति ने अपने बच्चे की हत्या कर दी, यह सोचकर कि यह देवी को प्रसन्न करेगा और उसकी आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी.
कोर्ट और मीडिया को भी समझना होगा
डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी के अनुसार ऐसे मामलों को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करने से मीडिया ट्रायल होता है, जिससे आरोपी का मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत पृष्ठभूमि उपेक्षित रह जाती है. न्यायपालिका को ऐसे मामलों में मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन की भूमिका को अधिक गंभीरता से लेना होगा. सर गंगाराम अस्पताल दिल्ली के सीनियर साइकेट्रिस्ट डॉ. राजीव मेहता इस पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि ऐसे अपराधों में मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन अनिवार्य किया जाना चाहिए, ताकि यह समझा जा सके कि अपराधी के दिमाग में क्या चल रहा था.
क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट डॉ. अनुजा कपूर आगे जोड़ती हैं कि जब अपराधी खुद को न्याय के प्रतीक के रूप में देखने लगता है, तो उसकी मानसिक स्थिति को समझना बेहद जरूरी हो जाता है. कई बार यह धार्मिक उन्माद, मानसिक अस्थिरता या बचपन के आघात से जुड़ा हो सकता है. न्यायपालिका को ऐसे अपराधों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं की भी जांच करनी चाहिए.