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शराब की खातिर किया था रिश्तेदार पर जानलेवा हमला, कोर्ट ने सुनाई महज 9 महीने कैद की सजा, ये है वजह

दरअसल, साल 2017 में हत्या की कोशिश का एक मामला सामने आया था. जिसमें अब अदालत ने एक व्यक्ति को मात्र नौ महीने की कैद की सजा सुनाई है, हालांकि, दोषी को रिहा कर दिया जाएगा, क्योंकि वह पहले ही नौ महीने से ज़्यादा समय तक जेल में रह चुका है.

दोषी पहले ही 9 माह से ज्यादा की सजा काट चुका है दोषी पहले ही 9 माह से ज्यादा की सजा काट चुका है
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 26 नवंबर 2024,
  • अपडेटेड 9:43 PM IST

दिल्ली की एक अदालत ने 'हत्या की कोशिश' के एक पुराने मामले में फैसला सुनाते हुए दोषी को महज 9 महीने की कैद सजा सुनाई है. जिसने शराब खरीदने के लिए पैसे न दिए जाने पर अपने चचेरे भाई पर हमला किया था. तब उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 307 के तहत मामला दर्ज किया गया था. यह मामला सात साल पुराना है.

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दरअसल, साल 2017 में हत्या की कोशिश का एक मामला सामने आया था. जिसमें अब अदालत ने एक व्यक्ति को मात्र नौ महीने की कैद की सजा सुनाई है, हालांकि, दोषी को रिहा कर दिया जाएगा, क्योंकि वह पहले ही नौ महीने से ज़्यादा समय तक जेल में रह चुका है.

वर्तमान मामले में लागू तत्कालीन भारतीय दंड संहिता के तहत, हत्या के प्रयास के अपराध के लिए 10 साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है. अगर किसी व्यक्ति को अपराध से चोट पहुंचती है, तो कारावास को बढ़ाकर आजीवन कारावास किया जा सकता है.

पीड़ित द्वारा दोषी चचेरे भाई को माफ करने और अपने मतभेदों को सुलझाने के बाद दोनों के "सौहार्दपूर्ण तरीके से रहने" के बारे में दिए गए तर्कों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने सजा की मात्रा तय करते समय नरम रुख अपनाया.

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अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विशाल पाहुजा आईपीसी की धारा 307 (हत्या का प्रयास) के तहत दोषी ठहराए गए नवीन कुमार के खिलाफ सजा पर बहस सुन रहे थे. अभियोजन पक्ष के अनुसार, नशे में धुत कुमार ने अपने चचेरे भाई मुकेश पर सर्जिकल ब्लेड से हमला किया, यह दावा करते हुए कि कुछ दिन पहले पीड़ित ने उसे शराब खरीदने के लिए पैसे देने से मना कर दिया था.

यह घटना 17 नवंबर, 2017 को हुई थी. इस हमले में महेश को गंभीर चोटें आई थीं. अब 25 नवंबर को पारित आदेश में, अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता (महेश) जो आज अदालत में मौजूद है, ने प्रस्तुत किया है कि दोषी उसका चचेरा भाई है, इसलिए, उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं है. इसलिए वह दोषी से कोई मौद्रिक मुआवजा नहीं चाहता है और सजा के मामले में दोषी के खिलाफ नरम रुख की भी प्रार्थना करता है. 

अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि पीड़ित ने दोषी को उसके कृत्यों के लिए माफ कर दिया है और सभी विवादों को सुलझा लिया है और पिछले कई वर्षों से सद्भाव से रह रहा है. अदालत ने कहा कि नवीन कुमार का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था और उसकी अच्छी सामाजिक पृष्ठभूमि थी. दोषी का मानसिक बीमारी से संबंधित मेडिकल रिकॉर्ड भी है, जिसके लिए वह पिछले 20 वर्षों से उपचाराधीन है.

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अदालत ने नवीन कुमार को नौ महीने के कठोर कारावास और 20,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई, जिसमें कहा गया कि इसमें गंभीर और कम करने वाले कारकों को संतुलित किया गया है. हालांकि, कुमार को सीआरपीसी की धारा 428 से छूट मिली, जो किसी आरोपी द्वारा हिरासत में बिताई गई अवधि को उसकी सजा के विरुद्ध सेट करने की अनुमति देती है.

अदालत ने कहा कि चूंकि दोषी रिकॉर्ड के अनुसार नौ महीने 17 दिनों तक न्यायिक हिरासत में रहा है, इसलिए उसे सीआरपीसी की धारा 428 का लाभ दिया जाना चाहिए और हिरासत में पहले से बिताई गई अवधि को सजा की अवधि में समायोजित किया जाना चाहिए. महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालत ने नवीन कुमार के वकील द्वारा पागलपन की दलील को खारिज करने के बाद उसे दोषी ठहराया.

इसने कहा कि अपराध करने के समय कुमार किसी मानसिक विकार से पीड़ित नहीं था और वह अपने हिंसक कृत्य के बारे में अच्छी तरह से जानता था. अदालत ने कहा कि अगर अभियुक्त के शब्द और कार्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि वह अपराध के दौरान अपने कृत्य की प्रकृति को समझने में सक्षम है, तो वह पागलपन की दलील का लाभ नहीं उठा सकता.

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विशेषज्ञ की राय
अपराध के आलोक में अदालत द्वारा असामान्य सजा सुनाए जाने की प्रकृति को देखते हुए, पीटीआई ने कानूनी विशेषज्ञों की राय मांगी. वरिष्ठ आपराधिक वकील विकास पाहवा ने कहा कि भारत में न्यायपालिका न्याय के सिद्धांतों को व्यक्तिगत मामलों की बारीकियों के साथ संतुलित करने का प्रयास करती है.

पाहवा ने कहा, 'सजा में नरमी कई कारकों से प्रभावित हो सकती है, जिसमें पीड़ित द्वारा नरमी बरतने का स्पष्ट अनुरोध, पक्षों के बीच अदालत के बाहर समझौता और दोषी का साफ-सुथरा इतिहास शामिल है.' उन्होंने कहा कि ऐसे मामले सामान्य नहीं होते हुए भी पूरी तरह दुर्लभ नहीं हैं और अदालतें अक्सर पीड़ित की इच्छाओं पर विचार करती हैं, खासकर उन मामलों में जहां विवाद पारिवारिक होता है या जहां सुलह हो चुकी होती है. 

उन्होंने कहा, 'यह दृष्टिकोण न्याय के मानवीय पक्ष को दर्शाता है, जिसमें माना जाता है कि सजा का उद्देश्य केवल प्रतिशोध ही नहीं है, बल्कि सुधार और पुनर्वास भी है. हमारे पास ऐसे उदाहरण हैं जहां आईपीसी की धारा 307 के तहत एफआईआर और आरोपपत्र भी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आते हुए रद्द कर दिए गए हैं, जबकि पक्षों ने अपने विवाद सुलझा लिए हैं और आपसी मतभेद भुला दिए हैं.' 

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पाहवा ने कहा कि हालांकि आईपीसी की धारा 307 में अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है, लेकिन यह कृत्य की गंभीरता और उसके इरादे पर निर्भर करता है, लेकिन इसकी अवधि हमेशा केस-टू-केस आधार पर निर्धारित की जाती है, जिसमें गंभीर और कम करने वाली दोनों परिस्थितियों पर विचार किया जाता है. 

दूसरी ओर, अधिवक्ता ध्रुव गुप्ता ने कहा कि अदालत ने मामले की विचित्र परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नरम रुख अपनाया. उन्होंने कहा कि आम तौर पर, तेज धार वाले हथियार से वार करने और पीड़ित को चोट लगने के मामलों में पांच से सात साल के कारावास की सजा दी जा सकती है. उन्होंने कहा कि अपराध की गंभीरता के आधार पर, हत्या के प्रयास के मामलों में भी आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है.
 

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