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प्रयागराज का लेटे हनुमानजी मंदिर, जिसके आसपास किला बनवाना चाहता था अकबर लेकिन...

प्रयागराज का मशहूर लेटे हनुमानजी मंदिर एक बार फिर सुर्खियों में है. इस मंदिर का अपना एक लंबा इतिहास है. बादशाह अकबर कभी इस मंदिर को अपने किले में लेना चाहता था, लेकिन वो कामयाब नहीं हो सका था. इस पूरी कहानी को जानिए...

प्रयागराज का लेटे हनुमान जी मंदिर प्रयागराज का लेटे हनुमान जी मंदिर
संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 22 सितंबर 2021,
  • अपडेटेड 10:56 AM IST
  • लेटे हनुमानजी मंदिर और बादशाह अकबर का कनेक्शन
  • किले को लेकर बदलना पड़ा था अपना प्लान

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि के निधन ने हर किसी को हैरान किया है. इस घटनाक्रम के बीच बार-बार जिस जगह का ज़िक्र हो रहा है, उनमें बाघंबरी मठ के साथ-साथ प्रयागराज के मशहूर लेटे हनुमानजी का मंदिर भी है. इस मंदिर के पीछे एक पुराना किस्सा है, जो बादशाह अकबर से जुड़ा है.

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दरअसल, बात 1582 की है. तब प्रयागराज में बादशाह अकबर किला बनाना चाहता था. बंगाल, अवध, मगध सहित पूर्वी भारत में अक्सर होने वाले विद्रोह पर सशक्त दबिश रखने की गरज से प्रयाग सबसे सटीक जगह थी, जहां किला बनाकर सेना की पलटन रखी जा सकती थी. किला चूंकि संगम तट पर था, लिहाजा अकसर गंगा-यमुना के मनमाने कटाव की वजह से संगम की जगह बदलती रहती थी.

लिहाज़ा नक्शे के मुताबिक निर्माण नहीं हो पा रहा था. इतिहास बताता है कि फिर अकबर ने संगम पर यमुना किनारे की ऊंची भूमि और लेटे हनुमानजी के स्थान को भी किले के घेरे में लेने की योजना बनाई, तब संन्यासियों ने इसका विरोध किया. तब बादशाह ने प्रस्ताव दिया कि लेटे हनुमानजी को गंगाजी के पास शिफ्ट कर दिया जाए. अकबर के विशेषज्ञों ने पूरा जोर लगा लिया, सब तिकड़म भिड़ा ली लेकिन लेटे हनुमानजी टस से मस नहीं हुए. जब सब थक हार गए तो अकबर ने भी हनुमानजी के आगे हाथ खड़े कर किले की दीवार पीछे ही बनाई.

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अकबर ने बाद में दी काफी ज़मीन...

इसके बाद हनुमानजी की शक्ति से चमत्कृत अकबर ने कई जगहों पर बीघों जमीन हनुमान जी को समर्पित की. प्रयागराज का नाम जब इलाहाबाद हुआ तो अल्लापुर इलाके में बाघंबरी मठ बना और उसकी जमीन भी तत्कालीन शासन ने ही भेंट की. बाघंबरी मठ को अकबर द्वारा दान में दी गई जमीन, जायदाद, खेत, खलिहान का संचालन एक अर्से तक ठीक रहा. लेकिन उसके बाद बाघंबरी मठ अक्सर विवादों में घिरा रहा. कभी गद्दी पर दावेदारी को लेकर तो कभी जमीन जायदाद बेचने को लेकर तो कभी खूननखराबे और रहस्यमय मौतों को लेकर.

बाघंबरी मठ का इतिहास...

बाघंबरी मठ की स्थापना राजा अकबर के समय में बाबा बालकेसर गिरि महाराज के द्वारा की गई थी. अकबर द्वारा बाघंबरी मठ के साथ प्रयागराज जिले में अन्य स्थानों पर भी जमीन दान दी गई थी. सूत्र बताते हैं कि कुछ समय पूर्व तक अखाड़े में जमीन से संबंधित ताम्रपत्र मौजूद थे. बाघंबरी मठ के पहले महंत बाबा बाल केसर गिरि महाराज थे. उसके बाद से बाघंबरी मठ की परम्परा चली.

बता दें कि बाघंबरी मठ दशनाम संन्यासी परंपरा के गिरि नामा संन्यासियों की गद्दी है. बाबा बाल केसर गिरि महाराज के बाद अनेक संत इस गद्दी पर विराजमान हुए. वर्ष 1978 में महंत विचारानंद गिरि महाराज इस गद्दी के महंत थे, यात्रा के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उन्होंने शरीर त्याग दिया. उनसे पूर्व महंत पुरूषोत्तमानंद इस गद्दी पर थे. महंत विचारानंद की मृत्यु के बाद श्रीमहंत बलदेव गिरि इस बाघंबरी गद्दी के उत्तराधिकारी हुए. 

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महंत नरेंद्र गिरि की एंट्री...

इस परम्परा में वर्ष 2004 में अखाड़े के संतों ने महंत बलदेव गिरि पर गद्दी छोड़ने का दबाव बनाया. बलदेव गिरि फक्कड़ संत थे, सो मठ छोड़ कर चल दिए. इसके बाद आए महंत भगवान गिरि, दो साल के भीतर ही भगवान गिरी को गले में कैंसर का रोग हो गया. उनका भी निधन 2006 में हो गया. महंत भगवान गिरि की मृत्यु के बाद श्रीमहंत नरेंद्र गिरि ने अपना दावा पेश किया और अखाड़े पर दवाब बनाकर 2006 में नरेंद्र गिरि महंत बन गए.

विवाद तब भी हुआ क्योंकि उस समय श्री महंत नरेंद्र पुरी थे, गिरी तो बाद में लगाया. गद्दी पर महंती के दावे के समय नरेंद्र गिरि के गुरु हरगोविंद पुरी के गुरु भाई मुलतानी मढ़ी के बालकिशन पुरी ने नरेंद्र पुरी को गद्दी का महंत बनाए जाने का विरोध किया. उनका कहना था कि बाघम्बरी गद्दी गिरि नामा संन्यासियों की है. ऐसे में पुरी नामा संन्यासी का महंत बनना उचित नहीं है. कहा गया कि इस पर नरेंद्र गिरि ने उनके साथ झगड़ा किया और अपने लोगों के साथ मिलकर अभद्रता की. अपमान होने से क्षुब्ध बालकिशन पुरी अपना बोरिया बिस्तर झोली झंडा उठाकर तत्काल चलते बने और राजस्थान के खिरम में धूनी रमाई.

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कहा तो ये भी जाता है कि हरगोविंद पुरी के शिष्य नरेंद्र पुरी से नरेन्द्र गिरि बन कर बाघंबरी मठ के महंत बन गए. इसके बाद से ही बाघंबरी मठ की हजारों वर्ष पुरानी जमीनों बेचने और अवैध पट्टे पर देने के साथ साथ व्यवसाय की भांति धन की आवाजाही का सिलसिला शुरू हो गया. कई बार अयोग्य लोगों को महामंडलेश्वर बनाने को लेकर भी महंत नरेंद्र गिरी विवादों में रहे. दाती महाराज और सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर बनाए जाने पर संत समाज ही उनके खिलाफ खड़ा हो गया. फिर नरेंद्र गिरि के शिष्य आशीष गिरि के रहस्यमय ढंग से कथित तौर पर आत्महत्या करने को लेकर भी विवाद छिड़ा था.

नरेंद्र गिरि की आत्महत्या पर सवाल...

अब खुद नरेंद्र गिरि की कथित आत्महत्या सवालों के कठघरे में खड़ी है. क्योंकि कहा जा रहा है कि बाघंबरी मठ की अकूत सम्पदा ही श्रीमहंत नरेंद्र गिरि की मौत की वजह बनी. श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि के निधन के बाद हरिद्वार से प्रयाग लाए गए शिष्य आनन्द गिरि को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. लेटे हनुमान जी मंदिर के पुजारी आद्या तिवारी और उसके पुत्र संदीप तिवारी को भी पुलिस गिरफ्तार कर चुकी है.

बता दें कि आद्या तिवारी महंत नरेंद्र गिरि का सबसे बड़ा राजदार था. आद्या तिवारी का नरेंद्र गिरि से मेलजोल तब से था जब वह फक्कड़ थे. बाघंबरी गद्दी पर काबिज होने के बाद आद्या तिवारी की पौ बारह हो गई. नरेंद्र गिरि की हर चाल हरेक राज आद्या तिवारी जानता था. इसी बीच आनन्द गिरि और नरेंद्र गिरि के बीच मतभेद और मनभेद सार्वजनिक झगड़े और पुलिस फौजदारी तक पहुंच गया.

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आद्या तिवारी ने अपने पुत्र संदीप तिवारी को भी बड़े हनुमान जी मंदिर में अपने पास बुला लिया और अघोषित तौर पर उत्तराधिकारी बनाने की जुगत में लग गए. सम्पत्ति की लालसा में आद्या तिवारी ने अपने पुत्र संदीप तिवारी को आनन्द गिरि के साथ रखा. कुछ ही समय में संदीप तिवारी आनन्द गिरि का खासमखास हो गया.

अब नरेंद्र गिरी के राज आद्या तिवारी के पास और आनंद गिरि के राज संदीप तिवारी के पास हो गए. दोनों अपने-अपने राज शेयर करने लगे और अपने अपने बाबा को देते रहे. क्योंकि नरेन्द्र गिरि की प्रत्येक गोपनीय करस्तानी आद्या तिवारी अपने पुत्र संदीप को बताता था और संदीप उस राज को आनन्द गिरि तक पहुंचाने का काम करता था. हालांकि तीनों पुलिस की गिरफ्त में पहुंच चुके हैं, तो बहुत से राज अब उगले जाएंगे. 

 

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