
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज 2 जनवरी को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ओडिशा के IIM संबलपुर के स्थायी कैंपस का शिलान्यास किया. उन्होंने संबलपुर को एजुकेशनल हब बनाने की बात कही और कहा कि पहले से ही मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और सैनिक स्कूल होने के बाद अब यह पूरा इलाका ही छात्रों के लिए एक प्रैक्टिकल लैब बनेगा. इस दौरान उन्होंने ओडिशा के गौरवशाली इतिहास को भी याद किया और स्वाधीनता संग्राम सेनानी वीर सुरेंद्र साई को भी. सुरेंद्र साई 1857 की क्रांति के भी एक प्रमुख नायक रहे हैं. आइये जानते हैं इनका पूरा इतिहास-
सुरेंद्र साई का जन्म 1809 में संबलपुर जिले में उनके पैतृक घर में हुआ था. वे 16वीं शताब्दी में चौहान वंश के संबलपुर के महाराजा मधुकर साई के वंशज थे. साई ने 1857 के विद्रोह से पहले ही विदेशी शासन के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी थी और विद्रोह के थम जाने के बाद भी उन्होंने इसे जारी रखा।
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1808 और 1817 के बीच, संबलपुर पर मराठों का कब्जा था. तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद, अंग्रेजों ने संबलपुर को चौहान राजाओं को सौंप दिया मगर असल कमान अपने हाथ में ही रखी. 1827 में, संबलपुर के शासक महाराज साई बिना किसी वारिस के मर गए. ऐसे में अंग्रेजों ने रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बैठाया और 1833 में, रानी को हटाकर पुराने जमींदार नारायण सिंह को संबलपुर सिंहासन पर बैठा दिया. यह समय संबलपुर के लिए बेहद मुश्किल रहा क्योंकि दोनों ही शासक अकुशल थे. इसके बाद Doctrine of Lapse के चलते संबलपुर पूरी तरह अंग्रेजों का हो गया क्योंकि नारायण सिंह बगैर किसी वारिस के मर गए.
इस सब ने एक विद्रोह की स्थिति पैदा कर दी. ऐसे में सभी ने गुरिल्ला युद्ध और घुड़सवार सैन्य तकनीक में प्रशिक्षित सुरेंद्र साई को अपना नेता मान लिया. उन्हें जमींदारों के साथ-साथ आदिवासी लोगों का भी समर्थन प्राप्त था. साई ने संबलपुर में अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी जिसके चलते उन्हें 1840 से 1857 तक 17 साल कैद में रखा गया.
1857 में, सिपाही विद्रोह के दौरान रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने हजारीबाग जेल को खोल दिया जिससे साई और अन्य लोग मुक्त हो गए. उन्होंने संबलपुर पहुंचकर लगभग 1500 आदमियों की एक लड़ाकू सेना तैयार की. उन्होंने 1857 से 1862 तक अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध जारी रखा. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए हर हथकंडा अपनाया मगर उन्हें रोक नहीं पाए.
आखिरकार, 1864 में एक जासूस ने साई को धोखा दिया और उन्हें पकड़वा दिया. चूंकि, उन्हें संबलपुर में रखना असुरक्षित था, इसलिए उन्हें वर्तमान मध्य प्रदेश के असीरगढ़ किला जेल में रखा गया. वह 20 साल तक जेल में रहे और इस दौरान उनकी आंखों की रोशनी चली गई. वीर सुरेंद्र साई ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ जेल में अपनी अंतिम सांस ली मगर आज भी उनका नाम देशवासी भूले नहीं हैं.