
इन दिनों दिव्यांगता को लेकर एक बहस चल पड़ी है. IAS पूजा खेड़कर के विवाद के बाद सोशल मीडिया पर दिव्यांग कोटे से UPSC या अन्य नौकरियों में सफल अभ्यर्थियों को निशाना बनाया जा रहा है. एक ऐसा माहौल बन रहा है जैसे बहुत से लोग आसानी से दिव्यांगता का सर्टिफिकेट बनवाकर इस कोटे का फायदा उठा रहे हैं. वहीं, लोगों को दिव्यांगता सर्टिफिकेट देने वाले डॉक्टर मानते हैं कि सर्टिफिकेट पाना इतना आसान नहीं है. एडवांस टेक्नोलॉजी के दौर में दिव्यांगता को 'फेयर'तरीके से तय करना आसान हो गया है. एक तरफ Disability Rights Activism से जुड़े डॉक्टर मान रहे हैं कि कुछ स्मार्ट लोग लूप होल्स का फायदा उठाकर दिव्यांगों को मिलने वाली सुविधा का मिस यूज कर रहे हैं, जोकि दुखद है. आइए विशेषज्ञों से इसके दोनों पहलू जानते हैं.
आंखों की कम रोशनी का नाटक नहीं कर सकता कोई
जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज (हैलट अस्पताल)कानपुर के नेत्ररोग विभाग के प्रो परवेज खान कई सालों से दृष्टि बाधा को लेकर प्रमाण पत्र बना रहे हैं. डॉ परवेज कहते हैं कि अगर किसी को ये लगता है कि कोई भी मरीज आकर झूठ बोलेगा कि उसे कम या बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ रहा और उसे सामान्य ढंग से सर्टिफिकेट मिल जाएगा तो ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है.सर्टिफिकेट से पहले मरीज की सभी जरूरी जांचें की जाती है. उसकी नसें सूख गई हैं? रेटिना में कोई दिक्कत है? एक आंख में या दोनों में रोशनी कम या बिलकुल नहीं है? या उसे कोई ऐसी दिक्कत है जो ट्रीट की जा सकती है, ये सब जांचों से पता चल जाता है.
डॉ परवेज कहते हैं कि प्राइमरी लेवल पर टेस्ट में रेटिना में टॉर्च लगाते ही डॉक्टर आंखों की पुतली के रिएक्शन से जान लेते हैं कि रेटिना ठीक है या नहीं, फिर उसके आगे की जांचें की जाती हैं. इसके अलावा Visual Evoked Potential (VEP) टेस्ट भी है.इस टेस्ट से विजुअल कॉर्टेक्स (आपके मस्तिष्क का एक क्षेत्र) विजुअल स्टिमुलेशन के दौरान उत्पन्न होने वाले इलेक्ट्रिक सिग्नल को मापता है. परीक्षण को विज़ुअल इवोक्ड रिस्पॉन्स (वीईआर) भी कहा जाता है. मरीज चाहकर भी इसे बदल नहीं सकता है. इसलिए दृष्टि से संबंधित बेंचमार्क डिसेबिलिटी का सर्टिफिकेट पाना आसान नहीं है.
हियरिंंग चेक करने के लिए हैं आधुनिक जांचें
कुछ ऐसा ही श्रवणबाधा (Hearing Disability) को लेकर भी विशेषज्ञ कई सारी जांचों का हवाला देते है. एसजीटी मेडिकल कॉलेज गुरुग्राम में डिप्टी डीन मेडिकल एंड रिसर्च और ENT डिपार्टमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ आकृति शर्मा कहती हैं कि श्रवण बाधा का सर्टिफिकेट दो लोगों के हस्ताक्षर से मिलता है. इसमें ईएनटी सर्जन और एक ऑडियो मेटरिस्ट दोनों का साइन होता है.मरीज की बेंचमार्क डिसेबिलिटी यानी 40 पर्सेंट तक डिसेबिलिटी परखने का सरकार का प्रॉपर फार्मूला होता है. इसे साधारण तरीके से समझाते हुए डॉ आकृति बताती हैं कि सबसे पहले प्योर टोन ऑडियो मेट्री टेस्ट में कोई एडल्ट थोड़ी देर झूठ बोलकर भ्रमित भी कर सकता है. लेकिन इसे सुनिश्चित करने के लिए और स्पेशलाइज्ड टेस्ट होते हैं. वो इसके लिए दो टेस्ट ASSR (Auditory Steady State Response) और BERA (Brain Evoked Response Auditory) टेस्ट होते हैं. ये दोनों स्पेशलाइज सेंटर में ऑडियोलॉजी और स्पीच डिपार्टमेंट में किया जाता है जो फुल एक्विप्ड होता है.
जांचों पर पेशेंट का कंट्रोल नहीं होता
डॉ आकृति कहती हैं कि ASSR या BERA ऐसे टेस्ट हैं जिसमें पेशेंट का कंट्रोल नहीं होता. इन दोनों टेस्ट में ब्रेन के डिफरेंट हियरिंग सेंटर से हियरिंग पैथ वे से जो रिसपांसेज आते हैं, उससे पता लगाते हैं कि समस्या किस लेवल की है. ये दोनों टेस्ट मशीनों से होते हैं. BERA टेस्ट बहुत छोटे बच्चों का होता है, उन्हें सुलाकर चेक करते हैं. इसमें इयर से ब्रेन का जो पैथ वे है इसे ऑडिट्री पैथ वे बोलते हैं, इस पैथ के अलग अलग सेंटर हैं. बेरा में पांच वेज़ रिकॉर्ड होती हैं, इसमें फर्स्ट से लेकर पांचवें तक सारे वेज के पार्टस ठीक से फंक्शन कर रहे, या कैसा रिसपांस कर रहे हैं, यह देखा जाता है. इन वे का पैटर्न ठीक आ रहा है तो फिर पेशेंट ठीक है. ASSR टेस्ट भी ऐसे होता है. अगर डॉक्टर सही तरह से जांच करके सर्टिफिकेट बनाते हैं तो इसमें डॉक्टर या पेशेंट का कोई रोल नहीं होता, इसमें प्रॉपर फार्मूला होता है, उसी के अनुसार हम एक्जैक्ट पर्सेटेंज निकालकर ही डिसेबिलिटी तय करते हैं. इसमें किसी भी बोर्ड या या अलग सेंटर से पुष्टि कराने से कोई फर्क नहीं पड़ता. मसलन कि यदि हमने सर्टिफिकेट बनाया और इसके बाद दूसरा कोई डॉक्टर देखता है तो वो इसे नकार नहीं सकते.
इसी तरह हकलाने तुतलाने के मामले में भी मरीज धोखा नहीं कर सकते. सबसे पहले तो डॉक्टर ये ही समझ जाते हैं कि अगर कोई एडल्ट पहली बार आया है तो उसका क्या रीजन होगा. उसने इसे पहले से चेक क्यों नहीं कराया,मान लीजिए किसी को जानकारी का अभाव था तो उसका एग्जामिन किया जाता है. जैसे कहीं जीभ नीचे चिपकी तो नहीं है. फिर आगे के टेस्ट से ध्वनि यंत्रों की गति आदि से पता चल जाता है कि मरीज सही बोल रहा है कि नहीं.
सरकार की गाइडलाइंस के बावजूद गड़बड़ झाला!
दिव्यांग जनों के अधिकारों पर लंबे समय से काम कर रहे डॉ प्रो सतेंद्र सिंह जीटीबी हॉस्पिटल दिल्ली के फिजियोलॉजी विभाग में हैं. डॉ सतेंद्र कहते हैं कि लोको मोटिव डिसेबिलिटी में अगर मैं खुद का एग्जांपल दूं तो शुरू से लेकर अभी तक तीन अलग अलग सर्टिफिकेट बने हैं. एक ने अलग पर्सेंट बताया दूसरे ने कुछ और बताया और तीसरे ने अलग. हमारी पहले से मांग रही है कि यूनिफाइड क्राइटेरिया होना चाहिए, ये कोई सब्जेक्टिव चीज नहीं है. भारत सरकार ने अभी असेसमेंट की जो गाइडलाइंस बनाई हैं, वो लीगली नोटिफाई भी कर दी हैं. उसके बाद भी अभी भी हम देखते हैं कि दो जगह का अलग-अलग सर्टिफिकेट मिल जाएगा.
एक अभ्यर्थी की तीन अलग सर्टिफिकेट?
डॉ सतेंद्र उदाहरण देते हुए बताते हैं कि जैसे कि पिछले साल एक नीट एस्पिरेंट का लो विजन का केस आया था. उसको ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट दिल्ली ने 40% दिया था, फिर उसको मेडिकल डॉक्टर भोपाल से 70% का मिला बाद में आरएमएल ने उसे 0% दिया. इस बच्चे ने NEET का एग्जाम दिया था, उसका सेलेक्शन भी हो गया था.लेकिन उसको बाद में नुकसान उठाना पड़ा. इसके अलावा डॉक्टरों में भी इसमें बड़ा कनफ्यूजन होता है, कई अस्पतालों के डॉक्टर नीट वाले मामलों में 40% से काफी बढ़ाकर देंगे. ऐसे कई सारे केसेज हैं जिसके कारण बच्चों का भविष्य बर्बाद हो गया और उनका दाखिला नहीं हो पाया.
डॉ सतेंद्र कहते हैं कि 40 पर्सेंट को आप ऐसे समझिए कि किसी के पैर में थोड़ी लंगड़ाहट (लिंब) है, उसे 100 पर्सेंट आप कैसे दे सकते हो. उसे व्हीलचेयर पर कैसे बता सकते हैं. अगर माना आधा पांव कटा है तो ये 90 पर्सेंट तक हो जाता है, इसमें पैरों के ज्वाइंट चेक किए जाते हैं कि इसमें कितनी पॉवर और कितनी स्ट्रेंथ है. कितना मुड़ पा रहे हैं. ये सब मिलाकर ये 90 तक हो सकता है. जब से मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस की गाइडलाइंस आई हैं, उसमें साफ दिया है कि आपको किन किन पैरामीटर्स पर कैसे चेक करना है, लेकिन इसके बाद दो चीजें हैं जो डॉक्टर्स हैं वो पूरी तरह से अवेयर नहीं हैं. वो क्राइटेरिया बदलते रहते हैं. दूसरे जो चीटर्स या फेक लोग हैं जिन्हें सिस्टम का पता होता है, वो दुरुपयोग करके फायदा उठाते रहते हैं. जैसे 40% का कोई पैमाना होता नहीं, हल्का सा लिम्प होता है तो 40 पर्सेंट बना देते हैं.
...फिर भी ऐसे मामले क्यों आते हैं
वहीं दूसरी तरफ जिनकी हाथ की उंगली नहीं होती उनका 10 पर्सेटं, एक आंख खराब है तो 30 पर्सेंट होता है. लेकिन, उनका बेंचमार्क सर्टिफिकेट नहीं बनता है.लेकिन कुछ लोग जो दस प्रतिशत वाले हैं वो फर्जी का 40 प्रतिशत का बनाकर सिस्टम में घुस जाते हैं. आज तक कितने सारे केस हुए हैं, कानून भी सख्त है जैसे RPwD Act का सेक्शन 91 साफ साफ कहता है कि विकलांग लोगें के अधिकारों का दुरुपयोग करेंगे तो जेल की भी सजा हो सकती है या फाइनेंशियल पेनेल्टी भी हो सकती है, लेकिन किसी को सजा नहीं मिल पाती. डॉ सतेंद्र कहते हैं कि हम इंतजार कर रहे हैं कि चाहे मेडिकल बोर्ड हो या फायदा पाने वाला कोई भी शख्स, किसी एक को भी सजा मिले तो समाज के लिए एक नजीर बने. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. जब गाइडलाइंस दे रखी हैं तो गलती हो नहीं सकती.लेकिन फिर भी ऐसे मामले क्यों आते हैं.
डॉ सतेंद्र आगे कहते हैं कि आपका ध्यान इनविजबल डिसेबिलिटी जैसे कि डिस्लेक्सिया, थेलेसीमिया, हीमोफीलिया आदि की तरफ ले जाना चाहूंगा. अब डिस्लेक्सिया को ही ले लें, इसमें कोई देखकर तो पता नहीं चलेगा, इसके टेस्ट लंबे टेस्ट होते हैं जो एक या दो-दो दिन होते हैं, ऐसे में हो सकता है कि इस सर्टिफिकेट का कोई मल्टीपल यूज निकाल ले.
मल्टीपल डिसेबिलिटी के मामले में करते हैं खेल
अब आप IAS के केसेज देखें, जो कि मल्टीपल डिसेबिलिटी के हैं. इसकी बड़ी एक इंट्रेस्टिंग चीज है, इसमें दो भिन्न तरह की विकलांगता होती है. लेकिन जो इसका फार्मूला है उसमें दो डिसेबिलिटी को जोड़ते नहीं है. उदाहरण के लिए 10 पर्सेंट आपके पैर में है (जैसे कि पूजा खेड़कर के केस में है) और मानसिक विकलांगता 40 से 50 पर्सेंट के ऊपर है. ऐसे में एक फार्मूला लगाते हैं तब जाकर बेंचमार्क तय होता है. इसमें एक डिसेबेलिटी बेंचमार्क से नीचे हो सकती है. इसमें 40 और 60% जोड़ते नहीं है, इसमें डिवाइड करके एक फार्मूला दे रखा है (a+b-2) करके, जिसमें आपके कम और ज्यादा करके बेंचमार्क निकालते हैं, यह फार्मूला एम्स के डॉक्टरों ने तैयार किया है. कुछ स्मार्ट लोग इस प्रक्रिया में अगर लूप होल्स दिखे तो उसका फायदा उठाना जानते हैं, वो इसका मिस यूज कर लेते हैं. इस फार्मूले को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं कि ये किस आधार पर क्या सोचकर बनाया गया है.
मजाक न उड़ाएं पर सजा जरूरी...
डॉ सतेंद्र का कहना है कि मेंटल डिसेबिलिटी के केसेज में हमें ज्यादा ध्यान रखना चाहिए कि आप उनको सर्टिफिकेट मिलने का भूलकर भी मजाक न उड़ाएं. यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है. लेकिन दूसरा पक्ष यह है कि इसमें कोई मानसिक विकलांग लाभार्थी होने से बचना नहीं चाहिए, लेकिन जो गलत फायदा उठा रहे हैं, उन पर कड़ी कार्रवाई होनी जरूरी है. हमारे कानून में कड़े प्रावधान हैं. डिसेबिलिटी कोर्ट को भी स्वत: संज्ञान लेना चाहिए. इतना हल्ला मच रहा है, लेकिन सवाल यह है कि इस पर कार्रवाई क्यों नहीं होती. कोई एक्शन नहीं लेता, इसी कारण ऐसे मामले बढ़ रहे हैं.