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मौलाना हसरत मोहानी: आज़ादी का वो ग़ुमनाम सिपाही जिसने दिया 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा 

मौलाना हसरत मोहानी भारतीय इतिहास के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 'पूर्ण स्वतंत्रता' (आज़ादी-ए-कामिल) की मांग की थी. हसरत मोहानी ने स्वदेशी आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. लोगों को इसके लिए जागरूक किया.

बाबा साहब भीम राव अंबेडकर के साथ मौलाना हसरत मोहानी की एक तस्वीर बाबा साहब भीम राव अंबेडकर के साथ मौलाना हसरत मोहानी की एक तस्वीर
शाह नवाज़ अली
  • नई दिल्ली,
  • 15 अगस्त 2023,
  • अपडेटेड 2:50 PM IST

Independence Day 2023: 'हम कौल के हैं सादिक अगर जान भी जाती है, वल्लाह कभी खिदमत-ए-अंग्रेज न करते' - मौलाना हसरत मोहानी. 15 अगस्त 1947 में भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिली थी. इस दिन ना सिर्फ देश की आज़ादी की खुशी बल्कि देश के लिए अपनी जान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के समर्पण और कुर्बानी को भी याद किया जाता है. देश को आजादी दिलाने वाले एक-एक शख्स की भूमिका अहम है. इस मौके पर हम आज आपको आज़ादी के उस ग़ुमनाम सिपाही की कहानी बताएंगे जिसने 'इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया था. 

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'इंकलाब ज़िंदाबाद’ वही नारा है जिसे भगत सिंह ने हमेशा के लिए अमर कर दिया. मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी और साहित्य से लोगों में आज़ादी की अलख जगाई. उन्होंने विभिन्न आंदोलनों में अपना सक्रिय हिस्सा लिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ बखूबी लड़ाई लड़ी. 

नाम के साथ ऐसे जुड़ा था 'मोहानी'
मौलाना हसरत मोहानी का जन्म लखनऊ के उन्नाव जिले के मोहान कस्बे में 1 जनवरी 1875 को हुआ था. उनका असली नाम सैयद फ़ज़ल-उल-हसन था. हसरत उनका तख़ल्लुस यानी शायरी या ग़ज़ल के लिए उपयोग किया जाने वाला एक उपनाम था. मोहान  में जन्म होने के कारण उनके नाम में 'मोहानी' जुड़ गया. 

कॉलेज के दिनों जेल गए, फिर भी कम नहीं था आजादी का जुनून
प्रारंभिक पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया. कॉलेज के दौरान ही वे कई आंदोलनों का हिस्सा बने जिसकी वजह  से उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. यहां तक कि उन्हें कॉलेज से निष्कासित भी कर दिया गया लेकिन इससे उनका आज़ादी का जुनून कम नहीं हुआ. वे देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ते रहे और कई बार जेल भी गए. उनकी पत्नी निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, उन्होंने भी अपने पति के साथ आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था. 

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कलम की ताकत से किया ब्रिटिश अफसरों का सामना
मोहानी ने एक मैगज़ीन (उर्दू-ए-मुअल्ला) निकाली जिसका इस्तेमाल उन्होंने आज़ादी के मकसद को आगे बढ़ाने के लिए किया. मोहानी अपनी पत्रिका के ज़रिये ब्रिटिश शासन के दमन और गलत नीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक कराते रहें. जिससे अंग्रेज़ नाराज़ हो गए और उन पर जुर्माना लगाया. जुर्माना न देने के कारण वह जेल गए. जेल से छूटने के बाद भी वे अंग्रेज़ों के खिलाफ लिखते रहे. मौलाना बड़ी बेबाकी से अपनी कलम के ज़रिए लोगों  को आज़ादी की लड़ाई से रूबरू कराते रहे. अंग्रेज़  उनकी कलम की ताकत को समझ चुके थे. इसी डर से उनकी मैगज़ीन  बंद करा दी गई. लेकिन अंग्रेज उनका हौसला नहीं तोड़ सके, वे लोगों के दिलों में आज़ादी की मशाल जलाते रहे. 

मशहूर ग़ज़लों के जनक
मौलाना हसरत मोहानी जितने अच्छे स्तंभकार थे उतने ही अच्छे कवि भी थे. आज भी उनकी लिखी ग़ज़लें और शायरी बहुत लोकप्रिय हैं. मादर-ए-वतन से बेपनाह मोहब्बत करने वाले मोहानी ने ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’, जैसी मशहूर ग़ज़ल लिखी है. मौलाना का शायरी संग्रह 'कुलियत-ए-हसरत' के नाम से प्रसिद्ध है. उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया मुकाम दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके काव्य में सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक और स्वाधीनता का भाव दिखाई देता है. 

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'पूर्ण स्वतंत्रता' की मांग करने वाले पहले व्यक्ति
वह भारतीय इतिहास के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 'पूर्ण स्वतंत्रता' (आज़ादी-ए-कामिल) की मांग की थी. हसरत मोहानी ने स्वदेशी आंदोलन में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. लोगों को इसके लिए जागरूक किया. उन्होंने स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए एक खद्दर भंडार खोला जिससे आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिला. 

बाबा साहब के साथ हिन्दुस्तान को संवारा
1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मोहानी को भी शामिल किया गया. बाबा साहब अंबेडकर के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दुस्तान को संवारने के लिये जो बन पड़ा, किया. उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश के लिए कुर्बान कर दी. मज़हब के आधार पर मुल्क के बंटवारे की मुख़ालफ़त करने वाले मोहानी ने पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकरा दी और 13 मई 1951 को लखनऊ में आख़िरी सांस ली. आज़ादी के वीर सिपाही हसरत मोहानी भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके बलिदान को इतिहास में भुलाया नहीं जा सकता.

 

 

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