
Vaikom Muhammad Basheer: आजादी की लड़ाई में सैकड़ों देशभक्तों ने अपना पूरा जीवन झोंक दिया. ऐसे कई सेनानी हुए जिन्होंने जीवन भर यातनाएं सहकर भी स्वाधीनता का रास्ता नहीं छोड़ा. ऐसे ही एक आजादी के मतवाले थे मुहम्मद बशीर, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता दिखाया. जिन्होंने पूरी जिंदगी कठिनाइयों के रास्ते पर चलकर बिताई और अपनी लेखनी से आजादी की ज्वाला जलाकर रखी. वह एक हिंदू भिक्षुक, अखबार बेचने वाले, जादूगर के असिस्टेंट और प्राइवेट ट्यूटर तक बने और अपनी क्रांतिकारी रचनाओं के लिए पद्मश्री से भी सम्मानित हुए. केरल सांस्कृतिक मंत्रालय की वेबसाइट keralaculture.org पर उनके जीवन पर जानकारी लिखी गई है.
कौन थे मुहम्मद बशीर?
21 जनवरी 1908 को केरल के त्रावणकोर, वैकोम में एक कट्टर मुस्लिम परिवार में जन्मे, बशीर अपने पांच छोटे भाई-बहनों के साथ रहते थे. वह एक मुसलियार (मलयाली इस्लामिक विद्वान) द्वारा घर पर अरबी पढ़ते थे. उनके पिता का लकड़ी का व्यवसाय था, मगर बशीर की किस्मत उनकी परवरिश से बंधी नहीं थी. आठ साल की उम्र तक, उन्होंने पूरी कुरान सीख ली थी. जल्द ही वे देश की स्वाधीनता के संग्राम में टूट पड़े.
गांधी जी से हुए प्रभावित
उस समय के त्रावणकोर रियासत वैकोम में एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ते समय, बशीर की मुलाकात महात्मा गांधी से हुई. गांधी ने उसी समय वैकोम सत्याग्रह की शुरुआत की थी, जो उत्पीड़ित जातियों के हिंदू मंदिरों में प्रवेश पर लगे 'प्रतिबंध' के खिलाफ एक क्षेत्रीय आंदोलन था. गांधी से मुलाकात का उनपर ऐसा असर हुआ कि वह खादी पहनने लगे और गांधी के आदर्शों पर चलने लगे. यहां तक कि, अपनी कहानी 'अम्मा' में उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए लिखा है, 'अम्मा, मैंने गांधी को छुआ.'
बशीर 10वीं कक्षा में थे जब उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया. उन्होंने न केवल औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरोध शुरू किया, बल्कि त्रावणकोर रियासत के दीवान सी.पी. रामास्वामी अय्यर के शासन के खिलाफ अपनी अस्वीकृति भी व्यक्त की. अय्यर की नीतियों के खिलाफ उन्होंने बाद में 'धर्मराज्यम' शीर्षक से राजनीतिक निबंधों का एक संग्रह लिखा. 1938 में प्रकाशित हुई बशीर की यह किताब उसी वर्ष ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थी.
छोड़ दिया अहिंसा का रास्ता
साल 1930 में, वह तत्कालीन मालाबार जिले में के. केलप्पन के नेतृत्व में 'नमक सत्याग्रह' में शामिल हुए और गिरफ्तार कर लिए गए. इस घटना के बारे में उन्होंने लिखा, 'दो हिंसक वार मेरी गर्दन पर पड़े! फिर उन्होंने मुझे कंधों से पकड़ा और मुझे झुका दिया. उसने मुझे पीटना शुरू कर दिया. ऐसा लग रहा था जैसे वह तांबे के बर्तन को पीट रहा हो. मैंने सत्रह तक गिना, या शायद सत्ताईस था. इसके बाद मैंने गिनना बंद कर दिया.'
खुद पर हुई हिंसा के निशानों ने उन्हें अहिंसा के गांधीवादी सिद्धांत को त्यागने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने देखा कि अहिंसा का मार्ग भारत को स्वतंत्रता अर्जित नहीं करेगा. ऐसे में उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव को अपना आदर्श बनाया. जेल से रिहा होने के बाद, बशीर ने एक विद्रोही आंदोलन का आयोजन किया और एक क्रांतिकारी पत्रिका, उज्जीवनम ('विद्रोह') का संपादन किया.
कई रूप धर खुद को छिपाया
बशीर की गतिविधियों के जवाब में ब्रिटिश प्रशासन ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया. सभी क्रांतिकारी जल्द ही भूमिगत हो गए और सात साल तक कश्मीर से कोलकाता तक और यहां तक कि अरब के तटों तक, हज तीर्थयात्रियों के बीच भटकते रहे. वह अपनी पहचान छिपाने के लिए एक हिंदू भिक्षुक और एक हस्तरेखाविद से लेकर एक जादूगर के सहायक और एक निजी ट्यूटर तक बने.
पेट भरने के लिए उन्होंने छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए. इस समय के दौरान, बशीर सभी धर्मों और संप्रदायों के लोगों के बीच रहे और उनमें सच्ची धर्मनिरपेक्ष भावना जागी. आगे चलकर उनकी 'अनर्गनिमिषम' संग्रह से उनकी लघु कहानी 'अनल हक' में यह दिखाई भी दिया. बशीर 48 साल के थे जब उन्होंने फातिमा से शादी की, जो उस समय 20 साल की थीं.
पद्मश्री से हुए सम्मानित
स्वतंत्रता के बाद, उन्हें 1982 में चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान - पद्म श्री से सम्मानित किया गया था और भारत सरकार ने भी उन पर डाक टिकट जारी करके उन्हें सम्मानित किया था. वह साहित्य अकादमी फैलोशिप, केरल साहित्य अकादमी फैलोशिप और सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए केरल राज्य फिल्म पुरस्कार के प्राप्तकर्ता भी थे. उनके प्रमुख साहित्यिक योगदानों में 'पाथुमायुदे आडू', 'बाल्यकालसखी', 'मथिलुकल', 'प्रेमलेखनम', 'अनर्गा निमिषम' आदि शामिल हैं.