कई लोगों को आपने कहता सुना होगा कि वो खुद को शॉपिंंग करने से रोक नहीं पाते. यह शिकायत आमतौर पर महिलाएं ज्यादा करती हैं. एक महिला ने सोशल मीडिया पर लिखा कि उसे शॉपिंग की ऐसी लत लग गई है कि वो ऑनलाइन शॉपिंग में हर महीने 40 हजार रुपये तक इनवेस्ट करती है, बाद में उसे लगता है कि उसने कई चीजें बेकार में ही ऑर्डर कर दी थीं. लेकिन वो खुद को खरीदारी करने से रोक नहीं पाती. उसे शॉपिंग करके अजीब-सा सुकून मिलता है. शॉपिंंग की यह लत पड़ना मनो चिकित्सकीय टर्म में एक डिसऑर्डर मानी जाती है. आइए एक्सपर्ट डॉक्टर से जानते हैं कि शॉपिग की लत अगर डिसऑर्डर का रूप ले चुकी है तो इसे कैसे पहचानें और क्या है इसका इलाज...
मनोचिकित्सक बताते हैं कि सीबीडी से ग्रसित लोग तनाव या चिंता के दौरान खरीदारी करके एक अलग तरह की राहत महसूस करते हैं. डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि यह एक ऐसा मनोविकार है, जिसके साथ मूड एंड एंजाइटी डिसऑर्डर्स, सब्स्टेंस यूज डिसऑर्डर, फूड डिसऑर्डर समेत इमपल्सिव कंट्रोल के कई डिसऑर्डर एक साथ हो सकते हैं. सीबीडी से ग्रसित अधिकांश व्यक्ति दूसरे मनोविकारों के मानदंडों को भी पूरा करते हैं, उनमें विशेष तौर पर एक्सेसिव शॉपिंग यानी "खरीदारी" का लक्षण ही नहीं पाया जाता.
कंपल्सिव बाइंग डिसऑर्डर का ऐसा कोई मानक उपचार नहीं हैं. हां, आजकल साइको फार्माकोलॉजिकल उपचार अध्ययनों को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया जा रहा है, और इसके लिए ग्रुप कॉग्निटिव बिहैवियर मॉडल विकसित किए गए हैं जो काफी आशाजनक माने जा रहे हैं. इसमें डॉक्टर कई तरह की काउंसिलिंग और लाइफ स्टाइल में व्यापक बदलाव को तरजीह देते हैं. इसमें वित्तीय परामर्श और वैवाहिक चिकित्सा परामर्श भी सीबीडी के प्रबंधन में एक भूमिका निभा सकते हैं.
IHBAS दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि ज्यादा खरीदारी की आदत कंपल्सिव बाइंग डिसऑर्डर (सीबीडी) भी हो सकती है. इस मनोविकार का शिकार लोग कई बार जुए या लॉटरी से भी ज्यादा नुकसान उठा बैठते हैं. उन्होंने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि अमेरिका की सामान्य आबादी में 5.8% लोग इस मनोविकार से ग्रस्त पाए गए. चिकित्सकीय रूप से किए गए अध्ययन बताते हैं कि इस डिसऑर्डर के शिकार लोगों में 80% महिलाएं होती हैं. हालांकि यह जेंडर विभेद पुख्ता नहीं माना जाता है.
इस डिसऑर्डर को पहली बार 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्लेउलर और क्रेपेलिन नाम के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने पहचाना और इसे चिकित्सकीय रूप से वर्णित किया गया. इनमें से दोनों ने सीबीडी को अपनी पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया था. ब्ल्यूलर लिखते हैं: "एक अंतिम श्रेणी के रूप में क्रेपेलिन ने खरीदारों (ऑनियोमैनियाक्स) का उल्लेख किया है, जिसमें खरीदना इतना बाध्यकारी क्रिया है कि व्यक्ति कर्ज में डूब जाता है. वहीं ब्लेउलर ने सीबीडी को "प्रतिक्रियाशील आवेग", या "आवेगी पागलपन" के एक उदाहरण के रूप में वर्णित किया, जिसे उन्होंने क्लेप्टोमेनिया और पायरोमेनिया के साथ समूहीकृत किया.
ये होते हैं लक्षण
सीबीडी से ग्रसित व्यक्ति खरीदारी और खर्च में व्यस्त रहते हैं. ऐसे लोग अपना सबसे ज्यादा वक्त ऐसे ही कंपल्सिव बिहैवियर पर लगाते हैं. हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि एक व्यक्ति एक बाध्यकारी खरीदार भी हो सकता है. सिर्फ इतना ही नहीं कई लोग विंडो शॉपिंग करके भी अपने तनाव से छुटकारा पा लेते हैं लेकिन डॉक्टर ऐसे किसी पैटर्न को असामान्य मानते हैं. सीबीडी वाले व्यक्ति अक्सर चिंता के बढ़ते स्तर के दौरान खरीदारी करने को बाध्य हो जाते हैं जो खरीदारी के पूरा होने पर ही खत्म होता है.
सीबीडी को चार अलग-अलग चरणों में पहचान सकते हैं
1) प्रत्याशा;
2) तैयारी;
3) खरीदारी;
4) खर्च
पहले चरण में, सीबीडी वाले व्यक्ति के पास एक खास वस्तु होने की इच्छा जगती है. फिर उसके मन में खरीदारी का विचार आता है जो धीरे धीरे आग्रह के तौर हावी होता जाता है.
दूसरे चरण में व्यक्ति खरीदारी और खर्च की तैयारी करता है. इसमें ऐसे निर्णय शामिल हो सकते हैं कि कब और कहां जाना है, कैसे कपड़े पहनना है और यहां तक कि किस क्रेडिट कार्ड का उपयोग करना है. इसमें बिक्री की वस्तुओं, नए फैशन या नई दुकानों के बारे में काफी शोध हो सकता है.
तीसरे चरण में वास्तविक खरीदारी अनुभव शामिल है, जिसे सीबीडी वाले कई व्यक्ति बेहद रोमांचक बताते हैं, ये उनके हैप्पी हार्मोन को बढ़ाने का काम भी करता है.
अंत में, चौथा चरण उस वस्तु की खरीद के साथ पूरा होता है, जिसके बाद अक्सर निराश होने की भावना भी शामिल होती है, या कुछ ही समय या एक दिन बाद स्वयं से निराशा होती है.