
"मैं ससुराल की यातनाओं से तंग आ चुकी थी. छोटी-छोटी बातों पर पति ऐसे पीट देता था जैसे मैं कोई जानवर हूं. दो बच्चों के जन्म के बाद कमजोरी मेरे शरीर में जैसे घर बना चुकी थी. खाने को भी नापतौल कर मिलता था. मैं धीरे-धीरे मर रही थी. हर दिन अपमान और प्रताड़ना ने मेरी आत्मा को छलनी कर दिया था. अब मेरी सहनशक्ति धीरे धीरे जवाब देने लगी थी. एक दिन मैंने वो कदम उठाने की सोची जिसे सोचकर आज भी मेरी रूह कांप जाती है."
ये कहानी है मध्य प्रदेश में ज्वाइंट डायरेक्टर सविता प्रधान की. उनकी ऑफिसर बनने की कहानी कोई आम सक्सेस स्टोरी भर नहीं है. ये कहानी है एक मुरझाए पौधे को हिम्मत की खाद और आंसुओं से सींचकर फिर से हरा करने की. aajak.in से बातचीत में उन्होंने अपनी कहानी साझा की.
मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के मंडई गांव में जन्मी सविता प्रधान बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज़ थीं. वह अपने गांव में 10वीं क्लास पास करने वाली पहली लड़की थीं. पिता को अपनी होनहार बेटी पर बड़ा गर्व हुआ. आर्थिक स्थिति कुछ खास नहीं थी तो अच्छी पढ़ाई मिलना बड़ा मुश्किल था. फिर भी 11वीं-12वीं की पढ़ाई नज़दीक के पल्हेड़ा गांव जाकर जैसे तैसे जारी रखी. इसी बीच सविता के लिए एक बड़े घर से शादी का रिश्ता आया. लड़के के पिता डिस्ट्रिक्ट जज थे. उन्होंने कहा कि हमारी भी एक बेटी इसी उम्र की थी जो गुजर गई, वो डॉक्टर बनना चाहती थी. अब हम अपनी बहू को डॉक्टर बनाएंगे. सविता के पिता के पास इस रिश्ते को नकारने की कोई वजह नहीं थी. सविता उस समय 12वीं भी पास नहीं हुई थीं और लड़का उनसे 11-12 साल बड़ा था. इस सबके बावजूद, 1998 में 16 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई.
नर्क जैसी थी ससुराल की जिंदगी
ससुराल पहुंचने के बाद सविता ने अपने जीवन का सबसे भयावह दौर जिया. पढ़ाई की बात घर पर फिर कभी उठी ही नहीं. वह सुबह से शाम तक घर के कामों में झोंक दी गईं. उम्र काफी छोटी थी, पति ने जल्दी ही मारपीट भी शुरू कर दी. इतना ही नहीं, खाना भी उन्हें तभी खाने को मिलता जब सबके खा लेने के बाद कुछ बचता. अगर खाने को कुछ नहीं बचता तो उन्हें भूखा रहना पड़ता. दोबारा खाना बनाने की इजाज़त नहीं थी. वह अक्सर खाना बनाते समय कुछ रोटियां अपने कपड़ों में छिपा लेतीं और बाद में बाथरूम में जाकर सूखी रोटी खाकर ही अपना पेट भरतीं. हालांकि, हर दिन ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था. 19 साल की उम्र में उनका वज़न 38 किलो हो गया था. सविता को एहसास होने लगा था कि वो एक धीमी मौत मर रही हैं. इसी दौरान उन्होंने सवा साल के अंतर पर 2 बेटों को जन्म दिया. शरीर और कमजोर हो चुका था. भीतर से तो न जाने कब की टूट चुकीं थीं. फिर एक वक्त आया जब उन्होंने तय किया कि वह ऐसी जिंदगी नहीं जी सकती.
मन करता था, जहर दे दूं या...
सविता बताती हैं कि उन्हें हर दिन यह ख्याल आने लगे कि वह सबको जहर देकर मार दें. फिर उन्होंने सोचा कि क्यूं न खुद को ही मार दूं. उन्होंने फांसी का फंदा तैयार किया और खुद को लटकाने के लिए पलंग पर स्टूल भी रख लिया. उन्होंने बताया, 'मैंने दरवाजा तो बंद कर लिया था मगर खिड़की बंद करना भूल गई थी. तभी मेरी सास खिड़की के सामने से गुजरी. हम दोनों ने एक दूसरे को एक पल रुककर देखा... मगर फिर वो आगे बढ़ गईं, जैसे उन्होंने कुछ देखा ही नहीं. उस पल मेरे मन ने मुझसे चीखकर कहा कि इन लोगों के लिए अपनी जान देने की भला क्या जरूरत... मरना होगा तो मर जाउूंगी मगर इन लोगों के लिए नहीं. यही सोचकर मैंने अपने दोनों बच्चों को सीने से लगाया और घर से निकल गई.'
घर छोड़ने पर भी कम नहीं हुईं मुश्किलें
21 साल की उम्र में वह अपने 2 बेटों को लेकर घर से निकल गईं. बड़ा बेटा केवल डेढ़ साल का था जिसने अभी चलना ही सीखा था, जबकि छोटा बेटा केवल 4 महीने का था जो अभी मां का दूध पीता था. सविता सहरोल में अपने ससुराल से निकलकर भोपाल आ गईं. उनके पति की एक दूर की बहन उनसे काफी लगाव रखती थीं. वह उन्हीं भाई-बहन के घर आ गईं. इसकी जानकारी जब सविता की मां को लगी तो उन्होंने अब सबकुछ छोड़कर अपनी बेटी का साथ देने का फैसला किया. वह भी बेटी के साथ रहने आ गईं. एक 900 रुपये के किराए के कमरे में सविता अपनी मां, दो बच्चे और अपनी ननद और उसके भाई के साथ रहने लगीं.
पार्लर का काम भी किया
अब जिंदगी उनका और कड़ा इम्तिहान लेने वाली थी. अपना पेट पालने के लिए उन्होंने पार्लर का काम करना शुरू किया. छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया. जैसे तैसे पैसे कमाकर अपना गुजारा करना शुरू किया. उन्हें याद है कि कई महीनों तक घर में सभी सुबह शाम सिर्फ दाल-चावल खाते थे, और दाल में तड़का लगाना भी मुमकिन नहीं होता था. सविता सीवियर माइग्रेन से जूझ रही थीं. वह हर दिन ईश्वर से कहती थीं कि आज उनके सिर में दर्द न हो. मगर ऐसा कभी नहीं होता था. माइग्रेन की तकलीफ के चलते उन्हें पेनकिलर गोलियां खानी पड़ती थीं, जिन्होंने जल्द ही उनकी किड़नी भी खराब कर दी. वह शारिरिक रूप से इतना टूट गईं कि हिम्मत खोने लगी थीं.
लिखने की आदत भी छूट चुकी थी...
साल 2004 में रोजगार समाचारपत्र में उनकी नज़र मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग (MPPSC) भर्ती के विज्ञापन पर पड़ी. उन्होंने देखा कि इसके लिए शुरुआती वेतन 12 हजार रुपये था. अपनी सारी हिम्मत बटोरकर उन्होंने इस भर्ती को अपना लक्ष्य बना लिया. हालांकि, यह आसान होने वाला नहीं था. पढ़ाई-लिखाई से नाता टूटे कई साल बीत गए थे. ससुराल में न कभी अखबार पढ़ने को मिला था, न कभी टीवी देखने को. कलम हाथ में पकड़कर लिखने की आदत भी छूट चुकी थी. लोगों ने भी समझाया कि राज्य लोक सेवा आयोग की भर्ती की परीक्षा पास करना आसान काम नहीं. लोग कई-कई साल तक प्रयास करते रहते हैं फिर भी कामयाब नहीं होते. मगर सविता ने एक पल के लिए भी कदम पीछे हटाने के बारे में नहीं सोचा. वह तय कर चुकी थीं कि उन्हें क्या करना है.
हिमोग्लोबिन गिरता जा रहा था फिर भी...
केवल 3 महीने बाद प्रीलिम्स का एग्जाम होना था. सविता ने किताबें मांगकर पढ़ना शुरू किया. जितनी पढ़ाई लोग एक साल में करते हैं, उतनी पढ़ाई उन्होंने 3 महीनों में की. खाने को भरपेट खाना नहीं था. माइग्रेन से लगातार सिरदर्द होता रहता था. उनका ब्लड हिमोग्लोबिन गिरकर खतरनाक स्तर तक आ गया था, मगर सविता के पास इन बातों के बारे में चिंता करने का समय ही नहीं था. वह दिन के 16-18 घंटे सिर्फ पढ़ाई करती थीं. शरीर इतना कमजोर हो चुका था कि पढ़ा हुआ याद नहीं होता था. कई बार रिवाइज़ करना पड़ता था. ये परीक्षा उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल सकते थे. जो जिंदगी वह जी रहीं थीं, उनके पास हारने के लिए कुछ नहीं था, उन्होंने जीतने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया...
इंटरव्यू में जाने के लिए पहनने को साड़ी तक नहीं थी....
जब प्रीलिम्स परीक्षा का रिजल्ट आया तो सविता की आंखों में एक चमक थी. उन्होंने पहले अटेम्प्ट में ही प्रीलिम्स एग्जाम क्लियर कर लिया था. उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने पत्थर को निचोड़कर पानी निकाल दिया हो. 4 महीने बाद ही मेन्स एग्जाम था. सविता फिर पढ़ाई में जुट गईं. आधे पेट खाना, बिगड़ती तबीयत और बच्चों की जिम्मेदारियों के साथ वह अपने प्रयासों में लगी रहीं. उन्होंने पहले अटेम्प्ट में ही मेन्स एग्जाम भी क्लियर कर लिया. उन्हें अब खुदपर यकीन हो गया था. उनकी मेहनत के पेड़ पर फल लगने लगे थे.
इंटरव्यू में जाने के लिए उनके पास साड़ी नहीं थी. उन्होंने अपनी बुआ से साड़ी उधार मांगी और खुद अपना ब्लाउज़ सिला. वह इंटरव्यू में शामिल हुईं और पूरे आत्मविश्वास के साथ खुद को प्रेजेंट किया. इसके बाद वह इंटरव्यू के नतीजों का इंतजार करने लगीं. इसमें काफी समय लगा. उन्होंने इस दौरान आयोग की अगली भर्ती की परीक्षा भी क्लियर कर ली. उनके संघर्ष के समय की रात अब बीत चुकी थी और सवेरा होने को था. फिर वो दिन आया जब उनका ज्वाइनिंग लेटर उनके हाथ में आया. सविता अब एक PCS ऑफिसर थीं.
हर किसी के लिए मिसाल है कहानी
अपनी पहली पोस्टिंग उन्हें गोटोगांव में चीफ म्यूनिसिपल ऑफिसर के तौर पर मिली. आदिवासी छात्रों को लोक सेवा आयोग की प्रीलिम्स, मेन्स और इंटरव्यू क्लियर करने पर 25-25 हजार की स्कॉलरशिप मिलती है. सविता को 75 हजार की स्कॉलरशिप की भी मदद मिली. आज सविता चंबल और ग्वालियर जिले की ज्वाइंट डायरेक्टर हैं. वह जल्द ही एलाइड IAS बनने वाली हैं. वह दूसरी शादी कर चुकी हैं जिससे उन्हें एक बेटा और हुआ है. आज सम्मान की जिंदगी जी रही सविता जब कभी भी अपनी बीती जिंदगी को पलटकर देखती हैं तो उनके अंदर किसी के प्रति शिकायत का नहीं, बल्कि खुद के लिए गर्व का भाव होता है...