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किताबें-कॉपी-स्टेशनरी से लेकर यूनिफॉर्म से करोड़ों कमा रहे स्कूल! समझ‍िए- क्या है पूरा गण‍ित?

'मजबूरी का नाम अब बदलकर 'प्राइवेट स्कूल का पेरेंट्स' हो जाए तो बड़ी बात नहीं.' एक अभ‍िभावक का यह वाक्य आधुनिक स्कूल‍िंग पर कई प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है. आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं कि किसी बच्चे के लिए अच्छी श‍िक्षा का सपना देखने वाले अभ‍िभावक कैसे स्कूल के गण‍ित में उलझकर खुद को मजबूर मान लेते हैं.

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मानसी मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 19 अप्रैल 2023,
  • अपडेटेड 4:09 PM IST

कभी भी किसी लेख का उद्देश्य स्कूल और पेरेंट्स के संबंधों को बिगाड़ना नहीं होता. स्कूल वो जगह हैं जहां एक अभ‍िभावक अपनी औलाद या यूं कहें कि अपनी जीवन धुरी को पूरे व‍िश्वास के साथ भेजता है. विश्वास, एक अच्छे व्यक्त‍ि के निर्माण का, जो स्वाभ‍िमानी हो, स्वावलंबी हो, नेक-ईमानदार हो और शोहरत हासिल करे. वहीं स्कूल के लिए भी ये बच्चे किसी जिम्मेदारी से कम नहीं होते. फिर भी आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज में ये रिश्ते व्यक्त‍िगत से ज्यादा व्यवसाय‍िक होते नजर आ रहे हैं. 

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अब दिल्ली-एनसीआर की बात करें या देश के किसी भी बड़े शहर के नामी प्राइवेट की, ज्यादातर जगह एक ही चलन दिखता है. स्कूल बच्चे के दाख‍िले के साथ ही उनकी यूनिफार्म से लेकर किताबें-कॉपी, स्टेशनरी से लेकर अब तो लंच की भी पूरी जिम्मेदारी ले लेते हैं. यह बुरा नहीं है, लेकिन इसमें व्यवसायिकता कहां तक है ये जानने के लिए हमने कई पेरेंट्स और अभ‍िभावक संघ से बातचीत करके पूरा गण‍ित जानने की कोश‍िश की है. 

अभ‍िभावक-1: मेरी बेटी और उसका कजिन एक ही स्कूल में पढ़ते हैं. कजिन उससे एक क्लास ऊपर है, सो मैंने सोचा कि चलो अच्छा है, बेटी के लिए किताबें तो नहीं खरीदनी पड़ेंगी. लेकिन ऐसा कभी नहीं हो पाता. स्कूल में किताबों का कंटेंट तो नहीं बदलता, लेकिन कुछ चेप्टर वगैरह में हेरफेर हो जाता है. कुल मिलाकर हमें हर साल बच्ची के लिए किताबें खरीदनी ही पड़ती हैं. 

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अभ‍िभावक-2: मेरे बच्चे के लिए मैं हर साल स्कूल के अलावा स्पोर्ट्स यूनिफार्म भी खरीदता हूं. भले ही स्पोर्ट्स एक्ट‍िविटी का अगर हिसाब लगाया जाए तो बमुश्क‍िल साल के 48 दिन ही उसे ये यूनिफार्म पहननी होती है. और हां, ये सारी यूनिफार्म स्कूल की ही बताई इकलौती दुकान से, और अलग-अलग यूनिफार्म के लिए अलग अलग तरह के जूते-मोजे वगैरह भी वहीं से ही मिलते हैं. मैं अपने बचपन में एक ही यूनिफार्म तीन चार साल पहनता था लेकिन मेरे बच्चे की यूनिफार्म में हर बार हल्का-फुल्का चेंज हो जाता है, और मुझे इसे लेना मजबूरी बन जाता है. 

ऊपर जिन अभ‍िभावकों ने अपनी बात कही है, उन्‍हें स्कूल के नजरिये से कोई समस्या तो नहीं कहा जाएगा. भई, स्कूल में बच्चे एक जैसी यूनिफार्म में दिखें, एक जैसी किताबें हों, एक जैसे दिखें तभी तो समानता सीखेंगे. लेकिन, अब सवाल यह उठता है कि इन सभी में स्कूल को पढ़ाई से भी ज्यादा रुचि क्यों है. 

दिल्ली पेरेंट्स ऐसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम ऐसे कई सवालों के जवाब देती हैं जो साबित करते हैं कि स्कूल फीस ही नहीं, बल्क‍ि इस सब बिजनेस से करोड़ों की कमाई करते हैं. एक अभ‍िभावक से स्कूल इतनी मदों में पैसा ले लेते हैं कि अभ‍िभावक के लिए बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाना एक बड़ा टास्क लगने लगता है. 

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NCERT की किताबें, उनकी कीमत

NCERT

 एक निजी स्कूल का क‍िताब-कॉपी का खर्च 

एक निजी स्कूल की कक्षा 2 की किताबों का खर्च

अपराजिता कहती हैं कि किताबों की बात करें तो अब ज्यादातर स्कूल खुद ही किताबें छपवाते हैं. इसे ऐसे समझ‍िए, एक वेंडर स्कूल जाता है और कहता है कि मैं किताबें छपवाता हूं. मुझे एक किताब का 40 रुपये प्रत‍ि बुक चाहिए, उसकी कीमत यानि एमआरपी आप जितना कहें छाप दें, स्कूल कहता है कि ठीक है 250 के करीब या जो उन्हें सही लगता है, वो बताकर कहता है कि छाप दीजिए. यही नहीं वेंडर खुद ही अपने स्टॉल लगाकर इसे बेचने का भी ठेका लेता है.

ऊपर दिए गए दो बजट जिसमें एक अभ‍िभावक अगर एनसीईआरटी की किताबें खरीदता है तो उसे एनईपी के अनुसार अब सिर्फ 500 रुपये तक ही खर्च करना होगा, लेकिन स्कूल का बजट देख‍िए जो कि 4000 रुपये के करीब है. अब अगर आप प्रत‍ि छात्र फायदा देखेंगे तो ये कुछ स्कूलों के लिए लाखों में जाएगा.  

अपराजिता कहती हैं कि कई स्कूलों का तो सीधा किसी प्र‍िंट‍िंग प्रेस के साथ ही टाई अप है जहां वो किताबें छपवा लेते हैं. यहां प्रश्न एनसीईआरटी पर भी उठना चाहिए कि जब स्कूलों में एनसीईआरटी का सिलेबस पढ़ाया जाता है तो फिर छात्रों को बाहरी पब्ल‍िशर्स से किताबें क्यों खरीदनी पड़ती हैं. 

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सब बिजनेस का खेल 

अब आप समझ‍िए कि इस सबसे बिजनेस कैसे जेनरेट होता है. इसके पीछे पहली बात ये है कि स्कूल एनसीईआरटी की क‍िताबें इसलिए नहीं लगाते क्योंकि उसमें वो मार्जिन नहीं होता जो प्राइवेट पब्ल‍िशर से मिलता है. यही नहीं एनसीईआरटी अपना एक सर्कुलर निकालता है जिसमें स्कूलों को अपनी नीड बतानी होती है कि हमें इस क्लास में इतनी किताबें चाहिए. लेकिन विडंबना यह कि न एनसीईआरटी रिक्व‍िज‍िशन मांगता है, न स्कूल वाले कोई देते हैं. 

अब मुनाफे के इस पूरे खेल में स्कूल मालिक को कितना फायदा होता है, इससे ज्यादा ये समझ‍िए कि अभ‍िभावक को जो किताबें एनसीईआरटी से 500 से 600 में मिल जातीं, वो पब्ल‍िशर्स से 5000 से 6000 मिलेंगी. 

एक्स्ट्रा फेसिलिटी दे सकते हैं, बिजनेस नहीं! 
हाईकोर्ट ने इस पर एक बार टिप्पणी देते हुए कहा था कि स्कूल टक शॉप के जरिये पेरेंट्स को एक्स्ट्रा फैसिलिटी दे सकते हैं. यानि उन्हें एक जगह से किताबें मिलें तो पेरेंट्स को सहूलियत हो, लेकिन एनसीईआरटी की 60 रुपये की किताब पब्ल‍िशर 360 की दे रहा है, फिर इसमें स्कूल का मार्जिन 50 से 60 पर्सेंट हुआ तो सोचिए हर स्टूडेंट पर कितना कमा रहे स्कूल. 

NEP के बाद भी स्कूल पुरानी राह पर? 

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अब आप ये सोचिए कि एक तरफ सरकार ने नये सत्र से नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क की तैयारी कर दी है, जिसके अनुसार पढ़ाई का पूरा पैटर्न बदल गया है. ऐसे में सवाल यह है कि जब एनईपी लागू हो चुका है तो स्कूलों ने प्राइमरी कक्षाओं में दो बेसिक सब्जेक्ट्स से ज्यादा किताबें क्यों खरीदवा दीं. अपराजिता कहती हैं कि इसका सीधा जवाब है कि राज्य या केंद्र सरकार इनकी प्रक्र‍िया में दखल नहीं देती. इसलिए कहने को एनईपी लागू हो गया, लेकिन स्कूलों को क्या, उन्होंने नये सत्र के लिए भी अपने पब्ल‍िकेशन हाउस से किताबें बेच दीं.  

एक फायदा यह भी 

इन किताबों से न सिर्फ स्कूलों का मोटा कमीशन बनता है, बल्क‍ि कम सैलरी में पढ़ाने वाले/वाली टीचर्स को पढ़ाने में भी आसानी होती है. अपराजिता कहती हैं कि किताबों से पढ़ाने का नॉलेज हर किसी को नहीं होता है. मसलन दोहा है तो उसका सही भावार्थ उसी टीचर को पता होगा जिसने गंभीरता से पढ़ा है, जो उस विशेषज्ञता से आया है. लेकिन अंग्रेजी क्रेज वाले स्कूलों में वो टीचर बिना मदद के वो दोहा बच्चे को कैसे पढ़ाएंगी. 

इसलिए प्राइवेट पब्ल‍िकेशन की किताबें एक तरह की गाइड और कुंजी के रूप में है. यहां दोहे का अर्थ भी दे दिया है. इससे जिन टीचर्स को ज्ञान नहीं हैं, वो भी इसे एक्सप्लेन कर सकती हैं. अब पहले की तरह हिंदी के स्पेशल नोट्स नहीं बनते. 

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कॉपियों की ब्रांडिंग-लोगो का क्या लॉजिक ?

अब यूनिफार्म एक जैसी हो, किताबें एक जैसी हों, ठीक है लेकिन नोट बुक रजिस्टरों में इतनी ब्रांड‍िंग क्यों. इस सवाल के जवाब में भी स्कूलों का मुनाफा साफ नजर आ जाएगा. मान लीजिए किसी स्कूल की 5 शाखाएं हैं, उन पांचों को मिलाकर तकरीबन 10 हजार बच्चे हैं तो उनकी कॉपियां स्कूल अपना लोगो लगाकर छपा देता है तो उनकी ब्रांडिंग हो जाती है. अब छात्रों को जाहिर है लोगों के साथ कॉपी खरीदनी होगी. इससे होता क्या है कि बाहर जो कॉपी 32 की मिल जाएगी. वही कॉपी स्कूल वाला 40 की बेच रहा है, ब्रांड‍िंग कर रहा है. इसमें प्रोडक्शन कास्ट के बाद सारी कमाई स्कूल वाले कर रहे हैं. वहीं जब आप मार्केट से लेते हैं तो डिस्‍काउंट के बाद 32 की मिली, जिसका फायदा दो तीन लोगों को मिला, दूसरी तरह वो अकेले स्कूल मालिक लेते हैं. सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि क्यों भला कॉपियों पर स्कूल का लोगो होना इतना जरूरी है. 

एक अभ‍िभावक ने बताया कि उन्हें स्कूल से नौवीं में पढ़ने वाले बेटे के लिए 350 रुपये का रजिस्टर लेने को कहा गया. मार्केट में वही रजिस्टर 60 रुपये का मिल रहा है. लेकिन लोगो और ब्रांड‍िंग के कारण उन्हें मजबूरी में रजिस्टर लेना पड़ा. अब आप समझ रहे हैं कि कैसे ये मजबूरी शब्द अभ‍िभावकों का स्कूल में दाख‍िले के पहले दिन से पीछा करने लगता है. 

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वहीं स्कूल में एलमेनेक खरीदने पर भी जोर दिया जाता है. जिसके एक पेज पर आईकार्ड, एक में कैलेंडर आदि होता है. सच पूछ‍िए तो ऐप के जमाने में जब स्कूलों ने लॉकडाउन में माता पिता से संपर्क किया वो एलमेनेक पर जोर देते हैं. यह एलमेनेक कम से कम 350 रुपये का आता है. अपराजिता कहती हैं कि इसके लिए 20 रुपये की एक पतली कॉपी भी खरीदी जा सकती है जिससे माता पिता को मैसेज भेजा जा सके. क्यों हर साल स्कूल की ये डायरी लेनी जरूरी है. एक तरह स्कूल में आप बच्चों को पेड़ काटने से हानियां पढ़ाते हैं दूसरी तरफ उन्हें किताबों से लाद देते हैं. 

स्टेशनरी भी पीछे नहीं 

अब स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को क्या स्टेशनरी चाहिए, सोचिए. लेकिन नहीं स्कूल की स्टेशनरी में भी एकरूपता भी जरूरी है. जैसे स्कूल अक्सर अपनी नीली पीली कॉपियां देते हैं. उन पर कवर और नेम स्ट‍िकर से लेकर साल भर की स्टेशनरी... उसके बाद एक्ट‍िविटी का सामान भी खरीदना है. अपराजिता कहती हैं कि दिल्ली श‍िक्षा निदेशालय हर साल स्कूलों को निर्देश‍ित करता है कि उन्हें यूनिफार्म या बुक्स के लिए पांच पांच वेंडर्स सुझा सकते हैं. अभ‍िभावक किसी से भी यूनिफार्म खरीद सकते हैं. लेकिन उनसे सवाल ये करना चाहिए कि तमाम श‍िकायतों के बाद क्या उन्होंने किसी स्कूल पर कोई कार्रवाई की है? 

जब तक NCERT व्यवस्था दुरुस्त नहीं करेगी, तब तक नहीं होगा

दिल्ली स्टेट पब्लिक स्कूल मैनेजमेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष आरसी जैन कहते हैं कि स्कूल कभी नहीं चाहते कि वो अभ‍िभावकों को किताबें खुद मुहैया कराएं. इसको रोकने का एक ही तरीका है कि स्कूलों को एनसीईआरटी समय पर किताबें उपलब्ध कराए. लेकिन कुछ साल पहले जब एनसीईआरटी ने सभी स्कूलों से इंडेंट मांगे थे, सभी ने भरकर दिया भी था. लेकिन वो किताबें दिसंबर जनवरी में मिली थी, जब सत्र शुरू हुए समय बीत चुका था. जब तक एनसीईआरटी इसे दुरुस्त नहीं करेगी, तब तक नहीं होगा. 

आरसी जैन कहते हैं कि एक पक्ष और है, वो ये कि एनसीईआरटी दस दस साल तक वही कंटेंट चलाता रहता है, उसे अपडेट नहीं किया जाता. उसे समय के साथ चेंज नहीं करते. एनसीईआरटी को समय समय पर इसे बदलना चाहिए. एनसीईआरटी ने बुक्स के लिए एजेंसियां दे रखी हैं. बुक अवेलेबल न होना मेन कारण है. श‍िक्षा निदेशालय की ओर से दिल्ली के हर स्कूलों को अपने पांच वेंडर तय करने के निर्देश हैं. लेकिन, इसमें क्या होता है जो पेरेंट्स होते हैं वो भटकते रहते हैं. 

तीसरी वजह जो दिखती है कि वो कि आज से 25 साल पहले जब पब्ल‍िक स्कूल इतने नहीं होते थे. अब एनसीईआरटी उनको सप्लाई नहीं कर पाता. प्राइवेट पब्ल‍िशर्स की किताबें मार्केट से खरीदनी पड़ती हैं. हां, इसमें यह सुधार हो सकता है कि ये पब्ल‍िशर्स सिलेबस और रेट अप्रूवल के लिए एनसीईआरटी भेजे, उसमें 10 से 20 पर्सेंट वैरिएबल रहे. सबसे बेहतर तो यही है कि सरकार ये सोचे कि बुक्स समय पर देना शुरू कर दें. अध‍िकतर स्कूल नहीं चाहते कि किताबें वो उपलब्ध कराएं, लेकिन कोई रास्ता नहीं है जिसके कारण स्कूल को ये करना पड़ता है. रही बात साल भर के लिए स्टेशनरी या नोट बुक्स देने की, तो स्कूलों को इससे बचना चाहिए. 

 

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