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यूजीसी ने शोध के शिकारियों से चेताया, जाली जर्नल्स से हो रही सेंधमारी!

शोध के इन शिकारियों की वजह से शोध यानि रिसर्च को ना केवल हानि पहुंच रही है बल्कि ठगों ने इसे कमाई का जरिया भी बना लिया है. यूजीसी ने रिसर्च में क्वालिटी और नैतिकता के लिए Consortium for academic and Research Ethics (UGC-CARE) बनाया है. 

प्रतीकात्मक फोटो (Getty) प्रतीकात्मक फोटो (Getty)
राम किंकर सिंह
  • नई द‍िल्ली ,
  • 02 नवंबर 2021,
  • अपडेटेड 5:50 PM IST

लॉकडाउन के दौर में साइबर फिशिंग की सेंधमारी बढ़ गई है. हायर एजुकेशन का सपना लिए छात्र-छात्राओं को ठग चूना लगा रहे हैं. शोध के इन शिकारियों की वजह से शोध यानी रिसर्च को ना केवल हानि पहुंच रही है बल्कि ठगों ने इसे कमाई का जरिया भी बना लिया है. यूजीसी ने रिसर्च में क्वालिटी और नैतिकता के लिए Consortium for academic and Research Ethics (UGC-CARE) बनाया है. 

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केयर के मुताबिक क्लोन्ड जर्नल की संख्या करीब 76 है. यूजीसी ने रिसर्चर और हायर स्टडी में एकेडमिक इंटीग्रिटी के लिए पब्लिक नोटिस भी जारी किया है. एकेडमिक इंटीग्रिटी एक्सपर्ट सुमित नरूला ने aajtak.in से बताया कि यूजीसी के 76 क्लोन्ड जर्नल तो सिर्फ रिपोर्ट हैं जबकि क्लोन्ड और प्रीडेटरी जर्नल की संख्या लॉकडाउन में हज़ारों में पहुंच गई है.

ऐसा देखने में आया है कि लॉकडाउन में जब सभी घर बैठे हैं तो उन्हें लगा कि रिसर्च करनी चाहिए, ऐसे में  रिसर्चर ने बिना इंक्वायरी के ऐसे जाली जर्नल में अपने रिसर्च पेपर को छपवाना शुरू कर दिया. 

नोएडा की पीएचडी की छात्रा ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्रतिष्ठित स्कोप्स जर्नल में रिसर्च पेपर छपवाने का दावा करने वाले एक ठग ने उससे 20,000 रुपए वसूलकर झूठा लेटर भी जारी कर दिया लेकिन स्कोपस जर्नल की वेबसाइट पर पब्लिश रिसर्च पेपर नहीं दिखा क्योंकि वो नकली था.

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पब्‍ल‍िक नोट‍िस
पब्‍ल‍िक नोट‍िस

सुमित ने कहा रिसर्च पेपर छपवाने के लिए पैसा देना जरूरी नहीं है.  किसी भी वेबसाइट पर जाते ही उस पर पूरी तरह विश्वास ना करें. हर वेबसाइट को ओरिजिनल ना समझें, ओरिजिनल वेबसाइट तक पहुंचना आसान है. वेबसाइट पर जाकर पांच चीजें जैसे कॉन्टैक्ट डिटेल, एडिटोरियल बोर्ड, कॉल फॉर पेपर्स, एरिया, जैसी पांच चीजें चेक करें. फिर वह वेबसाइट स्कोपस या वेब ऑफ साइंस के डेटाबेस में हैं तो वहां जरूर नज़र आएगी, ये पैसे का कारोबार कर एजुकेशन पलीता लगा रहे हैं. 

डॉक्यूमेंट जिसकी हो रही जांच

यूजीसी केयर ने Aut-aut टाइटल वाले पेपर को क्लोन्ड जर्नल करार दिया है लेकिन ये अभी भी मौजूद हैऔर रिसर्च पेपर छपवाने के लिए लोगों से पैसे वसूल रहा है. सुमित का यह भी दावा है कि कोरोना काल में  मेडिकल जर्नल में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के रिसर्च पेपर पब्लिश हो रहे हैं जिनका आपस में कोई रिलेशन नहीं है.

यही वजह है कि विदेशी जर्नल्स में भारतीय रिसर्च पेपर के साइटेशन का प्रतिशत सिर्फ तीन है. क्लोंड या प्रिडेटरी जर्नल्स की वजह से citations का स्कोर बहुत कम है. सुमित Emerald के ब्रैंड एंबेसडर हैं जो फेक, क्लोंज या फिर प्रीडेटरी जर्न्लस के खिलाफ ना केवल मुहिम चला रहे बल्कि ठगों से बचने के लिए हेल्पलाइन भी जारी की है.

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UGC-CARE  empowered committee (UGC-CARE EC) के चेयरमैन प्रोफेसर वीएस चौहान ने बताया कि भारत में प्रेडेटरी जनरल ज्यादा छप रहे हैं लेकिन विकसित देशों की अपेक्षाकृत प्रकाशन की संख्या कम है यह वर्ल्ड वाइड प्रॉब्लम है. ये तभी रुकेगा जब संस्थानों की रैंकिंग और लोगों का प्रमोशन प्रकाशित रिसर्च पेपर्स की संख्या का आधार न बने बल्कि रिसर्च की क्वालिटी हो. रिसर्च स्कॉलर  जब जागरूक होंगे, जल्दी रिसर्च पेपर छपवाने के लालच में न पड़कर रिसर्च में समय देंगे तभी शोध के शिकारियों की  दुकान बंद हो सकती है. 
 
शोध के ये शिकारी इंटरनेट पर ठगी की दुकान कब खोलते और बंद कर देते हैं इसका पता लगाना मुश्किल है. कोरोना काल में जल्दी से रिसर्च पेपर पब्लिश करवाने के चक्कर में शोध के शिकारियों की दुकान इंटरनेट पर बढ़ी है जिसमें खर्चा के नाम पर इनको सिर्फ एक अदद इंटरनेट और कंप्यूटर ही चाहिए और एक झटके में अथाह पैसा मिल जाता है.

 

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