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जन्मदिन: अज़ीम शायर थे मिर्ज़ा ग़ालिब, गूगल ने बनाया डूडल

आज सबसे अजीम शायर का जन्मदिन है, जो खड़े-खड़े ग़ज़लें बनाते थे और ऐसे पढ़ते थे कि महफिलों में भूचाल आ जाते थे. जिन्होंने शायद इस दुनिया के सबसे मुक़म्मल और याद रह जाने वाले शेर कहे. हम बात कर रहे हैं मिर्ज़ा ग़ालिब की, जो आज भी करोड़ों दिलों के पसंदीदा शायर हैं.

मिर्ज़ा ग़ालिब मिर्ज़ा ग़ालिब
मोहित पारीक
  • नई दिल्ली,
  • 27 दिसंबर 2017,
  • अपडेटेड 12:39 PM IST

आज सबसे अजीम शायर का जन्मदिन है, जो खड़े-खड़े ग़ज़लें बनाते थे और ऐसे पढ़ते थे कि महफिलों में भूचाल आ जाते थे. जिन्होंने शायद इस दुनिया के सबसे मुक़म्मल और याद रह जाने वाले शेर कहे. हम बात कर रहे हैं मिर्ज़ा ग़ालिब की, जो आज भी करोड़ों दिलों के पसंदीदा शायर हैं. उनकी कई ग़ज़ल और शेर लोगों को याद हैं, जिसमें 'ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए/इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है' जैसे कई शेर शामिल है.

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शेर-ओ-शायरी की दुनिया के बादशाह, उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का 220वां जन्मदिवस है. सर्च इंजन गूगल ने भी इस मौके पर गूगल डूडल बनाकर उनको सम्मान दिया है. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब था. इस महान शायर का जन्म 27 दिसंबर 1796 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था.

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उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आए थे. उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गए. उन्होंने तीन भाषाओं में पढ़ाई की थी, जिसमें फारसी, उर्दू, अरबी आदि शामिल है.

यूं बनी वो मकबूल ग़ज़ल

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यह उस वक़्त की बात है जब बहादुर शाह ज़फर भारत के शासक थे. ज़ौक उनके दरबार में शाही कवि थे. तब तक मिर्ज़ा ग़ालिब के चर्चे दिल्ली की हर गली में थे. बादशाह सलामत उन्हें सुनना पसंद करते थे लेकिन ज़ौक को शाही कवि होने के नाते अलग रुतबा हासिल था. कहा जाता है कि इसी वजह से ज़ौक और ग़ालिब में 36 का आंकड़ा था.

एक दिन ग़ालिब बाज़ार में बैठे जुआ खेल रहे थे तभी वही से ज़ौक का क़ाफिला निकला. ग़ालिब ने तंज कसते हुए कहा, 'बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता.' इस पर ज़ौक आग बबूला हो उठे पर उन्होंने अपनी पालकी से उतरकर ग़ालिब के मुंह लगना ठीक न समझा. उन्होंने बादशाह सलामत से उनकी शिकायत कर दी. बादशाह ने ग़ालिब को दरबार में पेश होने को कहा.

'वो पूछता है कि गालिब कौन था? कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?'

ख़ैर, गा़लिब हाज़िर हुए. दरबार में सारे शाही दरबारी मौजूद थे. बादशाह ने ग़ालिब से पूछा कि क्या मियां ज़ौक की शिकायत जायज़ है ? ग़ालिब ने बड़ी चालाकी से कहा कि जो ज़ौक ने सुना वो उनकी नई ग़ज़ल का मक़्ता है. इस पर बादशाह सलामत ने ग़ालिब को लगे-हाथ पूरी ग़ज़ल पेश करने का हुक्म दे डाला. फिर क्या था. ग़ालिब ने अपनी जेब से एक कागज़ का टुकड़ा निकाला, उसे कुछ पल तक घूरा, और उसके बाद निकली ये कालजयी ग़ज़ल:

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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े-ग़ुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा, न बर्क़ में ये अदा

कोई बताओ कि वो शोख़े-तुंद-ख़ू क्या है

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