
बसंतर का युद्ध 1971 की लड़ाई की निर्णायक घटनाओं में से एक है. यहां सफलता उन सैनिकों की वजह से मिली, जिन्होंने लैंड माइंस के बीच से रास्ता बनाया. ये सैनिक थे मद्रास इंजीनियर्स ग्रुप के इंजीनियर. इसी मद्रास इंजीनियर्स ग्रुप को मद्रास सैपर्स के नाम से भी जाना जाता है. ये भारतीय सेना का इंजीनियरिंग ग्रुप है.
1971 में एक तरफ बांग्लादेश बन रहा था. दूसरी तरफ, सेना का ध्यान पंजाब से होकर गुजरने वाली एकमात्र सड़क की रक्षा पर था, जो भारत को कश्मीर से जोड़ती थी. इसकी सुरक्षा के लिए, सेना का सूखे बसंतर नाले के दूसरे किनारे तक पहुंचना जरूरी था. बंसतर नाला का एक हिस्सा पाकिस्तान में पड़ता था. दूरी ज्यादा नहीं थी, लेकिन एक समस्या थी.
लैंड माइंस के बीच से बनाना था रास्ता
उस पार पाकिस्तान की ओर लैंड माइंस बिछे हुए थे, जो पैर पड़ते ही फट जाते. अंधेरे में, दुश्मन की गोलीबारी के बीच, लैंड माइंस बेकार कर सुरक्षित रास्ता बनाना जरूरी था. ताकि, टैंक उस नहर को पार कर सकें. उनके पास ज़्यादा समय भी नहीं था. एपिक के रेजिमेंट डायरी की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे में अपने देश और रेजिमेंट के सम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान की परवाह न करते हुए. कुछ सैनिक आगे आए और कुछ ही घंटों में उन्होंने मौत की उस नहर को जीत की राह में बदल दिया. ये सैनिक मद्रास सैपर्स रेजिमेंट के थे.
क्या है मद्रास सैपर्स?
मद्रास सैपर्स का गठन 30 सितंबर, 1780 को किया गया था. इसकी शुरुआत पायनियर से हुई. जब अंग्रेज यहां आए. बंगाल प्रेसीडेंसी की स्थापना की गई.वहां से पायनियर्स शब्द इंजीनियर्स में बदल गया और इंजीनियर्स शब्द इसके साथ जुड़ गया. अब जानते हैं सैपर्स क्या होता है.
कैसा दिया गया ये नाम?
पहले के जमाने में किले बनाए जाते थे तो उसके चारों ओर गहरी खाई खोदी जाती थी, ताकि दुश्मन उसे पार न कर सके. इसलिए जब भी दुश्मन हमला करते थे, तो उन्हें इसे पार करना होता था और इसमें काफी मुश्किल आती थी. इसलिए जब इंजीनियर आए तो उन्होंने इन खाईयों को पार करने के अलग-अलग तरीके अपनाए. ऐसे में जो भी इन खाईयों को हर मुश्किल झेलते हुए भी पार कर जाता था, उन्हें सैपर्स नाम दिया गया. इस तरह सैपर्स शब्द अस्तित्व में आया.
जंग में सबसे पहले जाते हैं और आखिर में निकलते हैं
ब्रिटिश शासन में मद्रास प्रेसीडेंसी के समय से इस रेजिमेंट का मुख्यालय बेंगलुरु में है. इंजीनियर्स एक लड़ाकू सहायता शाखा है. इस रेजिमेंट के लड़ाके युद्ध के मैदान में सबसे पहले प्रवेश करते हैं और युद्ध के मैदान को सबसे आखिर में छोड़ते हैं. इनका आदर्श वाक्य 'सर्वत्र' है. यानी ये हर जगह मौजूद होते हैं. ब्रिटेन रॉयल इंजीनियर्स का आदर्श वाक्य लैटिन शब्द 'यूबिक' से प्रेरित है. सर्वत्र का का अर्थ है 'हर जगह' और इसे सही साबित करते हुए मद्रास सैपर्स रेजिमेंट ने हर जगह लड़ाई लड़ी है, जहां भारतीय सेना ने युद्ध में प्रवेश किया है.
इन तीन काम में होते हैं माहिर
मूल रूप से, किसी भी युद्ध में तीन काम होते हैं. युद्ध में जाना, युद्ध लड़ना, वहां टिके रहना और फिर युद्ध के बाद वापस लौटना. साथ ही दुश्मन को खुद तक नहीं पहुंचने देना. ये तीनों बुनियादी काम इंजीनियर करते हैं. कोर ऑफ इंजीनियर्स और मद्रास सैपर्स का योगदान अब एक बेंचमार्क है.
सबसे जल्दी तैयार कर लेते हैं पुल
ये दुश्मन की बाधाओं के बीच गलियां और पुल बनाते हैं. ताकि अपनी सेना आगे बढ़ सके. साथ ही दुश्मन सेना को रोकने के लिए बाधाएं खड़ी करते हैं. एमईजी सेना को पानी, बिजली और आवास ये तीन बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में माहिर होते हैं, ताकि जवान मोर्चे पर डटे रहे.
कई देशों में इन्हें अपने काम के लिए मिला है सम्मान
कोर ऑफ़ इंजीनियर्स में मद्रास सैपर्स की यही खासियत है कि ये चुपचाप और बड़ी तकनीक से काम करते हैं. वे एक दूसरे को तमिल में 'तम्बी' कहते हैं जिसका मतलब है छोटा भाई. इस रेजिमेंट के सैनिकों ने दुनिया में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं. पूरी दुनिया में मद्रास सैपर्स का सबूत उन्हें दिए जाने वाले युद्ध सम्मान हैं और यही उनकी रेजिमेंट का प्रतीक और गौरव है.
मिस्र के लिए 1801 में स्फिंक्स. असाय के लिए 1803 में हाथी. 1848 में चीन युद्ध के लिए ड्रैगन. 1948 में कश्मीर के लिए जोजी ला युद्ध में बड़ी सींग वाली भेड़ और 1971 में बसंतर की लड़ाई के लिए टैंक. विश्व प्रसिद्ध एमईजी रेजिमेंट (मद्रास इंजीनियर्स ग्रुप) के योद्धाओं ने दो महावीर चक्र, 13 वीर चक्र और तीन कीर्ति चक्र जीते हैं.
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