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क्यों- धर्म की वजह से आपस में लड़ रहे हैं ईरान और सऊदी अरब

क्या आप जानते हैं ईरान और सऊदी अरब इस्लामिक देश होने के बाद भी आपस में क्यों लड़ते हैं. जानें- क्या है वजह.

ईरान के नेता अयातुल्ला सैय्यद अली खामेनी और सऊदी अरब के क्राउंन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ईरान के नेता अयातुल्ला सैय्यद अली खामेनी और सऊदी अरब के क्राउंन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 09 जनवरी 2020,
  • अपडेटेड 10:58 AM IST

  • शिया-सुन्नी में क्या है टकराव की वजह
  • ईरान और सऊदी अरब में पुरानी है दुश्मनी

इस्लामिक देश ईरान और सऊदी अरब का आपसी टकराव काफी पुराना है. अब चिंता ये है कि कहीं दिन पर दिन बढ़ती ये तल्खी खाड़ी देशों के इलाके को वॉर जोन न बना दे. क्षेत्रीय प्रभुत्व को लेकर दो पड़ोसियों की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही. दोनों ही इस्लामिक देश हैं, लेकिन फिर भी इनमें आपसी रार है. इसकी वजहों की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि इनके टकराव की वजह भी कहीं न कहीं धर्म से जुड़ी है. ये टकराव इस्लाम के शिया-सुन्नी पंथ को लेकर है. इन दोनों देशों की धार्मिकता में ईरान शियाओं का देश है तो सऊदी सुन्नी प्रभुत्व वाला है.

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आसान भाषा में समझिए कि ईरान और सऊदी अरब में दुश्मनी क्यों है

आपको बता दें, सऊदी अरब और ईरान लंबे समय से एक दूसरे के विरोधी रहे हैं. दोनों के बीच पिछले कई सालों में हालात गंभीर हो गए हैं. सऊदी अरब और ईरान ये दोनों देश पड़ोसी और लंबे समय से क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ रहे हैं.

बता दें, उनके बीच का दशकों पुराना झगड़ा धार्मिक मतभेदों के कारण बढ़ा है, क्योंकि दोनों इस्लाम के अलग- अलग पंथ को मानते हैं. ये दो पंथ हैं- शिया और सुन्नी. ईरान बड़े पैमाने पर शिया मुस्लिम है, जबकि सऊदी अरब खुद को प्रमुख सुन्नी मुस्लिम शक्ति के रूप में देखता है. ऐसा नहीं है कि ये लड़ाई सिर्फ सऊदी अरब और ईरान में दिखती है, बल्कि ये टकराव ऐसे कई देशों में नजर आता है जिनमें शिया और सुन्नी हैं. ऐसे में कुछ देश ईरान को सपोर्ट करते हैं तो कुछ सऊदी अरब को.

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सऊदी अरब को क्यों माना जाता है मुस्लिम दुनिया का नेता?

ऐतिहासिक रूप से सऊदी अरब इस्लाम के जन्मस्थान के लिए और खुद को मुस्लिम दुनिया के नेता के रूप में देखता रहा है. लेकिन 1979 में ईरान ने इस्लामी क्रांति से सऊदी अरब को चुनौती दी. जिसके बाद एक नए तरह का राज्य बना, जो एक तरह की क्रांतिकारी धर्मतंत्र वाली शासन प्रणाली थी. वे इस मॉडल को दुनिया भर में फैलाने का लक्ष्य रखते थे. आपको बता दें कि बीते 15-16 सालों में ईरान और सऊदी अरब के बीच में मतभेद काफी बढ़ गया है. जो रुकने का नाम नहीं ले रहा है.

जब अमेरिका ने किया इराक पर हमला

वो साल 2003 का था, जब अमेरिका ने आक्रमण कर इराक से सद्दाम हुसैन को गद्दी से हटा दिया जो ईरान का विरोधी था. जिसके बाद ईरान का प्रभाव तब से तेज़ी से बढ़ने लगा. साल 2011 में अरब जगत के कई हिस्सों में आंदोलन हुए जिस वजह से पूरे क्षेत्र में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई. ईरान और सऊदी अरब ने इस मौके का फायदा उठाया. इन दोनों ने अपना प्रभाव और ताकत सीरिया, बहरीन और यमन जैसे देशों में बढ़ाने के लिए किया था.

जानें- कब और कैसे बिगड़ने लगी स्थिति

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दोनों देशों के बीच धीरे- धीरे राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता गर्मा रही थी. क्योंकि ईरान कई तरह से क्षेत्रीय संघर्ष को जीतता हुआ दिख रहा है. वहीं ईरान के आलोचकों का कहना है कि वो इस पूरे क्षेत्र में या तो खुद या अपने करीबियों का प्रभुत्व देखना चाहता है ताकि ईरान से लेकर भूमध्य सागर तक फैले इस भूभाग पर उसका अपना नियंत्रण हो.

आपको बता दें, सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को ईरानी (और रूसी) समर्थन हासिल है. इसी के दम पर उनकी सेना सऊदी अरब के समर्थन वाले विद्रोही समूह को पछाड़ने में सक्षम हो गई है.

अब सऊदी अरब ईरान के प्रभाव को रोकने के लिए पूरी कोशिश कर रहा है. MBS के नाम से मशहूर, सऊदी अरब के युवराज क्राउंन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान ने यमन में जंग छेड़ दी ताकि ईरान का प्रभाव कम हो सके. लेकिन 3 साल बाद उन्हें ये काफी भारी पड़ा.

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