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जेल सुपरिटेंडेंट ने कहा फांसी मुकर्रर है तो बिस्‍मिल ने दिया था ये जवाब

आज उस रणबांकुरे का जन्म दिवस है जिसने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया. सरफरोशी की तमन्ना रखने वाला वो शायर, लेखक, इतिहासकार, साहित्यकार रामप्रसाद बिस्मिल आज भी दुनिया के लिए मिसाल है. उनकी आत्मकथा के जरिये उनके साहस का वो लम्हा महसूस कीजिए जब जेल सुपरिटेंडेंट ने उन्हें वो तार पढ़कर सुनाया जिसमें लिखा था कि उनकी फांसी मुकर्रर है.

फाइल फोटो राम प्रसाद बिस्मि‍ल फाइल फोटो राम प्रसाद बिस्मि‍ल
मानसी मिश्रा
  • नई दिल्ली,
  • 11 जून 2019,
  • अपडेटेड 1:31 PM IST

ये वो दौर था जब क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्‍म‍िल की फांसी की सजा को कम कराने के लिए सब प्रयास कर रहे थे. मदनमोहन मालवीय और असेम्बली के कुछ अन्य सदस्यों ने वाइसराय से मिलकर प्रयत्‍न किया था कि मृत्युदण्ड न दिया जाए. फिर भी कुछ नहीं हुआ और जेलों को तार भेज दिए गए.जेल सुपरिटेंडेंट ने वो तार जब पढ़कर बिस्मिल को सुनाया तो बिस्म‍िल की आंखों में कोई डर नहीं था. उनकी आत्मकथा में उस दौर की घटना हूबहू दर्ज है.

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वो आत्मकथा में लिखते हैं कि जब मुझे सुपरिटेंडेंट जेल ने तार सुनाया तो मैंने भी कह दिया था कि आप अपना काम कीजिए. लेकिन सुपरिटेंडेंट जेल के अधिक कहने पर कि एक तार दया-प्रार्थना का सम्राट के पास भेज दो, क्योंकि यह उन्होंने एक नियम सा बना रखा है कि प्रत्येक फांसी के कैदी की ओर से जिस की भिक्षा की अर्जी वाइसराय के यहां खारिज हो जाती है, वह एक तार सम्राट के नाम से प्रान्तीय सरकार के पास अवश्य भेजते हैं. कोई दूसरा जेल सुपरिटेंडेंट ऐसा नहीं करता. वो तार लिखते समय मेरा कुछ विचार हुआ कि प्रिवी-कौंसिल इंग्लैण्ड में अपील की जाए. आगे उनकी सभी अपीलें और प्रार्थना पत्र खारिज हुए.

बिस्मिल ने नहीं लिखी थी ये कविता,  जानें क्यों जुड़ा उनका नाम

काकोरी कांड में शामिल होने की वजह से अंग्रेजों ने राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 के दिन फांसी की सजा सुनाई थी. स्वभाव से बिस्मिल शायरी पसंद थे. कविताएं उन्हें हमेशा क्रांति के लिए प्रेरित करती थीं. फांसी के तख्ते  पर बिस्मिल ने पटना के अजीमाबाद के मशहूर शायर बिस्मिल अजीमाबादी 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' के कुछ शेर पढ़े. तभी से इस पूरी  नज्म की पहचान राम प्रसाद बिस्मिल से ज्यादा बन गई.

ये थीं वो लाइनें जो बिस्म‍िल ने पढ़ीं

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सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बातचीत,

देखता हूं मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है

ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,

अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है

इतिहास को हमें दर्ज करना ही होगा: बिस्मिल

रामप्रसाद बिस्म‍िल को आने वाले वक्त की आहट पहले ही मिल चुकी थी. तभी वो लिखते हैं कि भारतवर्ष के इतिहास में हमारे प्रयत्‍नों का उल्लेख करना ही पड़ेगा. वहीं वो भारत में क्रांति को लेकर लिखते हैं कि इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भारतवर्ष की राजनैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक किसी प्रकार की परिस्थिति इस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन के पक्ष में नहीं है. इसका कारण यही है कि भारतवासियों में शिक्षा का अभाव है. वे साधारण से साधारण सामाजिक उन्नति करने में भी असमर्थ हैं. फिर राजनैतिक क्रान्ति की बात कौन कहे.

हिंदू मुस्लिम एकता पर ये थी सोच

बिस्मिल हिन्दू-मुस्लिम एकता पर यकीन करते थे. वो कहते थे कि सरकार ने अशफाकउल्ला खां को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया. अशफाकउल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्यसमाजी रामप्रसाद का क्रान्तिकारी दल का हाथ बन सकते हैं, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू मुसलमान अपने निजी छोटे- छोटे फायदों का ख्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते. ये पंक्ति आज भी लोगों में बहुत मशहूर है.

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बिस्म‍िल के बारे में ये भी पढ़ें

बचपन में राम प्रसाद बिस्मिल आर्यसमाज से प्रेरित थे और उसके बाद वे देश की आजादी के मिशन से जुड़ गए.

काकोरी कांड को अंजाम देने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया.

18 महीने तक मुकदमा चलाने के बाद 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई.

राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा के अंत में देशवासियों से एक अंतिम विनय किया था. 'जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें. इसी से सबका भला होगा.

राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'काकोरी के शहीद' के नाम से उनके शहीद होने के बाद 1928 में छापी थी.

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