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जब वकालत की पढ़ाई छूटी तो कर डाला यह करिश्मा...

श्रीरंगपट्टनम के रमेश को आज ढेर सारे लोग जानते-पहचानते हैं लेकिन इस पहचान को हासिल करने के क्रम में उन्होंने बहुत मेहनत की है. एक लॉ ग्रेजुएट जिसने बीच में पढ़ाई छोड़ दी और पर्यावरण को हरा-भरा करने के मुहिम में लग गया. पढ़ें उनके संघर्षों की कहानी...

Ramesh of Srirangpatna Ramesh of Srirangpatna
विष्णु नारायण
  • श्रीरंगपट्टनम,
  • 16 जून 2016,
  • अपडेटेड 5:37 PM IST

कहते हैं कि मनुष्य गर चाह ले तो पहाड़ का सीना चीर सकता है, नदी की धार मोड़ सकता है, समंदर पर बांध बना सकता है और बंजर में भी लहलहाती फसल उगा सकता है. आज आप श्रीरंगपट्टनम के कारीघट्टा पहाड़ियों पर हरियाली का साम्राज्य देख सकते हैं, लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था. यहां कभी धूल भरी आंधियां चला करती थीं, कंकरीली और पथरीली पहाड़ी पर पानी का एक सोता तक न था, और इस परिस्थिति से लड़ने का जिम्मा रमेश नामक एक शख्स ने अकेले ही उठाया. आज वहां चिड़ियों की चहचहाहट है और हरियाली का साम्राज्य...

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रमेश को ऐसा करने में 5 साल लगे...
ऐसा तो हम सभी का मानना है कि चाय की चुस्कियों पर सिस्टम पर सारे दोष मढ़ना सबसे आसान काम है, लेकिन उन्हें बदलने के लिए जी-जान से जुट जाना और बात है. रमेश दूजे किस्म के इंसान हैं. वे 40 साल के हैं जिसने स्नातक तक पढ़ाई की है. वे लॉ की पढ़ाई में लगे थे कि उन्हें घर की आर्थिक स्थिति के मद्देनजर पढ़ाई छोड़नी पड़ी. वे श्रीरंगपट्टनम में मिनरल वॉटर सप्लाई के धंधे में लग गए. इस दौरान वे कारीघट्टा के वेंकटरामास्वामी मंदिर में लगातार आते जाते रहते थे. वे जब भी उन पहाड़ियों पर आते-जाते तो वहां की दुर्दशा देख कर व्यथित होते. एक दिन उन्होंने इसके बाबत कुछ अच्छा करने का निर्णय लिया.

अनोखे अंदाज में सिंचाई का लिया सहारा...
रमेश यहां की कंकरीली-पथरीली जमीन और यहां की स्थिति को देख कर काफी परेशान रहते थे. एक दिन उन्होंने कुछ पेड़ों को हरा-भरा रखने के लिए मिट्टी के थाले बनाए लेकिन उन्हें कुछ खास फायदा नहीं दिखा. लोगों ने उन्हें ड्रिप से सिंचाई की भी सलाह दी लेकिन वे इस बात को बखूबी समझते थे कि 5 से 8 वर्ग किलोमीटर में ड्रिप सिंचाई करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं है.
इसी बीच वे एक दिन मिनरल वॉटर की खराब हो रही खाली कैन्स को ठिकाने लगा रहे थे कि उन्हें लगा कि यदि वे इन खाली कैन्स को सिंचाई में इस्तेमाल कर लें तो फिर बात ही बन जाए. इसमें सिर्फ रस्सियों का खर्च ही आएगा.

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कैन्स को काट कर की सिंचाई की व्यवस्था...
वे इन सारे कैन्स को काट कर पेड़ के तने से कुछ ऐसे टिकाते हैं कि उन कैन्स में रखा गया पानी पेड़ की जड़ों पर धीरे-धीरे टपके. ऐसा करने से ज्यादा पानी भी नहीं खर्च होता और सही सिंचाई भी हो जाती है. वे इस तरह कम पानी के खर्च पर भी लंबे समय तक पेड़ों की सिंचाई करते रहते हैं.

धीरे-धीरे मुहिम रंग लाने लगी...
उनका जादू धीरे-धीरे ही सही मगर असर करने लगा. अब चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी. हरियाली की वजह से आसपास और दूर-दूर के पक्षी भी आकर इन वादियों में डेरा डालने लगे. इससे पहले यहां रहने वाले तमाम जानवर और पक्षी इन वादियों से पलायन कर गए थे. वे अब फिर से उन्हें वापस लिवा लाए हैं.

अब एकल प्रयास और सफलता भला इसे नहीं कहेंगे तो फिर किसे कहेंगे. आखिर ऐसे लोगों के प्रयासों और सफलताओं पर ही तो लोग खड़े होकर तालियां बजाते हैं.

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