
दिल्ली में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. आज स्पेशल सीरीज में हम दिल्ली के उस मुख्यमंत्री के बारे में आपको बताएंगे, जिसकी राजधानी के गांवों में मजबूत पकड़ थी. तमाम विवादों के बाद उसने सीएम पद पर कब्जा जमाया था लेकिन उसकी कुर्सी प्याज की महंगाई ने छीन ली थी. दरअसल, हम बात कर रहे हैं दिल्ली के चौथे मुख्यमंत्री रहे साहिब सिंह वर्मा की. आइए सबसे पहले जानते हैं साहिब सिंह वर्मा के शुरुआती जीवन के बारे में...
प्रोफेसर की सलाह पर नाम के आगे वर्मा जोड़ा
साहिब सिंह का जन्म दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर बसे मुंडका गांव में एक जाट परिवार में हुआ था. उन्होंने लाइब्रेरी साइंस में पीएचडी की थी और बतौर लाइब्रेरियन काम भी किया था. बताते हैं कि एक प्रोफेसर की सलाह पर साहिब सिंह ने अपने नाम के आगे वर्मा जोड़ा था. साहिब सिंह वर्मा शुरुआत से ही RSS से जुड़े थे साथ ही वह वर्ल्ड जाट आर्यन फाउंडेशन के प्रेसिडेंट भी थे.
ऐसे शुरू हुआ सियासी सफर...
बात साल 1977 की है, जब देश में मोरार जी देसाई की सरकार थी. उसी समय दिल्ली में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए थे. इसी चुनाव में साहिब सिंह वर्मा ने अपना राजनीतिक डेब्यू किया था. वह केशवपुरम वॉर्ड से पार्षद चुने गए थे. इसके बाद दिल्ली की स्थानीय राजनीति में साहिब सिंह वर्मा का नाम चलने लगा था.
'दिल्ली के गांवो के नेता'
दिल्ली में साहिब सिंह वर्मा की मजबूत पकड़ को देखते हुए उन्हें 1991 में बाहरी दिल्ली लोकसभा सीट से टिकट दिया गया. उनके सामने चुनाव लड़ रहे थे संजय गांधी के करीबी माने जाने वाले सज्जन कुमार. इस चुनाव में सज्जन कुमार की भारी जीत हुई लेकिन चुनाव हार कर भी साहिब सिंह वर्मा छा गए. इस चुनाव ने साहिब सिंह वर्मा को दिल्ली के गांवों के नेता के रूप में सर्वमान्य पहचान दी.
फिर आया 1993 का विधानसभा चुनाव
लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली में साल 1993 में विधानसभा के चुनाव होने थे. साहिब सिंह वर्मा को शालीमार बाग से टिकट दिया गया. साहिब सिंह वर्मा ने कांग्रेस उम्मीदवार को 21 हजार वोटों के अंतर से हरा दिया. इस चुनाव में बीजेपी ने दिल्ली के भीतर कमाल का प्रदर्शन किया और 70 में से 49 सीटों पर जीत हासिल की.
खुराना सरकार में नंबर-2 रहे साहिब वर्मा
बीजेपी की जीत के बाद मदन लाल खुराना को दिल्ली सीएम की कुर्सी मिली. लेकिन साहिब सिंह वर्मा के कद को देखते हुए उन्हें नंबर-2 की पोस्ट शिक्षा और विकास मंत्री बनाया गया. लेकिन सरकार के गठन के कुछ दिन बाद से ही खुराना और साहिब सिंह वर्मा के बीच मतभेद की खबरें आने लगीं. शिक्षकों की भर्ती और नेताओं की खेमेबाजी को लेकर दोनों के बीच सियासी रस्साकसी चल रही थी.
3 साल बाद बदल गई कहानी
1996 आते-आते दिल्ली की सियासत में भूचाल आ गया. 16 जनवरी 1996 को जैन हवाला केस में चार्जशीट दाखिल की गई. इसके बाद बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी को सांसद पद से इस्तीफा देना पड़. इसमें दिल्ली के सीएम खुराना का नाम भी सामने आया. आरोप थे कि डायरी में खुराना के नाम के आगे 3 लाख रुपये की एंट्री थी. अब मदनलाल खुराना पर भी इस्तीफे का दबाव बढ़ने लगा. आखिरकार उन्हें सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा.
खुल गई साहिब सिंह वर्मा की किस्मत
मदनलाल खुराना के इस्तीफे के बाद साहिब सिंह वर्मा की सियासी किस्मत खुल गई. उस वक्त सीएम को लेकर दो नामों पर सबसे ज्यादा बहस चल रही थी. एक नाम था सुषमा स्वराज का तो दूसरा नाम था खुराना सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे हर्षवर्धन का.
केंद्रीय कमान में कुछ लोग सुषमा का नाम आगे बढ़ा रहे थे. जबकि खुराना खेमा हर्षवर्धन को सीएम बनाने के पक्ष में था. 23 फरवरी को विधायकों की बैठक बुलाई गई. लेकिन यहां कहानी कुछ और ही सामने आई. बैठक में 31 विधायकों ने तीसरे विकल्प को चुना और साहिब सिंह वर्मा के नाम पर मुहर लगा दी. आखिरकार आलाकमान को झुकना पड़ा. इस तरह से साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के चौथे मुख्यमंत्री चुन लिए गए थे.
आखिरकार 26 फरवरी 1996 को साहिब सिंह वर्मा ने सीएम पद की शपथ ले ली. लेकिन बीजेपी ने मदनलाल खुराना को दिल्ली बीजेपी विधायक दल का चेयरमैन बना दिया. वहीं, साहिब वर्मा सरकार को कहा गया कि खुराना के समय जो मंत्रिमंडल था उससे छेड़छाड़ नहीं की जाएगी.
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साहिब सिंह वर्मा के सामने बड़ी चुनौती तब आई जब खुराना को जैन हवाला मामले में क्लीनचिट मिल गई. अब उनके समर्थकों ने फिर सीएम को लेकर दबाव डालना शुरू कर दिया. लेकिन अब साहिब सिंह वर्मा अपनी जड़े जमा चुके थे. दोनों नेताओं में फिर टकराव तेज हो गया. खेमेबाजी अब खुलेआम होने लगी थी. खुराना और साहिब गुट खुलकर एक दूसरे पर आरोप मढ़ रहे थे. इसी बीच दिल्ली में उपहार सिनेमा, यमुना में स्कूली बच्चों की बस गिरना समेत कई बड़े हादसे हुए. जिसने साहिब सरकार की छवि को धूमिल किया. लेकिन इसी बीच सबसे ज्यादा चर्चा महंगाई को लेकर शुरू हो गई.
प्याज की महंगाई और चली गई सीएम की कुर्सी
दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्याज की किल्लत हो गई. दाम आसमान छू रहे थे. प्याज 60-80 रुपये किलो बिक रही थी. इसी बीच पत्रकारों ने जब सीएम से पूछा कि गरीब आदमी प्याज के बारे में सोच भी नहीं सकता? तो साहिब सिंह वर्मा ने कहा, 'गरीब आदमी प्याज खाता ही नहीं है'. सीएम के इस बयान को कांग्रेस ने लपक लिया. शीला दीक्षित ने इसका खूब विरोध किया. महंगाई के खिलाफ लोगों का गुस्सा और सामने चुनाव देखते हुए बीजेपी ने एक दांव चला. विधानसभा चुनाव से ठीक दो महीने पहले ही साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा.
प्याज की महंगाई के विरोध में साहिब सिंह वर्मा ने इस्तीफा दिया तो 12 अक्तूबर 1998 को सुषमा स्वराज सीएम चुन ली गईं. खुद साहिब सिंह वर्मा ने उनके नाम का प्रस्ताव रखा.
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1998 के चुनाव में क्या हुआ
कमाल की बात ये थी की साहिब सिंह वर्मा ने 1998 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा. हाल ये हुआ कि बीजेपी महज 15 सीटों पर सिमट गई और सत्ता से बाहर हो गई. उस वक्त दिल्ली में तीन धड़े साफ दिख रहे थे. खुराना, साहिब और सुषमा...
लेकिन कुछ ही महीनों बाद जब लोकसभा के चुनाव हुए तो बीजेपी ने दिल्ली की सभी 7 सीटें जीत लीं. इसमें एक नाम साहिब सिंह वर्मा का भी था. जो बाहरी दिल्ली से सांसद बन चुके थे और 2 लाख के अंतर से कांग्रेस उम्मीदवार को हराया था. लेकिन केंद्रीय मंत्री बनने के लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा. आखिरकार वाजपेई सरकार में 2002 में उन्हें श्रम मंत्री बनाया गया. ईपीएफ की ब्याज दरों में कटौती के प्रस्ताव के खिलाफ अड़ने पर उन्हें 'अ बुल इन चाइन शॉप' कहा गया. हालांकि, 2004 के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2007 में एक सड़क हादसे में साहिब सिंह वर्मा का 64 साल की उम्र में निधन हो गया.
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