
साल 2008. दिल्ली फिर विधानसभा चुनाव के लिए तैयार थी. सत्ता में कांग्रेस थी और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित. विपक्ष में बैठी बीजेपी जीत के लिए संघर्ष तो कर रही थी, लेकिन बिखराव थम नहीं रहा था और दिग्गज नेता किनारे लगा दिए गए थे. दिलचस्प यह है कि ये चुनाव परिसीमन (Delimitation) के ठीक बाद हुए थे. यानी दिल्ली के राजनीतिक भूगोल और चुनावी गणित में बड़ा बदलाव हो चुका था. कई सीटों के नक्शे और उनका जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया था, जिससे राजनीतिक दलों को अपनी रणनीतियों में बदलाव करना पड़ा. हालांकि, नतीजे आए तो सबसे चौंकाने वाली एंट्री मायावती की पार्टी बसपा की रही. दिल्ली में बसपा ने पहली बार जीत का स्वाद चखा और 2 सीटें हासिल कीं. 14 फीसदी वोट शेयर रहा.
परिसीमन के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने जीत की हैट्रिक लगाई और 43 सीटें हासिल की. 40.3% वोट प्रतिशत रहा. बीजेपी ने 23 सीटें जीतीं और 36.3% वोट शेयर हासिल किया. एक निर्दलीय और एक सीट पर लोक जन शक्ति पार्टी को जीत मिली. जानिए कैसा रहा था दिल्ली विधानसभा 2008 का चुनाव...
711 उम्मीदवारों की हो गई जमानत जब्त
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2008 में बीजेपी, कांग्रेस और निर्दलीय समेत 69 पार्टियों ने उम्मीदवार उतारे थे. कुल 875 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और इनमें 711 की जमानत जब्त हो गई थी. यानी 81% उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाए थे. इसमें छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा थी. जमानत जब्त तब होती है जब कोई उम्मीदवार कुल वैध मतों का छठा हिस्सा (16.67%) भी हासिल नहीं कर पाता.
चुनाव में सीधा मुकाबला कांग्रेस बनाम बीजेपी के बीच रहा. 5 सीटों पर बसपा दूसरे नंबर पर रही. निर्दलीय, एनसीपी, आरजेडी, शिअद (सिमरनजीत) एक-एक सीट पर पीछे रही. बाकी पार्टियों के उम्मीदवार मैदान में नहीं टिक पाए और अपनी जमानत राशि गंवा दी.
घटता जा रहा था कांग्रेस की जीत का ग्राफ...
लगातार तीसरी जीत के बाद दिल्ली में कांग्रेस का दबदबा बढ़ गया. शीला दीक्षित ने अपने नाम नया रिकॉर्ड दर्ज करवा लिया. हालांकि, कांग्रेस की इस जीत में 'चेतावनी' के संकेत भी छिपे थे. पार्टी की जीत का ग्राफ लगातार गिर रहा था. 2008 में कांग्रेस को 4 सीटों का नुकसान हुआ. उससे पहले 2003 में पांच सीटों का नुकसान हुआ था. 1998 में कांग्रेस ने रिकॉर्ड 52 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यानी 10 साल के दरम्यान कांग्रेस 52 से 43 सीटों वाली पार्टी बन गई थी. वोट शेयर भी उतनी तेजी से नीचे गिर रहा था. 2008 में 40.3 प्रतिशत वोट शेयर रहा. जबकि 1998 में 47.8 प्रतिशत वोट शेयर था. यानी 7.5 प्रतिशत वोटर्स ने भी कांग्रेस से दूरी बना ली थी.
वापसी करने लगी थी बीजेपी
बीजेपी लगातार तीसरी बार हारी और इसका कारण उसकी अंदरुनी राजनीति रहा. हालांकि, उसका वोट शेयर और सीटों में इजाफा हो रहा था. 1998 में बीजेपी 15 सीटों पर सिमट गई थी और 34 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 2003 में बीजेपी ने 20 सीटें जीतीं और 35.2 वोट शेयर रहा. 2013 में 23 सीटों जीतीं और 36.3 वोट शेयर रहा. इससे पहले 1993 के पहले चुनाव में बीजेपी ने 49 सीटें जीती थीं और 42.80 फीसदी वोट शेयर हासिल किया था. दिल्ली में कुल 70 सीटें हैं और बहुमत के लिए 36 सीटें जीतना जरूरी है.
कैसा था दिल्ली चुनाव?
2008 के दिल्ली चुनाव में 1,07,22,979 वोटर्स रजिस्टर्ड थे. 61 लाख 77 हजार 342 लोगों ने मतदान किया. 57.6% वोटिंग हुई. कांग्रेस की जीत का बड़ा श्रेय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को दिया गया, जिन्होंने दिल्ली में बुनियादी ढांचे, मेट्रो विस्तार और सड़कों के विकास पर काम किया. बीजेपी के लिए यह चुनाव निराशाजनक रहा और वो कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में विफल रही. जबकि बसपा का उभार हुआ और उसने पहली बार दिल्ली चुनाव में 2 सीटें जीतीं, जिससे उसके बढ़ते प्रभाव का संकेत मिला. दिल्ली के राजेंद्र नगर में बीजेपी उम्मीदवार पूरन चंद योगी के निधन के बाद चुनाव टाल दिए गए थे. बाद में वहां वोटिंग हुई और कांग्रेस के रमाकांत गोस्वामी ने जीत हासिल की. गोस्वामी 2003 में पटेलनगर से जीते थे.
फेल हो गया विजय मल्होत्रा का दांव?
कांग्रेस से शीला दीक्षित और बीजेपी से विजय कुमार मल्होत्रा सीएम फेस थे. दिल्ली में ये चौथा चुनाव था. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. हर्षवर्धन भी सीएम फेस की रेस में थे. लेकिन पार्टी ने मल्होत्रा पर दांव लगाया. इस चुनाव में भी कांग्रेस की शीला दीक्षित सब पर भारी पड़ीं. बीजेपी का विजय कुमार मल्होत्रा वाला फेल हो गया और 23 सीटों से संतोष करना पड़ा और तीन सीटें अन्य को मिलीं. इस तरह शीला दीक्षित की दिल्ली में जीत की हैट्रिक ने उनका राजनीतिक कद बहुत ऊंचा कर दिया. वे देश की पहली ऐसी महिला मुख्यमंत्री बनीं, जिनके नेतृत्व में किसी पार्टी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीत हासिल की हो.
परिसीमन के बाद बदल गए थे चुनावी समीकरण
इस चुनाव से पहले लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन हुआ था. लोकसभा सीटों के नाम बदल गए थे और हर लोकसभा सीट में 10 विधानसभा सीटों को रखा गया था. अनुसूचित जाति के लिए एक सीट घटी और 12 रह गईं. पहले पटपड़गंज पहले रिजर्व सीट थी और फिर सामान्य हो गई. परिसीमन में इसका ज्यादातर हिस्सा कोंडली विधानसभा क्षेत्र में चला गया. इस सीट से बीजेपी (ज्ञानचंद) ने सिर्फ एक बार 1993 में जीत हासिल की. 2008 में कांग्रेस नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अनिल कुमार यहां से विधायक बने.
दिल्ली चुनाव में क्या मुद्दे थे?
2008 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस सरकार पर कई मोर्चों पर विफलता का आरोप लगाया और अपने अभियान को आक्रामक तरीके से चलाया. बीजेपी ने महंगाई और खासकर पेट्रोल, डीजल, और जरूरी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया. बिजली और पानी की बढ़ती कीमतों को लेकर कांग्रेस सरकार को घेरा. कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और इसे विकास में बाधा बताया. दिल्ली में बिजली कटौती और पानी की आपूर्ति में कमी को लेकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की. 2008 में दिल्ली चुनाव में यमुना नदी की सफाई और प्रदूषण भी मुद्दा रहा था और बीजेपी ने इसे अपने एजेंडे में शामिल किया. बीजेपी ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को बेहतर आवास देने का वादा किया था. इसके साथ ही केंद्र में यूपीए सरकार की नीतियों को भी निशाने पर रखा और उसे दिल्ली की समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया. हालांकि, बड़े मुद्दों को उठाने की बजाय बीजेपी आपसी फूट में ही उलझी रही.
कांग्रेस ने क्या वादे किए थे?
जबकि कांग्रेस ने अपने 10 साल के कार्यकाल में किए गए विकास कार्यों को प्रमुखता से जनता के बीच रखा. शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने एक सकारात्मक अभियान चलाया. शीला दीक्षित सरकार ने दिल्ली के बुनियादी ढांचे, जैसे सड़कें, फ्लाईओवर, और सिग्नल-फ्री ट्रैफिक व्यवस्था को अपनी उपलब्धि बताया. दिल्ली मेट्रो का विस्तार और उसे सफलतापूर्वक लागू करने को बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया गया. झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों के लिए पुनर्वास योजनाएं और सस्ती आवास योजनाओं को प्रचारित किया. कॉलोनियों के नियमितीकरण का वादा किया ताकि कई अवैध कॉलोनियों को वैधता मिल सके. सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने का दावा किया गया. महिलाओं की सुरक्षा और उनके लिए विशेष योजनाओं को कांग्रेस ने अपनी उपलब्धियों में शामिल किया. कॉमनवेल्थ गेम्स का निर्माण कार्य भी तब तक शुरू हो गया था और जनता को विकास होता नजर आ रहा था.
2008 के नतीजे कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत थे या बीजेपी के लिए राहत?
लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटना कांग्रेस और शीला दीक्षित के लिए एक बड़ी राजनीतिक जीत माना गया. दिल्ली में मेट्रो का विस्तार, सड़कों और फ्लाईओवर के निर्माण कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हुए. विकास कार्यों का जोर वोटर्स को आकर्षित करने में सफल रहा. यह कांग्रेस के लिए एक अच्छा संकेत था कि शहरी मतदाता उनके विकास आधारित एजेंडे का समर्थन कर रहे थे. यह जीत 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए मनोबल बढ़ाने वाली थी. दिल्ली जैसे प्रमुख शहरी क्षेत्र में जीत का मतलब था कि कांग्रेस का जनाधार अब भी मजबूत है.
बीजेपी के पास नहीं था प्रभावी चेहरा
वहीं, बीजेपी के लिए यह हार चिंता का विषय थी. महंगाई, भ्रष्टाचार और बिजली-पानी जैसे मुद्दों को बीजेपी ने जोर-शोर से उठाया, लेकिन वे जनता के बीच असर नहीं डाल पाए. बीजेपी दिल्ली में कांग्रेस सरकार की विकास उपलब्धियों का तोड़ निकालने में विफल रही. दरअसल, बीजेपी के पास कांग्रेस की शीला दीक्षित जैसा कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो वोटर्स को प्रभावित कर सके और संगठन का नेतृत्व में सर्वमान्य हो. इससे पार्टी का अभियान कमजोर पड़ा. दिल्ली बीजेपी में गुटबाजी और एकजुटता की कमी पार्टी के प्रदर्शन पर असर डालने वाले फैक्टर्स में से एक थी.
'दिल्ली को चाहिए ठोकस समाधान और प्लानिंग'
हालांकि बीजेपी ने 23 सीटें जीतीं, जो 2003 के 20 सीटों के मुकाबले थोड़ी बढ़ोतरी थी, लेकिन यह संख्या सत्ता के करीब नहीं थी. इससे यह संकेत मिला कि बीजेपी ने कुछ स्तर पर कांग्रेस को चुनौती देने की कोशिश की, लेकिन वह पूरी तरह सफल नहीं हो सकी. बीजेपी को यह समझना पड़ा कि शहरी वोटर्स सिर्फ आलोचना के आधार पर वोट नहीं देंगे, उन्हें ठोस समाधान और योजनाएं चाहिए.
2008 तक मदन लाल खुराना सक्रिय राजनीति से काफी हद तक दूर हो चुके थे. खुराना को बीजेपी के भीतर गुटबाजी और नेतृत्व विवादों के कारण किनारे कर दिया गया था. खुराना ने पहले कुछ मुद्दों पर बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ बयान दिए थे, जिससे उनकी भूमिका कम कर दी गई थी.
वहीं, साहिब सिंह वर्मा का 30 जून 2007 को एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया था. बीजेपी के लिए यह एक बड़ा झटका था. क्योंकि वे पार्टी के लिए ग्रामीण और बाहरी दिल्ली के वोटरों को आकर्षित करने वाले प्रमुख नेता थे. चुनाव में पार्टी को एक महत्वपूर्ण चेहरा और जमीनी नेतृत्व खोना पड़ा. पार्टी के पास कोई ऐसा लोकप्रिय चेहरा नहीं था जो शहरी और ग्रामीण, दोनों वोटर्स को आकर्षित कर सके.