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दिल्ली में अब तक सात विधानसभा चुनाव हुए हैं और इन सभी चुनाव के किस्से और नतीजे रोचक और दिलचस्प रहे हैं. हम सीरीज के जरिए सिलसिलेवार सातों चुनावों की जंग के बारे में बता रहे हैं. आज सीरीज का दूसरा पड़ाव है. यानी 1998 के चुनाव नतीजे की बारी है. इस चुनाव में सत्तारूढ़ बीजेपी से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने भी महिला कार्ड खेला और शीला दीक्षित बनाम सुषमा स्वराज की लड़ाई को रोचक बना दिया. कांग्रेस ने शीला दीक्षित के सहारे प्रचंड बहुमत हासिल किया और इस जंग के साथ दिल्ली का 15 साल का मुस्तकबिल भी तय हो गया. जानिए कैसा रहा था 1998 का चुनाव....
दिल्ली में साल 1998 के आखिरी में दूसरी बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे थे. प्याज के दाम आसमान छू रहे थे. 60-80 रुपए किलो. लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी जगजाहिर थी. विपक्ष को भी हमले करने का मौका मिल गया था. दिल्ली में बीजेपी की सरकार थी और मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा थे. संगठन में भी अंदरखाने कलह थी. बीजेपी को लगा कि चुनाव में जाने से पहले अगर सीएम फेस बदल दिया जाए तो संभवत: लोगों का गुस्सा कम होगा और इसका चुनावी नतीजों पर असर नहीं पड़ेगा. उस समय तक पार्टी एक मुख्यमंत्री (मदन लाल खुराना) बदल चुकी थी.
BJP ने महिला कार्ड खेला, लेकिन चला नहीं...
आखिरकार बीजेपी ने बड़ा दांव खेला और चुनाव से ठीक 50 दिन पहले एक बार फिर सीएम बदल दिया. इस बार साफ-स्वच्छ और तेजतर्रार छवि की माने जाने वालीं सुषमा स्वराज को दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बना दिया. बीजेपी की रणनीति थी कि सुषमा नया चेहरा हैं और संगठन में भी सर्वमान्य हैं. किसी तरह की गुटबाजी का हिस्सा नहीं हैं. ऐसे में जमीन स्तर से लेकर वरिष्ठ नेता तक मिलकर काम करेंगे और कुछ सीटों का नुकसान उठाकर सत्ता में वापसी कर सकते हैं. हालांकि, ऐसा हुआ नहीं.
दो महिलाओं के बीच पहली बार जंग हुई...
कांग्रेस ने भी बीजेपी की काट ढूंढ़ी और शीला दीक्षित को चेहरा घोषित कर दिया. शीला, यूपी की बहू थीं और पंजाब की बेटी. कांग्रेस ने समीकरण साधे और एंटी इनकम्बेंसी का पूरा फायदा उठाया. कांग्रेस का दांव सटीक भी साबित हुआ. उस समय शीला दीक्षित कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष थीं. और यह पहली बार था, जब बड़ी पार्टियों की तरफ से दिल्ली का चुनाव दो महिलाओं के बीच हो रहा था और इस जंग में शीला दीक्षित, बीजेपी की सुषमा स्वराज पर भारी पड़ीं.
क्यों हार गई थी बीजेपी?
राजनीतिक जानकारों ने बीजेपी की हार के कारण गिनाए और तर्क दिया कि सरकार के प्रति जनता में नाराजगी थी और बीजेपी का वोट बैंक भी छिटक गया है. यह भी कहा गया कि गरीब और मध्यम वर्ग ने बीजेपी को पसंद नहीं किया. युवा, शिक्षित और सवर्ण ने भी पार्टी से दूरी बनाई और यही पार्टी का पारंपरिक आधार वोट बैंक है. वहीं, कांग्रेस को दलित और मुस्लिम वोटर्स ने जबरदस्त समर्थन दिया. बीजेपी से छिटके वोटों के साथ आने से कांग्रेस अपना माहौल बनाने में कामयाब रही.
चुनाव में क्या मुद्दे थे?
दरअसल, चुनाव से पहले दिल्ली में प्याज की महंगाई से लोगों में उबाल देखने को मिल रहा था. शहर में महंगाई भी परेशान कर रही थी और बिजली-पानी का मुद्दा भी बीजेपी की गले में फांस बन गया था. दिल्ली के लोगों को उस समय बिजली, पानी और परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं की भारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था. महंगाई, विशेष रूप से जरूरी सामान की बढ़ती कीमतें, जनता के बीच एक बड़ा मुद्दा बन गई थीं.
बिजली कटौती और अनियमित आपूर्ति एक प्रमुख समस्या थी. बीजेपी सरकार इस समस्या को हल करने में विफल रही, जिससे जनता में असंतोष बढ़ा. इसके अलावा, बीजेपी की छवि शहरी प्रशासन में प्रभावी काम ना कर पाने वाली सरकार के रूप में बनी और भ्रष्टाचार और निष्क्रियता के आरोपों ने बीजेपी की छवि को नुकसान पहुंचाया. इसके साथ ही मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा को चुनाव से ठीक पहले हटाकर सुषमा स्वराज को सीएम बनाना भी बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हुआ.
सुषमा ने कैसे संभाली थी दिल्ली की कमान?
हालांकि, सुषमा स्वराज ने जीत के लिए पूरा जोर लगाया और उन्होंने अक्टूबर 1998 में दिल्ली की कमान संभालते ही सबसे पहले प्याज की कीमतों के मोर्चे पर तेजी से काम किया और इस पर विचार करने के लिए एक कमेटी गठित की. उन्होंने प्याज वितरण के लिए वैन लगाने के भी आदेश दिए. दिल्ली पुलिस मुख्यमंत्री के अधीन नहीं थी, इसके बावजूद वो पुलिस थानों का निरीक्षण करती थीं, ताकि यह देख सकें कि पुलिस लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए काम कर रही है या नहीं.
दरअसल, सुषमा राजनीतिक नौसिखिया नहीं थीं. वे 1990-1996 तक राज्यसभा सांसद भी रहीं थीं. 1979 में 27 साल की उम्र में वे हरियाणा की बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बन गई थीं और दो बार की विधायक रह चुकी थीं. उन्होंने देवी लाल सरकार में शिक्षा समेत कई मंत्रालय संभाले थे. यानी अनुभवी सुषमा के प्रयासों के बावजूद बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा. चार साल की सत्ता विरोधी लहर और प्याज की बढ़ती कीमतों ने बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचाया.
कैसे हुई शीला दीक्षित की दिल्ली में एंट्री?
90 के दशक में दिल्ली में बीजेपी मजबूत होती जा रही थी और कांग्रेस बिखर रही थी. 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने दिल्ली में 49 सीटें जीतीं और 42.80 फीसदी वोट शेयर किया. उसके बाद 1996 के लोकसभा चुनाव हुए तो बीजेपी का प्रदर्शन कमजोर नहीं हुआ और पार्टी के 5 सांसद चुनाव जीते. कांग्रेस को दो सीटों पर जीत मिली. 1996 में केंद्र की नरिसम्हा राव सरकार जाने के बाद कांग्रेस की चिंता और बढ़ गई. इस चुनाव में बीजेपी और जनता दल ने भारी बढ़त हासिल की और बीजेपी ने गठबंधन सरकार बनाई.
महिला आंदोलन का चेहरा बन गई थीं शीला दीक्षित
इस बीच, कांग्रेस का संगठन जमीन पर तेजी से बिखरने लगा. दिल्ली में नेतृत्व का संकट गहरा गया. अप्रैल 1998 में जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली, तब पार्टी की सियासी हालत कमजोर थी. सामने लोकसभा और फिर पांच महीने बाद बड़ी परीक्षा दिल्ली चुनाव थे. बिखरी कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता नहीं था, जो संगठन को नई धार दे सके. तब सोनिया गांधी ने प्रदेश अध्यक्ष की कमान एक ऐसे चेहरे को सौंपी, जो भले दिल्ली का नहीं था, लेकिन यहां राजनीति से अनजान भी नहीं था. उस समय शीला दीक्षित उत्तर प्रदेश में सियासी सफर की शुरुआत कर चुकी थीं और महिलाओं के खिलाफ आंदोलन में बड़ा चेहरा बन गई थीं.
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शीला ने दिल्ली की सड़कों पर उतरकर संघर्ष किया
1998 में शीला दीक्षित को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था. उसी वर्ष हुए आम चुनाव में उन्होंने पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा. हालांकि, उन्हें बीजेपी के लाल बिहारी तिवारी के हाथों 45 हजार 362 वोटों से हार का सामना करना पड़ा था. आम चुनाव में हार के बाद शीला दीक्षित ने दिल्ली के विधानसभा चुनाव पर फोकस किया और संगठन में निचले स्तर तक पकड़ बनाई. दिल्ली की तत्कालीन बीजेपी सरकार के खिलाफ कई आंदोलनों का नेतृत्व किया. प्याज की बढ़ती कीमत के मुद्दे पर सड़क पर उतरकर संघर्ष किया और शीला का यह संघर्ष रंग लाया.
और चल पड़ा कांग्रेस की जीत का सिलसिला
शीला खुद गोल मार्किट सीट से चुनाव में उतरीं और बीजेपी के दिग्गज उम्मीदवार और क्रिकेटर रहे कीर्ति आजाद को 5667 वोटों से हरा दिया. उसके बाद दिल्ली में लगातार तीन बार शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस को जीत मिली और 1998 की जीत का कारवां 2003 और 2008 में भी चलता रहा.
1970 के दशक की शुरुआत में शीला दीक्षित यंग वीमेन एसोसिएशन की अध्यक्ष थीं और तब उन्होंने दिल्ली में कामकाजी महिलाओं के लिए दो बड़े छात्रावासों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. 1984 के आम चुनाव में शीला दीक्षित ने उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और लोक दल के उम्मीदवार छोटे लाल यादव को 61,815 वोटों से हराया था.
दिल्ली कांग्रेस को कैसे मिली जीत?
कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया और उनकी साफ-सुथरी छवि का बेहतर तरीके से फायदा उठाया. राज्य में परिवर्तन की उम्मीद का प्रचार किया. चूंकि, शीला दीक्षित को एक शांत और जनता से जुड़ी नेता के रूप में देखा गया, जो दिल्ली के विकास के लिए समर्पित थीं. कांग्रेस ने बुनियादी ढांचे में सुधार और दिल्ली को एक आधुनिक शहर बनाने का वादा किया. कांग्रेस ने दिल्ली के विकास और प्रशासन को सुधारने के लिए ठोस वादे किए. शीला दीक्षित ने महिलाओं और मध्यम वर्ग को ध्यान में रखते हुए अपनी नीतियां प्रचारित कीं.
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कैसा रहा था चुनाव का नतीजा?
1998 में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए. कुल 84,20,141 वोटर्स थे और 41,24,986 वोटर्स ने मतदान किया था. 57 सीटें अनारक्षित थीं और 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व थीं. कुल 49 फीसदी वोटिंग हुई थी. कांग्रेस को 52, बीजेपी को 15, जनता दल को एक और निर्दलीयों को दो सीटें मिलीं. कांग्रेस ने 47.80 फीसदी वोट शेयर हासिल किया. जबकि बीजेपी का 34.02 फीसदी वोट शेयर रहा.
दिल्ली में इस चुनाव में बीजेपी को 34 सीटों का नुकसान हुआ तो कांग्रेस को 38 सीटों को सियासी फायदा मिला. यानी सत्ता विरोधी लहर ने नतीजों को ठीक उलटा कर दिया. तब से लेकर अब तक बीजेपी दिल्ली में बहुमत हासिल नहीं कर पाई है. दिल्ली में कांग्रेस की जीत का सेहरा शीला दीक्षित के सिर सजा. शीला दीक्षित दिल्ली के दिग्गज नेताओं को पीछे छोड़ा और सुषमा स्वराज के बाद दिल्ली की दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनीं. सुषमा स्वराज सिर्फ 52 दिन ही सीएम रह पाईं.
शीला दीक्षित के बारे में जानिए?
शीला दीक्षित मूल रूप से पंजाब के कपूरथला की रहने वाली थीं. उनका जन्म 31 मार्च 1938 को हुआ था. शीला की शादी यूपी के उन्नाव जिले में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उमा शंकर दीक्षित के बेटे विनोद दीक्षित से हुई थी. दीक्षित परिवार उगु गांव का रहने वाला था.
शीला दीक्षित ने राजनीतिक गुर अपने ससुर उमा शंकर दीक्षित से सीखे. उमा शंकर कांग्रेस के कद्दावर नेता थे और कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के गवर्नर भी रहे हैं. इंदिरा राज में उमाशंकर देश के गृह मंत्री थे. इस दौरान शीला उनकी काफी मदद करती थीं. शीला दीक्षित की शानदार प्रशासनिक क्षमता को देखते हुए उन्हें इंदिरा गांधी ने स्टेटस ऑफ वुमेन के यूनाइटेड नेशन कमिशन की जिम्मेदारी सौंपी थी.
शीला दीक्षित के ससुर उमाशंकर दीक्षित कानपुर कांग्रेस में सचिव थे. कांग्रेस में धीरे-धीरे उनकी सक्रियता बढ़ती गई और वे नेहरू के करीबियों में शामिल हो गए. पहले शीला दीक्षित राजनीति में प्रवेश करने की इच्छुक नहीं थीं, लेकिन उनके पति विनोद दीक्षित सक्रिय राजनीति में प्रवेश करना नहीं चाहते थे. विनोद दीक्षित भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (IAS) थे. अपने पति की व्यस्तता को देखते हुए शीला दीक्षित ने सक्रिय राजनीत में प्रवेश करने का फैसला किया.
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साल 1984 में आखिरकार शीला दीक्षित चुनाव मैदान उतर गईं. उन्होंने उत्तर प्रदेश के कन्नौज से कांग्रेस की टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. 1986 से 1989 के बीच वो केंद्रीय मंत्री रहीं. दिल्ली के सीएम पद पर लगातार 15 साल रहने के बाद शीला 2014 में केरल की राज्यपाल भी बनीं. हालांकि, वे ज्यादा दिन इस पद पर नहीं रहीं और 6 महीने में ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. शीला दीक्षित के सीएम कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि दिल्ली की लाइफ लाइन यानी मेट्रो ट्रेन रही है. दिल्ली मेट्रो को चलाने का श्रेय शीला दीक्षित को ही जाता है. 20 जुलाई 2019 को 81 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया.