
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की राहें दिल्ली चुनाव में जुदा हैं. दोनों ही दलों के नेताओं की जुबानी जंग भी तल्ख होती जा रही है. दो सहयोगियों की इस जुबानी फाइट के बीच इंडिया ब्लॉक के अस्तित्व को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने इंडिया ब्लॉक को खत्म करने की वकालत कर दी.
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के तेजस्वी यादव ने कहा था कि यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव तक के लिए था. दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की तकरार, घटक दलों के नेताओं के बयानों के बाद इंडिया ब्लॉक के अस्तित्व और भविष्य पर बहस छिड़ी हुई है. सवाल है कि क्या इंडिया ब्लॉक वास्तव में अंत की ओर है?
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई ने इस पर कहा कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह के समीकरण हैं. केरल को ही देखें तो कांग्रेस और लेफ्ट दो प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों यूडीएफ और एलडीएफ की धुरी हैं लेकिन सूबे के बाहर राष्ट्रीय राजनीति में दोनों दल इंडिया ब्लॉक में साथ-साथ रहे. लोकसभा चुनाव में भी पंजाब में ऐसा ही हुआ. आम आदमी पार्टी और कांग्रेस वहां भी एक-दूसरे के खिलाफ लड़े और तल्खी भी दिखी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर, यहां तक की दिल्ली में भी दोनों दल साथ-साथ रहे.
हर राज्य की सियासी तस्वीर अलग
दिल्ली चुनाव की तल्खी को इंडिया ब्लॉक के अंत की तरह देखना सही नहीं होगा. हर राज्य के हालात अलग हैं और उनके हिसाब से ही राजनीतिक दल फैसले लेते हैं. किसी भी गठबंधन में रहने के लिए जरूरी है कि पार्टी मजबूत हो, उसका अपना भी आधार हो. दिल्ली में कांग्रेस फिलहाल उस स्थिति में नहीं दिखती जिसका साथ या विरोध ज्यादा फर्क डाले.
उन्होंने यह भी कहा कि आम आदमी पार्टी भी बीजेपी की तरह पूरा गुणा-गणित करके, नफा-नुकसान का पूरा कैलकुलेशन करके ही फैसले लेती है. लोकसभा चुनाव में भी ऐसा देखने को मिला था जब आम आदमी पार्टी इंडिया ब्लॉक में कांग्रेस के साथ रही, दिल्ली में भी सीट शेयरिंग कर एक-दूसरे के लिए वोट की अपील की लेकिन पंजाब में दोनों दल दो-दो हाथ करते नजर आए.
दिल्ली चुनाव में भी कांग्रेस गठबंधन की इच्छुक थी लेकिन सत्ताधारी दल ने उसे बातचीत का भी मौका नहीं दिया और अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया. संभव है कि कांग्रेस 8 से 10 सीटों के ऑफर पर भी गठबंधन के लिए मान जाती. इंडिया ब्लॉक में संवाद का अभाव दिख रहा है और जहां तक कांग्रेस का सवाल है, पार्टी को इंडिया ब्लॉक के घटक दलों से संवाद की जिम्मेदारी किसी ऐसे नेता को सौंपनी चाहिए जिसका हर दल में सम्मान हो और जिसके बोलने पर सब चुप हो जाएं. जिस तरह की भूमिका यूपीए के समय सोनिया गांधी ने निभाई थी.
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चर्चा यह भी है कि आम आदमी पार्टी के दिल्ली चुनाव में अकेले उतरने के पीछे यह रणनीति भी हो सकती है कि एंटी इनकम्बेंसी के वोट बंटें. बीजेपी के साथ विपक्ष में कांग्रेस भी होगी तो सरकार से नाराज वोटर के पास दो विकल्प होंगे. एंटी इनकम्बेंसी के वोट बंटे तो क्लोज फाइट वाली सीटों पर पार्टी के जीतने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं. अब विरोधी का विरोधी की तरह नजर आना भी जरूरी है और यह भी वजह हो सकती है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के नेता एक-दूसरे पर तल्ख जुबानी हमलों से भी परहेज नहीं कर रहे.
क्यों सीजनल है घटक दलों की नाराजगी?
शरद पवार की एनसीपी से लेकर अखिलेश यादव की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस तक, इंडिया ब्लॉक के तमाम घटक दल आम आदमी पार्टी के समर्थन का ऐलान कर चुके हैं. शिवसेना (यूबीटी) के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए बीजेपी से सीख लेने की नसीहत दी थी तो वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव के सुर नरम नजर आए. अखिलेश यादव ने कहा है कि आम आदमी पार्टी के समर्थन का मतलब कांग्रेस का विरोध नहीं है. सपा दिल्ली में आम आदमी पार्टी का समर्थन कर रही है और यूपी की मिल्कीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में कांग्रेस उसका. यह भी बताता है कि समर्थन और विरोध की इस पॉलिटिक्स का स्वरूप इंडिया ब्लॉक में राज्यों के गणित के हिसाब से अलग अलग है.
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बिहार चुनाव में एकजुट दिखेगा गठबंधन
दिल्ली के बाद बिहार में चुनाव होने हैं. बिहार के चुनाव साल के अंत तक होने हैं और इन चुनावों में विपक्षी गठबंधन एकजुट नजर आएगा, अब तक के संकेत यही बता रहे हैं. दरअसल, सूबे में 1998 से ही कांग्रेस का आरजेडी से गठबंधन है. सूबे की सियासत में कांग्रेस लालू यादव की अगुवाई वाली पार्टी पर अधिक निर्भर नजर आती है.
2020 के बिहार चुनाव में 70 सीटों पर लड़कर कांग्रेस महज 19 सीटें ही जीत सकी थी और पार्टी का स्ट्राइक रेट 27 फीसदी रहा था. तब आरजेडी और लेफ्ट के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद महागठबंधन सरकार बनाने से चूक गया तो इसके लिए सहयोगी दलों ने कांग्रेस के खराब स्ट्राइक रेट को ही जिम्मेदार ठहराया था. कांग्रेस के नेता भी जानते हैं कि बिहार की सियासत में सक्रिय जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टियों का भी एक वोटबैंक है लेकिन उसके पास ऐसा कोई आधार नहीं.
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केरल-बंगाल और पंजाब उदाहरण
उदाहरण केरल और पश्चिम बंगाल के भी दिए जा रहे हैं जहां की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टियां निकाय से लेकर आम चुनाव तक एक-दूसरे को जी भर के कोसती, पटखनी देने की कोशिश करती नजर आती हैं लेकिन इंडिया ब्लॉक में साथ-साथ भी हैं. केरल में एलडीएफ और यूडीएफ, दो प्रतिद्वंद्वी गठबंधन हैं जिनकी अगुवाई लेफ्ट और कांग्रेस करती हैं लेकिन ये दोनों पार्टियां तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार समेत कई राज्यों और इंडिया ब्लॉक में साथ-साथ हैं.
कुछ ऐसा ही पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के साथ भी है. विधानसभा चुनाव से आम चुनाव तक, एकला चलो का नारा बुलंद करने वाली टीएमसी भी लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया ब्लॉक के साथ ही खड़ी नजर आई है. पिछले दिनों तो ममता बनर्जी ने इंडिया ब्लॉक की अगुवाई के लिए भी दावेदारी कर दी थी.