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दिल्ली के दो बार विधानसभा अध्यक्ष रहे रामनिवास गोयल ने सियासत को अलविदा कह दिया है. गोयल यूं तो दिल्ली विधानसभा के मौजूदा विधायकों में सबसे पुराने हैं लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि आम आदमी पार्टी के सबसे सीनियर नेता रहे गोयल का रिश्ता कभी संघ परिवार से काफी गहरा था. इतना गहरा कि साल 1993 में जब पहली बार दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ तो रामनिवास गोयल शाहदरा की सीट पर बीजेपी के टिकट पर जीत कर आए.
शाहदरा की सीट तब बीजेपी का गढ़ मानी जाती थी और वहां से तब गोयल साहब की जीत का अंतर भी काफी बड़ा था. 1993 में सरकार भी बीजेपी की थी लेकिन असली चुनौती बीजेपी के लिए साल 1998 में आने वाली थी जब शीला दीक्षित काल की शुरुआत दिल्ली की राजनीति में होने जा रही थी.
बीजेपी ने काटा गोयल का टिकट और गढ़ बिखर गया
जब 1998 में विधानसभा चुनाव हुए तो रामनिवास गोयल खाली हाथ रह गए. उनका टिकट मौजूदा विधायक होने के बावजूद बीजेपी ने काट दिया. तब शाहदरा विधानसभा से ज्योत्स्ना अग्रवाल को बीजेपी ने उतारा जो कांग्रेस के डॉ नरेंद्र नाथ से चुनाव हार गईं. नरेंद्र नाथ बीजेपी के गढ़ में चुनाव जीत कर हीरो बन चुके थे और उसका ईनाम भी उन्हें शीला कैबिनेट में शिक्षा मंत्री बना कर दिया गया. कुल मिलाकर नरेंद्र नाथ शाहदरा की वैश्य बहुल सीट पर जीत कर कांग्रेस का वैश्य मंत्री चेहरा बन गए.
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नरेंद्र नाथ 1998, 2003 और 2008 में तीन बार लगातार शाहदरा सीट से जीते और तीनों ही बार बीजेपी ने रामनिवास गोयल को नहीं बल्कि तीन अलग-अलग चेहरों को मैदान में उनके खिलाफ उतारा. 2003 में बीजेपी ने वेद व्यास महाजन को टिकट दिया तो वहीं 2008 में तो बीजेपी ने इस सीट को समझौते के तहत अकाली दल को दे दिया. हालांकि अकाली दल के उम्मीदवार जितेंद्र सिंह शंटी बीजेपी के सिंबल पर ही चुनाव लड़े.
शंटी के रामनिवास गोयल के ऊपर तरजीह मिलने की कहानी भी रोचक है. 2003 में वेद व्यास महाजन को जब बीजेपी ने टिकट दिया तो वो तीसरे नंबर पर आए, दूसरे नंबर पर शंटी बतौर निर्दलीय रहे. इसलिए 2008 में शंटी टिकट पाने में तो कामयाब रहे लेकिन जीत तब भी हासिल नहीं हुई. जितेंद्र सिंह शंटी को रामनिवास गोयल के ऊपर 2013 में फिर उम्मीदवारी में तरजीह मिली और उस बार शंटी विधायक भी बन गए.
आम आदमी पार्टी के साथ शुरू किया सफर
रामनिवास गोयल राजनीतिक तौर पर मजबूत तो थे ही लेकिन बीजेपी के अंदर की पॉलिटिक्स ने 1993 के बाद उन्हें हाशिए पर कर दिया. बार-बार उनके नाम की चर्चा तो टिकट बंटवारे के वक्त होती लेकिन बाजी कोई और मार जाता. 2013 में जब बीजेपी के टिकट पर जितेंद्र सिंह शंटी जीते तो राम निवास गोयल को लग गया कि संघ की नजदीकियों के बावजूद बीजेपी में उनकी दाल नहीं गलने वाली. तभी आम आदमी पार्टी एक मजबूत विकल्प बनकर दिल्ली के नक्शे पर उभर रही थी.
राम निवास गोयल ने केजरीवाल का साथ चुना और 2015 में शाहदरा से विधायक बन गए. अनुभव काफी था इसलिए राम निवास गोयल को केजरीवाल ने विधानसभा स्पीकर की कुर्सी दे दी. 2015 से 2020 के बीच गोयल ने अपनी निष्ठा के दम पर आम आदमी पार्टी के भीतर अपनी पकड़ मजबूत कर ली. संघ से नजदीकियों की जगह अब वो केजरीवाल के ख़ास बन चुके थे और 2020 में चुनाव जीतते ही उन्हें केजरीवाल ने फिर विधनसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दिया.
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भाजपा के शंटी हुए AAP में शामिल
जितेंद्र सिंह शंटी की सियासत हमेशा रामनिवास गोयल के खिलाफ रही. एंबुलेंस मैन के तौर पर पहचान बनाने वाले शंटी ने जब बीजेपी छोड़कर आम आदमी पार्टी को चुना तो ये तय था कि उम्र के लिहाज से रामनिवास गोयल का टिकट कटना तय है. इसलिए शंटी की पार्टी में एंट्री के औपचारिक ऐलान से पहले ही रामनिवास गोयल ने अपनी राजनीतिक पारी को खत्म करने की घोषणा कर दी.
बतौर विधानसभा अध्यक्ष विधानसभा में किए कई बदलाव
यूं तो विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर प्रशासनिक शक्तियां कम होती हैं, लेकिन विधानसभा परिसर के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए गोयल ने लगातार उस परिसर को पुनर्जीवित किया जो अंग्रेजों के समय में भारत के पहले संसद के तौर पर इस्तेमाल की गई थी. 1912 से 1926 तक संसद होने के बाद 1926 से यहां अंग्रजों ने यहां अदालत लगानी शुरु की. रामनिवास गोयल ने इस अदालत को ला किले से जोड़ने वाली कई किलोमीटर लंबी सुरंग को अपने कार्यकाल में ढूंढ़ा और विरासत को तौर पर परिसर में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की प्रतिमाएं भी लगवाईं.