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बीजापुर हमले ने दिलाई नक्सलबाड़ी की याद, हिंसा से हुआ मोहभंग, अब मुद्दा है विकास और राष्ट्रवाद

जिस बंगाल में नक्सलवाद पनपा, जहां इसे कथित क्रांति का आधार मिला अब वो इसके प्रभाव से मुक्त है. बंगाल में आखिरी नक्सल हिंसा की तारीख शायद ही किसी को याद हो, लेकिन नक्सलबाड़ी से बदलाव के नारे के साथ निकली असंतोष की ये चिनगारी अब भी मध्य भारत (दण्डकारण्य क्षेत्र) में कुछ कुछ अंतराल पर अपनी रक्तरंजित मौजूदगी का एहसास कराती रहती है. 

बीजापुर नक्सली हमले में शहीद जवान को ले जाते सुरक्षा बल (फोटो-पीटीआई) बीजापुर नक्सली हमले में शहीद जवान को ले जाते सुरक्षा बल (फोटो-पीटीआई)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 05 अप्रैल 2021,
  • अपडेटेड 3:47 PM IST
  • नक्सलबाड़ी की बगावत कालांतर में रेड कॉरिडोर में तब्दील हुई
  • नक्सलबाड़ी से ही भारत में सुलगी हथियारबंद बगावत की चिनगारी
  • चीन ने नक्सलबाड़ी के विद्रोह को कहा था वसंत का वज्रनाद

बंगाल चुनाव में जय श्रीराम और खेला होबे के शोर के बीच छत्तीसगढ़ के जंगलों में 22 जवानों के बलिदान से नक्सलबाड़ी का अतीत फिर से जीवंत हो उठा है. 3 अप्रैल की तपती दोपहरी को जब बंगाल में नेता वोटों के लिए हुंकार भर रहे थे तो ठीक उसी समय लगभग 1500 किलोमीटर दूर सुकमा-बीजापुर बॉर्डर पर जोनागुडा गांव में नक्सली लाइट मशीन गन से सुरक्षाबलों पर फायर झोंक रहे थे.

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घात लगाकर हुए हमले के ट्रैप में आए सुरक्षाबलों ने  5 घंटे तक बड़ी दिलेरी से नक्सलियों का सामना किया, लेकिन शाम होने के बाद जब फायर रुकी तबतक 22 जवान अपने प्राण न्यौछावर कर चुके थे. रिपोर्ट के अनुसार 10 से 15 नक्सली भी मारे गए हैं. 

सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है

छत्तीसगढ़ का बस्तर बेल्ट हो, ओडिशा का मलकानगिरी या फिर महाराष्ट्र का गढ़चिरौली, लाल गलियारे के आखिरी निशान में से ये कुछ ऐसे चुनिंदा इलाके रह गए हैं, जहां आज भी चीनी तानाशाह माओ जेदांग के सिद्धांत का बोलबाला है. ये विचारधारा कहती है कि  Power flows from the barrel of the gun यानी कि 'राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है'.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं, सशस्त्र क्रांति में आस्था

ये विचारधारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं करती है. इनकी आस्था सशस्त्र क्रांति में है. थोड़ा बहुत ब्रेन का इस्तेमाल और बाकी बम और बारूद की विध्वंसक ताकत. इसी के आधार पर नक्सलबाड़ी से निकली नक्सलवाद की ये विचारधारा कथित तौर पर सामाजिक न्याय कायम करने की डुगडुगी बजाती रहती है. 

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यूं तो ये विचार मूल रूप से चीन के शासक माओ जेदांग ने दिया है जब उन्होंने गुरिल्ला वार का सहारा लेकर चीन के सीमांत गांवों में दहशत कायम की और अपनी स्थानीय मिलिशिया बनाई और फिर चीन की सत्ता पर काबिज हो बैठे. 

जब सशस्त्र हिंसा और सामाजिक न्याय के वैचारिक कॉकटेल में झूमता था नक्सलबाड़ी

लेकिन भारत में हथियारबंद बगावत की ये बयार बंगाल के नक्सलबाड़ी से आई. इसने पहले पड़ोस के बिहार और झारखंड को अपने आगोश में लिया. फिर छत्तीसगढ़ और ओडिशा चपेट में आए और फिर ये आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैल गई. भारत के राजनीतक शास्त्र में इस बेल्ट को लाल गलियारा (रेड कॉरिडोर) के नाम से जाना जाने लगा.

नक्सलबाड़ी गांव से निकली नक्सलवाद की चिनगारी

बंगाल के जिस नक्सलबाड़ी से 'क्रांति' की चिनगारी निकली आज वहां चुनाव का शोर है. रमणीक पहाड़ियों और चाय बगानों के लिए विख्यात पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले का नक्सलबाड़ी गांव वैचारिकी का इतना घनघोर केंद्र बनेगा और जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में होगी ये कल्पना इक्के-दुक्के लोगों के विचार में आई होगी.. इस विचारधारा को मानने वाले नक्सली या माओवादी कहलाए. माओवादी इसलिए क्योंकि इस विचारधारा के मूल प्रणेता माओत्स तुंग यानी कि माओ जेदांग थे.

इसी नक्सलबाड़ी गांव में कानू सान्याल का घर है जहां से उन्होंने दूसरे कॉमरेडों के साथ मिलकर भारत में आर्म्ड रेव्यूलेशन की नींव रखी थी. इस मकसद में उनके साथ थे चारू मजूमदार और जंगल संथाल जैसे बागी युवक. कानू सान्याल हिंसक तरीके से सत्ता हथियाना चाहते थे. जमीन पर मालिकाना हक को लेकर नक्सलबाड़ी में  23 मई 1967 को तीर कमानों से लैस बागियों और किसानों का पुलिस से संघर्ष हुआ. इस दिन कई लोग मारे गए. फिर 25 मई को पुलिस की गोली से नक्सलबाड़ी में 10 लोग मारे गए. 

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नक्सलबाड़ी में स्थित कानू सान्याल का घर

नक्सलबाड़ी की क्रांति को चीन ने वसंत का वज्रनाद कहा

उत्तर बंगाल का ये इलाका हिंसा में लगभग 52 दिनों तक जलता रहा. कानू सान्याल ने नक्सलबाड़ी को 'स्वतंत्र' करने की घोषणा कर दी. कई जमींदार मारे गए. उनका गला काट दिया गया. उनकी जमीनें छीन ली गई. अर्द्धसैनिक बलों की कार्रवाई में नक्सली भी मारे गए. पेइचिंग रेडियो ने पश्चिम भारत में विद्रोह की इस चिनगारी को Spring Thunder (वसंत का वज्रनाद) का नाम दिया. 

ये बगावती तत्कालीन सरकारी व्यवस्था को छल और गरीबों के शोषण का जरिया मानते थे. इनकी मानें तो नक्सलवाद की लड़ाई भूखमरी, गरीबी, अत्याचार, सामंतवाद, साम्प्रदायवाद और बेरोजगारी के खिलाफ है. सत्ता के खिलाफ शुरू हुआ ये सशस्त्र आंदोलन नक्सली हिंसा के रूप में आज तक जारी है. सुकमा, बीजापुर, गढ़चिरौली, चतरा, मलकानगिरी में सुरक्षाबलों पर हमला इसी हिंसक आंदोलन के उन्माद के तौर पर अक्सर देखने को मिलता है.

चीन को नक्सलबाड़ी से संभावना नजर आने लगी थी...लेकिन

पिछली सदी के 60 के अंतिम और 70 के शुरुआती दशक में भारत में हिंसक लपटों को देखकर चीन खुश था, चीन अपने यहां इस खूनी क्रांति का सफल प्रयोग कर चुका था. इसी के सहारे माओ सत्ता में आए थे.  उन्हें भारत में भी ऐसी उम्मीद नजर आने लगी. 

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लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उस समय की बंगाल की सरकार ने इस आंदोलन को पूरी ताकत से कुचल दिया. 16 जुलाई 1972 को चारू मजूमदार गिरफ्तार कर लिए गए. पुलिस लॉकअप में 28 जुलाई को उनकी मौत हो गई. कहा जाता है कि पुलिस ने उनके साथ भयानक बर्बरता की. अबतक नक्सलबाड़ी से निकली विचारों की उत्तेजना शनै-शनै शांत होने लगी थी. 

कानू सान्याल

इसे आंदोलन से मोह भंग होना कहा जाए या कुछ और इसकी व्याख्या हो सकती है लेकिन बाद में कॉमरेड जंगल संथाल को शराब की लत लग गई. 1981 में मुफलिसी में उनकी मौत हो गई. वहीं कानू सान्याल भी संघर्ष से पलायन के शिकार हुए. 2010 में उन्होंने फांसी लगाकर जान दे दी. 

नक्सलबाड़ी आंदोलन को भारत में वैचारिक सहयोग देश के वामपंथी दलों से मिला. हालांकि बाद में कई वाम दल मानने लगे थे कि भारत की जनता अभी सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार नहीं है. नक्सल आंदोलन को विचारों की खुराक दे रहे कई नेता हथियार छोड़ कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हुए और संसदीय राजनीति की पैरवीकार करने लगे. 

जिस बंगाल में नक्सलवाद पनपा, जहां इसे कथित क्रांति का आधार मिला अब वो इसके प्रभाव से मुक्त है. बंगाल में आखिरी नक्सल हिंसा की तारीख शायद ही किसी को याद हो, लेकिन नक्सलबाड़ी से बदलाव के नारे के साथ निकली असंतोष की ये चिनगारी अब भी मध्य भारत (दण्डकारण्य क्षेत्र) में कुछ कुछ अंतराल पर अपनी रक्तरंजित मौजूदगी का एहसास कराती रहती है. 

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नक्सलबाड़ी की विधायकी पर 10 साल से कांग्रेस का कब्जा

हैरानी की बात यह है कि जिस नक्सलबाड़ी से नक्सल आंदोलन की शुरूआत हुई वहां 10 साल से कांग्रेस के विधायक जीत रहे हैं. नक्सलबाड़ी दार्जिलिंग जिले के माटीगड़ी-नक्सलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र में आता है. ये सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. यहां से 2011 से कांग्रेस के नेता शंकर मालाकार जीतते आ रहे हैं. 2016 में बीजेपी के प्रत्याशी आनंदमयी बर्मन को इस सीट पर 44 हजार वोट मिले थे और वह तीसरे नंबर पर रहे थे, जबकि टीएमसी के अमर सिन्हा 67 हजार वोट लाकर दूसरे स्थान पर थे. 

 17 अप्रैल को है मतदान

नक्सलबाड़ी में अभी प्रचार अभियान चल रहा है. यहां 17 अप्रैल को मतदान है. यहां इस बार एक बार फिर से त्रिकोणीय मुकाबला है. कांग्रेस राज्य में भले ही फाइट में कमजोर दिखाई दे रही हो, लेकिन यहां पार्टी की धमक है. पार्टी की ओर से मौजूदा विधायक शंकर मालाकार दंगल में हैं. तृणमूल कांग्रेस ने यहां से राजन सुनदास को टिकट दिया है तो बीजेपी की ओर से आनंदमयी बर्मन मैदान में हैं.

नक्सलबाड़ी में अब राष्ट्रहित और आर्मी के जोश के चर्चे

एक सप्ताह पहले जब यहां आजतक पहुंचा और युवाओं से बात की तो ज्यादातर ऐसे थे जो नक्सलबाड़ी की गुजरी हुई 'प्रसिद्धि' को लेकर उत्साहित और उत्सुक नहीं दिखे. अब यहां भी महात्वाकांओं का जोर है.  युवा नौकरी और चमकते भविष्य की बात करते है. लड़कों के मुंह से राष्ट्रहित की चर्चा सुनाई देती है. आर्मी में भर्ती की इच्छा है. यहां पर आर्मी का कैम्प है. ये शब्द पिछले 50 साल में हुए बदलावों की कहानी कहते हैं. ये वही नक्सलबाड़ी है जिसे कानू सान्याल भारतीय राष्ट्र राज्य से आजाद कराना चाहते थे. अब यहां स्थित कानू सान्याल का मकान रिसर्च स्कॉलरों के लिए तीर्थस्थल का दर्जा हासिल कर चुका है.

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