
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी बगावत का झंडा बुलंद किए हुए हैं. लेकिन दिलचस्प ये है कि एक तरफ तृणमूल कांग्रेस शुभेंदु अधिकारी को मनाने की कोशिश कर रही है तो दूसरी तरफ भाजपा भी उन्हें लुभाने में लगी है. आखिर शुभेंदु अधिकारी बंगाल की सियासत में इतने अहम क्यों हैं?
इसका जवाब संभवत: पश्चिम बंगाल की वे 65 विधानसभा सीटें हैं जिनपर अधिकारी परिवार की मजबूत पकड़ है. ये सीटें राज्य के छह जिलों में फैली हैं. शुभेंदु के प्रभाव वाली सीटों की संख्या राज्य की कुल 294 सीटों के पांचवें हिस्से से ज्यादा है.
बंगाल में विधानसभा चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं. ममता बनर्जी नंदीग्राम से मशहूर हुए अपने प्रभावशाली मंत्री को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती हैं और बीजेपी ने इस खतरे को भांप लिया है.
नंदीग्राम आंदोलन से बने बड़े नेता
शुभेंदु अधिकारी पूर्वी मिदनापुर जिले के एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार से आते हैं. उनके पिता शिशिर अधिकारी 1982 में कांथी दक्षिण से कांग्रेस के विधायक थे, लेकिन बाद में वे तृणमूल कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक बन गए. शुभेंदु अधिकारी 2009 से ही कांथी सीट से तीन बार विधायक चुने जा चुके हैं.
शुभेंदु ने कांथी दक्षिण सीट पहली बार 2006 में जीती थी. तीन साल बाद वे तुमलुक सीट से सांसद चुने गए. लेकिन इस बीच उनकी प्रसिद्धि काफी बढ़ती गई.
2007 में शुभेंदु अधिकारी ने पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में एक इंडोनेशियाई रासायनिक कंपनी के खिलाफ भूमि-अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया. शुभेंदु ने भूमि उछेड़ प्रतिरोध कमेटी (BUPC) के बैनर तले ये आंदोलन खड़ा किया था, जिसका बाद में पुलिस और CPI(M) के कैडर के साथ खूनी संघर्ष हुआ.
प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की जिसमें एक दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए थे. इसके बाद आंदोलन और तेज हो गया, जिससे तत्कालीन लेफ्ट सरकार को झुकना पड़ा. हुगली जिले के सिंगूर में भी इसी तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन हुए. इन दो घटनाओं ने 34 साल से सत्ता पर काबिज वाम दलों को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका निभाई.
सफलता से खुश ममता बनर्जी ने तब शुभेंदु को जंगल महल का चार्ज दिया जिसमें पश्चिम मिदनापुर, बांकुरा और पुरुलिया जिले शामिल थे. ये जिले लेफ्ट का गढ़ थे जो कि अति पिछड़े और माओवादी विद्रोह से जूझ रहे थे.
शुभेंदु अधिकारी का प्रभाव
नंदीग्राम और सिंगूर आंदोलनों का प्रभाव पूरे राज्य में देखा गया था, लेकिन आसपास के जिलों में कुछ ऐसा हुआ जिसने शुभेंदु को एक बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया.
2006 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल का वोट शेयर 27 प्रतिशत था जो कि पांच साल बाद बढ़कर 39 प्रतिशत हो गया. पूर्व मिदनापुर और पश्चिम बर्दवान समेत पूरे जंगल महल में फैली 65 सीटें, जिन पर अधिकारी परिवार का प्रभाव माना जाता है, वहां तृणमूल का वोट शेयर 28 प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया.
2016 में तृणमूल कांग्रेस को इन सीटों पर करीब 48 प्रतिशत वोट मिले, उसके बाद वाम मोर्चा को 27 प्रतिशत और भाजपा को 10 प्रतिशत वोट मिले. हालांकि, पिछले साल राज्य में 18 संसदीय सीटें हासिल करने के बाद बीजेपी अब बंगाल में मुख्य विपक्ष के रूप में उभरी है.
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अपने पिता की तरह ही शुभेंदु को भी जननेता के रूप में जाना जाता है. जंगल महल और पूर्वी मिदनापुर में तृणमूल के चुनावी प्रदर्शन से स्पष्ट है कि शुभेंदु के पास एक मजबूत संगठनात्मक कौशल है. 2016 में उनके प्रभाव वाली 49 सीटों में से तृणमूल ने 36 सीटें जीत ली थीं. सीटों की ये संख्या 2011 के मुकाबले आठ ज्यादा थी. पार्टी ने इस इलाके में 2011 के मुकाबले अपना वोट शेयर 8 प्रतिशत और 2006 के मुकाबले 20 प्रतिशत बढ़ा लिया.
राजनीति का बदलता चेहरा
पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति एक पार्टी के सबसे खास चेहरे के इर्द-गिर्द केंद्रित होती गई है. भाजपा बार-बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्षी दल के प्रमुख चेहरे के बीच सीधा चुनावी मुकाबला कराने की कोशिश करती है.
बंगाल में लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों के बाद अप्रत्याशित रूप से तृणमूल ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को कमान थमा दी. प्रशांत ने तृणमूल को ऐसा ही सुझाव दिया है कि राज्य का चुनाव एक चेहरे पर केंद्रित किया जाए. ऐसे में कई स्थानीय दिग्गज अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.
तृणमूल कांग्रेस के सूत्रों की मानें तो शुभेंदु अधिकारी, प्रशांत किशोर की कार्यप्रणाली और पार्टी मामलों में ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के प्रभुत्व को लेकर नाराज हैं.
शुभेंदु अपने गढ़ में तृणमूल कांग्रेस के झंडे या बैनर के बगैर रैलियां आयोजित कर रहे हैं. अभी ये तय नहीं है कि शुभेंदु अधिकारी बीजेपी में जाएंगे या अपनी अलग पार्टी बनाएंगे, लेकिन इन दोनों सूरतों में तृणमूल को जंगल महल और आसपास के जिलों में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है.