
बंगाल की शेरनी के नाम से मशहूर तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने जीवन के 65 साल का सफर ऐसे समय में पूरा कर रही हैं, जब उन्हें अपने राजनीतिक करियर की सबसे कठिन चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है. हालांकि, ममता का पूरा सियासी सफर ही चुनौतियों और संघर्ष से भरा रहा है. बंगाल की राजनीति में अपने दम पर लेफ्ट का किला ध्वस्त कर बड़ा बदलाव करने वाली ममता ने यहां की सिसायत में अपनी अलग पहचान बनाई है. सादगी और तुनकमिजाजी के लिए मशहूर ममता बनर्जी के लिए अब अगले विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी की ओर से मिलने वाली चुनौतियों और पार्टी में लगातार तेज होती बगावत के बीच अपना दुर्ग बचाए रखना एक बड़ा चैलेंज होगा.
भारत की समकालीन राजनीति के चुनिंदा कद्दावर नेताओं में अपनी जगह बना लेने वाली ममता बनर्जी ने कड़ी मशक्कत की है. महिला राजनीतिज्ञ के रूप में तो इस समय वो न सिर्फ सबसे आगे बल्कि सबसे अलग भी नजर आ रही हैं. उनका सादा रहनसहन भी ध्यान खींचता है जिसमें उनका मुकाबला गिनती के ही नेतागण कर पाएंगें. एक साधारण सी साड़ी और चप्पल पहने एक महिला सड़क से संसद तक संघर्ष करती ममता ने लोगों के बीच एक उम्मीद जगाई है. 'मां माटी मानुष' के नारे के सहारे 2009 के लोकसभा चुनाव में ममता ने पश्चिम बंगाल में लेफ्ट दुर्ग पर पहली कामयाब सेंध लगाई थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने लेफ्ट का दुर्ग ही ढहा दिया था.
ममता बनर्जी का जन्म
पांच जनवरी 1955 को कोलकाता में जन्मीं ममता बनर्जी के पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी मौत दवाई ना मिलने के कारण हुई थी. महज 17 साल की उम्र में ममता ने अपने पिता को खो दिया. परिवार की जिम्मेदारी को निभाते हुए ममता ने दूध बेचकर अपने भाई-बहन का पालन पोषण किया. सादगी ममता के जीवन का हिस्सा रही है. सफेद सूती साड़ी और हवाई चप्पल से उनका नाता कभी नहीं टूटा. चाहे वह केंद्र में मंत्री रही हों या महज सांसद. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनके पहनावे या रहन-सहन में कोई अंतर नहीं आया.
ममता का सियासी सफर
ममता ने अपना राजनीतिक सफर 1970 में कांग्रेस के साथ शुरू किया था. बंगाल में वह राज्य महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं. 1984 में उन्होंने सीपीएम के वरिष्ठ नेता रहे सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराकर तहलका मचा दिया था. तब वह देश की सबसे युवा सांसद बनीं. 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में ममता को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली. उस सरकार में मानव संसाधन, युवा, महिला और बाल विकास, और खेल मंत्री बनीं. अपनी जिद और जुझारुपन के चलते उन्होंने कांग्रेस से 1997 में नाता तोड़ लिया. अगले साल यानी 1998 की जनवरी में उन्होंने अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली. उन्होंने खुद को खांटी देसी नेता के तौर पर स्थापित किया, जिसका उन्हें राजनीतिक फायदा भी खूब मिला.
ममता के अपने ही बेगाने हो गए
हाल तक सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके खिलाफ दर्जनों नेता आवाज उठाने लगे हैं. कांग्रेस की अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए अलग पार्टी बना कर लेफ्ट से दो-दो हाथ कर चुकीं ममता इन चुनौतियों से घबरा कर पीछे हटने की बजाय इनसे निपटने की रणनीति बनाने में जुट गई हैं. साल 2006 के विधानसभा चुनावों के समय से यानी बीते करीब पंद्रह सालों से तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे.
टीएमसी में किसी नेता की इतनी हिम्मत नहीं थी कि ममता बनर्जी के किसी फैसले पर अंगुली उठा सके. हालांकि, अब बीते तीन-चार साल में उनकी पकड़ कुछ कमजोर हुई है तो बीजेपी का सियासी आधार मजबूत हुआ है. टीएमसी नेताओं में कुछ असंतोष और नाराजगी साफ देखी जा रही है, जिन्होंने कभी ममता बनर्जी को सत्ता में लाने के लिए संघर्ष किया था, आज वही नेता उन्हें सत्ता से बेदखल करने की कवायद में बीजेपी की ओर से जुटे हैं.
ममता के लिए बीजेपी बनी चुनौती
बीजेपी की ओर से राजनीतिक और प्रशासनिक मोर्चे पर मिलने वाली कड़ी चुनौतियों के बीच सत्ता बचाने के लिए जूझ रही किसी भी पार्टी के लिए यह स्थिति आदर्श नहीं है. ममता को एक साथ कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है. पहले तो राजनीतिक मोर्चे पर बीजेपी की ताकत और संसाधनों से मुकाबला उनके लिए कठिन चुनौती बन गया है.
बीजेपी ने इसी साल हो जा रहे चुनावों में जीत के लिए अपनी पूरी ताकत और तमाम संसाधन बंगाल में झोंक दिए हैं. आधा दर्जन से ज्यादा केंद्रीय नेताओं और मंत्रियों को बंगाल का जिम्मा सौंप दिया गया है. 'घर के ही चिराग से घर में लगी आग' की तर्ज पर ममता के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ऐसे नेताओं ने खड़ी की है जो कल तक उनके सबसे करीबी लोगों में शुमार किए जाते थे. इनमें सबसे पहले तो उन मुकुल रॉय ने बीजेपी का दामन थामा था जिनको राज्य के खासकर ग्रामीण इलाकों में टीएमसी की जड़ें जमाने का वास्तुकार माना जाता है.
लोकसभा चुनाव के दौरान बैरकपुर के ताकतवर नेता और अब बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह समेत इक्का-दुक्का नेता बगावती अंदाज अपनाते रहे. लेकिन अब विधानसभा चुनाव जब सिर पर आ गए हैं, थोक भाव में मची भगदड़ ने एक गंभीर समस्या पैदा कर दी है. इनमें मेदिनीपुर इलाके के बड़े नेता शुभेंदु अधिकारी समेत कई विधायक बीजेपी का दामन थाम चुके हैं. इसके बाद भी ममता मोर्चे पर डटी हुई हैं.
ममता लगातार अपनी तमाम रैलियों में कह रही हैं कि पार्टी छोड़ कर जाने वालों के लिए दरवाजे खुले हैं. सत्तालोलुप नेता आम लोगों की बजाय हमेशा अपनी भलाई के बारे में ही सोचते हैं. उनके रहने या जाने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा. टीएमसी में मची भगदड़ के लिए ममता भले ही पानी पी-पी कर बीजेपी को कोस रही हों, लेकिन ममता के लिए अपना दुर्ग बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में देखना है कि ममता बीजेपी के चक्रव्यूह को कैसे भेद पाती हैं.