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नंदीग्राम फ्लैशबैक: 14 साल पहले...14 मार्च को...जब बिछ गई थीं 14 लाशें

ममता बनर्जी 2006 का पश्चिम बंगाल चुनाव बुरी तरह हार चुकी थीं, इस हार के बावजूद नंदीग्राम आंदोलन की सामर्थ्य को पढ़ पाने की उनकी क्षमता ममता के राजनीतिक जीवन का सबसे शक्तिशाली और क्रांतिकारी फैसला बन गया.

नंदीग्राम में ममता बनर्जी हिंसा में जान गंवाने वाले परिवार के साथ (फाइल फोटो-Getty image) नंदीग्राम में ममता बनर्जी हिंसा में जान गंवाने वाले परिवार के साथ (फाइल फोटो-Getty image)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 14 मार्च 2021,
  • अपडेटेड 3:28 PM IST
  • 14 साल पहले आज ही के दिन नंदीग्राम में हुई थी हिंसा
  • नंदीग्राम आज एक बार फिर राजनीतिक मानचित्र पर जीवंत हो उठा
  • नंदीग्राम की विरासत पर किसका हक, ममता या शुभेंदु?

बात आज से ठीक 14 साल पहले की है. 14 मार्च 2007 की. ये वो दिन है जब पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नंदीग्राम में 14 लोग पुलिस का शिकार हुए थे. ये वही नंदीग्राम है जहां आज राजनीतिक वर्चस्व का भीषण संग्राम छिड़ा हुआ है. 14-15 साल पहले ये ग्राम भारत के किसी अन्य सामान्य ग्राम की तरह ही छोटा सा, सिमटा हुआ था जहां खेती जीविका का आधार थी. 

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नंदीग्राम में पुलिस फायरिंग के 14 साल गुजर चुके हैं. साल 2021 में इस गांव की जितनी चर्चा हो रही है शायद पिछले 14 सालों में कभी नहीं हुई. नंदीग्राम से पैदा हुई भूमि अधिग्रहण आंदोलन की क्रांति का नायक कौन है? ममता बनर्जी या शुभेंदु अधिकारी. आज इस साख को अपने नाम करने की जबर्दस्त सियासी होड़ मची है. 

नंदीग्राम को इन 14 सालों में दुनिया ने जाना तो जरूर लेकिन इसके लिए इस गांव को कई कुर्बानियां देनी पड़ी. 2005-06 तक एकदम शांत सा रहना वाला ये गांव 2007-08 में लगभग 11 महीनों तक सिविल वार की स्थिति में रहा. यहां एक ओर स्टेट पुलिस और सीपीएम का कैडर था तो दूसरी ओर थीं संघर्षों में जीने वालीं ममता बनर्जी की टीएमसी और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रही भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी. 

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ममता बनर्जी के सियासी वर्चस्व को जिस शुभेंदु अधिकारी ने अभी आमने-सामने की चुनौती दी है, वे शुभेंदु तब ममता के कॉमरेड-इन-आर्म्स  (Comrade-in-arms) हुआ करते थे और ममता के साथ मिलकर नंदीग्राम में सीपीएम सरकार के खिलाफ एक ऐसे आंदोलन का बागडोर संभाले हुए थे जिसकी प्रतिक्रिया ने बंगाल से 34 साल पुराने वामपंथी शासन का खात्मा कर दिया. 

देश के राजनीतिक मानचित्र पर नंदीग्राम के उदय को समझने के लिए हमें फ्लैशबैक में जाना पड़ेगा.  

उंनींदी में डूबा नंदीग्राम

उंनींदी हालत में रहने वाले नंदीग्राम में ऐसा कुछ भी नहीं था कि इसे बंगाल का औद्योगिक हब बनाया जाए. आज भी नंदीग्राम पहुंचने के लिए सीधी रेलगाड़ी नहीं है. सड़कें खराब है. बसें बेहाल. इसकी बानगी तब देखने को मिली जब ममता बनर्जी नंदीग्राम में चोटिल हो गईं, तब उन्हें कोलकाता लाने के लिए ग्रीन कॉरिडोर बनाना पड़ा.  

लेकिन नंदीग्राम बंगाल के बंदरगाह हल्दिया के नजदीक स्थित है. यहां हल्दिया से नौका लेकर भी पहुंचा जा सकता है. यह नौका नंदीग्राम के किसानों और छोटे व्यापारियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण यातायात साधन है क्योंकि इसी के जरिए वे हल्दिया बाजार पहुंचकर वहां अपना माल बेचते हैं. 

नंदीग्राम में CRPF की तैनाती (फोटो- इंडिया टुडे)

समुद्री बंदरगाह से नंदीग्राम की नजदीकी इसके नागरिकों के लिए मुसीबत बन गई...जो शायद आज से 14 साल पहले औद्योगीकरण और बदलाव की बयार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. 

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80 फीसटों सीटों के साथ सत्ता में आए बुद्धदेब  ने पकड़ी औद्योगीकरण की राह

2006 में प्रचंड बहुमत से विधानसभा चुनाव जीतने वाले सीपीएम नेता और सीएम बुद्धदेब भट्टाचार्य ने एक ऐसा कदम उठाया जो राज्य की राजनीति और उनकी पार्टी की विचारधारा के एकदम विपरित थी. 2006 में 80 फीसदी से ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में धमाकेदार वापसी करने वाले बुद्धदेब भट्टाचार्य ने राज्य में गुजरात महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी राज्यों की तरह तीव्र औद्योगीकरण की योजना बनाई. 

सीएम बुद्धदेब ने नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप को केमिकल हब बनाने के लिए 10 हजार एकड़ जमीन देने की घोषणा की. यहां 48000 करोड़ का निवेश होना था. ये जमीनें स्थानीय किसानों की थी. कम्युनिस्ट शासित बंगाल में ये एक ऐसा ऐलान था जिसने राज्य की राजनीति पर नजर रखने वालों को हैरान कर दिया. क्योंकि बिग कैपिटल और बिग एस्टेबलिशमंट का विरोध करने वाली लेफ्ट सरकारों का ये रेडिकल शिफ्ट था. 

CM रहते चुनाव हारे कॉमरेड भट्टाचार्य, बंगाल का इंडस्ट्रियल लैंडस्केप बदलने का बुद्धदेब विजन रहा फेल 

खैर सलीम ग्रुप ने काम शुरू कर दिया. जमीनों की नपाई शुरू हो गई और अधिग्रहण की प्रक्रिया आगे बढ़ चली. लेकिन तब तक शांत से दिखने वाले नंदीग्राम में इस मेगा इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट को लेकर विरोध शुरू हो गया था. लोगों ने अपनी जमीनें देने से इनकार कर दी और विरोध स्वरूप लाठी-डंडे और हथियार उठाकर सड़कों पर आ गए. हालांकि इस विरोध का राज्य की सीपीएम सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा. बुद्धदेब अपने फैसले पर अड़िग रहे.

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2006 में बुरी तरह चुनाव हार चुकी थीं ममता

बता दें कि इससे पहले ममता बनर्जी अप्रैल 2006 में विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी थीं. इस चुनाव में ममता बनर्जी ने बंगाल की 294 में से 257 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा किया था, लेकिन उन्हें मात्र 30 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि वामपंथी मोर्चे ने 233 सीटों पर जीत हासिल की थी. इस हार के बावजूद नंदीग्राम में विरोध की सामर्थ्य को पढ़ पाने की क्षमता ममता के राजनीतिक जीवन का सबसे शक्तिशाली और क्रांतिकारी फैसला था.  

हिंसा के बाद नंदीग्राम की ओर जाती ममता बनर्जी (फाइल फोटो- इंडिया टुडे)

ममता नंदीग्राम की चिंगारी को पकड़ लीं. इसी दौरान स्थानीय नेता और कांथी विधानसभा सीट के विधायक शुभेंदु अधिकारी के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने 'भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी’ का गठन किया और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. इस आंदोलन को अपने हाथ में लेते ही ममता ने शुभेंदु अधिकारी को अपना विश्वस्त बना लिया.

दिसंबर 2006 में ममता ने यहां लंबा उपवास किया और फैक्ट्री के काम को रोक दिया. 2 जनवरी 2007 को सीपीएम समर्थकों और प्रदर्शनकारियों और टीएमसी समर्थकों के बीच हिंसा हुई. इस दौरान 6 लोग मारे गए. 

फैक्ट्री एरिया के पास प्रदर्शनकारियों की नाकेबंदी

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इस घटना के बाद किसानों और भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के सदस्यों और टीएमसी कार्यकर्ताओं ने पूरे इलाके की नाकेबंदी कर दी. यहां पर पुलिस, सरकारी कर्मचारियों के आने पर रोक लगा दिया गया. इस इलाके में बंगाल की सरकार का रिट लगभग खत्म हो गया था. 

14 मार्च 2007 को क्या हुआ....

नंदीग्राम में प्रदर्शनकारियों के उग्र तेवर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आए बुद्धदेब सरकार के इकबाल पर सवालिया निशान खड़ा कर रहे थे. आखिरकार 14 मार्च 2007 को सीएम बुद्धदेब भट्टाचार्य ने नंदीग्राम को 'कब्जे' से मुक्त कराने के लिए 2500 पुलिसकर्मियों का दस्ता नंदीग्राम भेजा, कहा जाता है कि इस पुलिस टुकड़ी के साथ 400 सीपीएम के कट्टर कार्यकर्ता भी शामिल थे. 

हिंसा में जान गंवाने वाले परिवार (फोटो- Getty image)

इधर नंदीग्राम में हजारों किसान और भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के सदस्य थे. प्रदर्शनकारियों पर आरोप लगता है कि उन्होंने माओवादियों को भी साथ बुला लिया था. जब दोनों पक्ष आमने-सामने आए तो जबर्दस्त फायरिंग हुई. सरकारी आंकड़ों में 14 लोग मारे गए. ये लोग प्रदर्शनकारी थे. हालांकि वास्तविक रूप से 100 से ज्यादा लोग 'गायब' थे. 

सीपीएम नेता मोहम्मद सलीम ने प्रदर्शनकारियों की पहचान पर सवाल उठाते हुए बीबीसी से कहा था कि जिन 14 लोगों की मौत हुई, उनमें से 9 की पहचान हुई, 5 लोग माओवादी या फिर बाहर से लाए गए लोग थे, जिनकी मृत्यु हुई. लेकिन उनकी शिनाख्त नहीं हुई. मोहम्मद सलीम का दावा है कि जो लोग मरे उनमें पुलिस की गोली से कम और बम के छर्रों की चपेट में आए ज्यादा लोग शामिल थे. इस घटना के बाद से ही बंगाल की लेफ्ट सरकार औद्योगीकरण के अपने एजेंडे को लेकर बैकफुट पर आ गई थी और आखिरकार उसे इस महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को रद्द करना पड़ा.

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नंदीग्राम की क्रांतिकारी विरासत पर किसका हक?

आज नंदीग्राम फायरिंग की इस बरसी ममता बनर्जी ने इस आंदोलन में प्राण गंवाने वाले लोगों को याद किया है. ममता बनर्जी ने ट्वीट कया, "इस दिन, 2007 में नंदीग्राम में गोलीबारी में निर्दोष ग्रामीण मारे गए थे. कई शव मिले भी नहीं थे. यह राज्य के इतिहास का एक काला अध्याय था. उन सभी को अश्रूपूरित श्रद्धांजलि, जिन्होंने अपनी जान गंवाई. नंदीग्राम में अपनी जान गंवाने वालों की याद में, हम हर साल 14 मार्च को कृषक दिवस के रूप में मनाते हैं और किसान रत्न पुरस्कार देते हैं."

 

ममता ने कहा है कि 14 मार्च को शहीद हुए लोगों के सम्मान में मैं इस बार का चुनाव यहां से लड़ रही हूं. मेरे लिए ये गर्व की बात होगी कि मैं शहीद परिवारों के साथ मिलकर बंगाल के खिलाफ काम करने वाली ताकतों से लड़ूं. 

नंदीग्राम की इस क्रांतिकारी विरासत पर दावा करने से शुभेंदु अधिकारी भी पीछे नहीं हैं. उन्होंने ट्वीट कर लिखा है, "14 मार्च 2007 को हमेशा से विषादभरे दिन के रूप में याद किया जाएगा, आज हम नंदीग्राम का शहीद दिवस मना रहे हैं और हम उन भाइयों को याद कर रहे हैं जो अपनी जमीन की रक्षा करते हुए बलिदान हो गए. सभी बलिदानियों और उनके परिवारों को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि."

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नंदीग्राम में चैलेंजर वर्सेज डिफेंडर

बंगाल के इतिहास में नंदीग्राम का चुनाव शायद भी कभी इतना रोमांचक और उत्तेजना से भरा रहा हो. ये मुकाबला चैलेंजर वर्सेज डिफेंडर का है. ममता को चैलेंज अपने ही पूर्व लेफ्टिनेंट से मिला है और उन्हें अपने राजनीतिक सिहांसन की रक्षा करनी है. लेकिन उनके प्रतिद्वंदी शुभेंदु अधिकारी इस बार अपनी ताकत दिल्ली से बटोर रहे हैं, इसलिए इस मुकाबले और इसके नतीजे पर हर बंगाली भद्रलोक निगाहें गड़ाए बैठा है. 

 

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