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बिहार विधानसभा चुनाव

जब एक बस कंडक्‍टर के चलते बिहार के इस मुख्यमंत्री को गंवानी पड़ी थी कुर्सी

aajtak.in
  • 31 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 7:53 PM IST
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बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहा है. यहां के मुख्यमंत्रियों की कहानियां बड़ी ही दिलचस्प रही हैं. इसी कड़ी में बिहार के पूर्व मुख्‍यमंत्री दारोगा प्रसाद राय की कहानी कुछ ऐसी है. 1970 में दस माह के लिए मुख्‍यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय के लिए एक सरकारी बस कंडक्‍टर का न‍िलंबन वापस न लेना ही बदकिस्‍मती का पर्याय बना और उन्‍हें अप्रत्‍याशित रूप कुर्सी गंवानी पड़ी. 

 

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झारखंड पार्टी ने खींचा था हाथ : 
दी लल्‍लनटॉप के चुनावी किस्‍सों में दारोगा प्रसाद राय के राजनीतिक जीवन के कई किस्‍सों पर विस्‍तार से प्रकाश डाला गया है. 1970 में जब वह इंदिरा गांधी और हेमवती नंदन बहुगुणा के वीटो से मुख्‍यमंत्री बने तब बिहार राजपथ परिवहन के एक आदिवासी कंडक्‍टर के न‍िलंबन की घटना हुई. इस कंडक्‍टर ने सरकार में शामिल झारखंड पार्टी के आदिवासी नेता बागुन सुम्‍ब्रई से कार्रवाई वापस लेने की गुहार की.

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बागुन की बात हुई अनसुनी:  

बागुन सीएम दारोगा से मिले और कंडक्‍टर का न‍िलंबन वापस लेने का न‍िवेदन किया. इसके बाद भी मामला जस का तस रहने पर एक सप्‍ताह बाद बागुन दोबारा सीएम से मिले और उन्‍होंने कहा कि देखते हैं. इसके बाद नाराज बागुन ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. झारखंड के 11 विधायक थे. दारोगा प्रसाद ने इसे हल्‍के में लिया क्‍योंकि उन्‍हें लगा कि उनके पास पर्याप्‍त संख्‍या में विधायक हैं. लेकिन दिसंबर के आखिरी सप्‍ताह में हुए फ्लोर टेस्‍ट में दारोगा फेल साबित हुए. लेफ्ट पार्टी ने भी झारखंड पार्टी की तरह समर्थन नहीं दिया. सरकार के समर्थन में 144 मत थे जबकि विपक्ष में 164 मत पड़े. 

 

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जगजीवन राम थे राजनीतिक गुरु 

दरोगा प्रसाद गांधीजी से प्रभावित थे. पेश से मास्‍टर थे. गांधीजी की हत्‍या के बाद सर्वोदय संघ में सक्रियता से जुड़े थे. यहां एक कार्यक्रम के दौरान बाबू जगजीवन राम की नजर दारोगा पर पड़ी. उन्‍होंने दारोगा को कांग्रेस संगठन से जोड़ा. 1952 में परसा सीट से टिकट दिलावाया और वह पहली बार जीत के साथ विधायक बने. दूसरे टर्म को विधायक बनने के साथ उन्‍हें मंत्री बनाना भी नसीब हुआ. 1970 के बाद की कांग्रेस सरकारों में उन्‍हें मंत्री पद मिला. 

 

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गैर कांग्रेस सरकारों में जहां दरोगा प्रसाद नेता प्रतिपक्ष हुआ करते थे वहीं कांग्रेस की सत्‍ता में दोबारा वापसी के बाद केदार पांडेय के मुख्‍यमंत्री रहते वह कृषि मंत्री बने. जबकि इसके बाद अब्‍दुल गफूर की सरकार में वित्‍त मंत्री रहे. लेकिन बाद में उनका नाम ट्यूबवेल घोटाले में नाम जुड़ गया जिसने उनकी बेदाग छवि पर दाग लगाया. इस घोटाले में हुआ कुछ नहीं लेकिन उनकी लोकप्रियता को काफी नुकसान पहुंचा था. राजनीतिक करियर में तमाम उतार चढ़ाव के बाद 15 अप्रैल 1981 को उनका न‍िधन हो गया. उनकी सीट पर हुए उप चुनाव में उनकी पत्‍नी पार्वती देवी को जीत मिली. बाद में उनकी राजनीतिक विरासत उनके बेटे चंद्रिका राय संभाल रहे हैं जो लालू प्रसाद यादव के समधी भी हैं.

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