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रणनीति या मजबूरी, बिहार में लेफ्ट के लिए आरजेडी क्यों हो गई जरूरी!

बिहार में लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के नारे से जातीय राजनीति का उभार हुआ और वामदल अपनी सियासी जमीन गंवा बैठे. बिहार में जिस दल की जातीय राजनीति का वामदल शिकार हुए उसी आरजेडी के साथ मिलकर इस बार वो चुनाव मैदान में हैं. वामपंथी दल 29 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं.

बिहार में वामपंथी दल महागठबंधन के साथ चुनावी मैदान में बिहार में वामपंथी दल महागठबंधन के साथ चुनावी मैदान में
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 20 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 3:19 PM IST
  • बिहार में वामपंथी दल 29 सीटों पर लड़े रहे चुनाव
  • बिहार में सीपीआई माले के पास 3 विधायक हैं
  • वामपंथी दल बिहार में कभी किंगमेकर माने जाते थे

बिहार विधानसभा चुनाव में वामपंथी दल इस बार आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन का हिस्सा हैं. ये चुनाव वामपंथी दलों लिए अस्तित्व बचाने की लड़ाई माना जा रहा है. बिहार में महागठबंधन के तहत वामपंथी दलों को 29 सीटें मिली हैं. हालांकि, एक दौर में वामपंथी दल बिहार में किंगमेकर माने जाते थे. 

बिहार विधानसभा में 1972 से 1977 तक वामपंथी दल मुख्य विपक्ष रहे. इससे पहले भी सदन में पार्टी के सदस्य हमेशा दहाई अंकों में रहे, लेकिन 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान लागू किया तो राज्य में वामपंथी राजनीति की जमीन सिकुड़ गई. जाति की पहचान बिहार की राजनीति का केंद्र बन गई. बाद में मंडल आंदोलन ने वाम दलों की रही-सही सियासी जमीन भी हथिया लिया. 

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बिहार में वामपंथी दलों ने भूमि सुधार, बटाइदारों को हक, ग्रामीण गरीबों को हक और शोषण-अत्याचार के खिलाफ संघर्ष के बल पर अपने लिए जो जमीन तैयार की थी. उस पर मंडलवाद की राजनीति से उभरे दलों एवं नेताओं ने सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर फसल बोई और वो आज तक वोटों की फसल काट रहे हैं. 

कर्पुरी ठाकुर के बाद 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के नारे से जातीय राजनीति का उभार हुआ और वामदल अपनी सियासी जमीन गंवा बैठे. बिहार में जिस दल की जातीय राजनीति का वामदल शिकार हुई उसी आरजेडी के साथ मिलकर इस बार वो चुनाव मैदान में हैं. पिछले चुनाव में वामदल अलग चुनाव लड़े थे और नतीजा यह हुआ था कि सिर्फ तीन सीटें भाकपा-माले को मिली थीं जबकि सीपीआई और सीपीएम खाता भी नहीं खोल सकी थी. 

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बिहार में सबसे गंभीर सवाल वामपंथी नेता चंद्रशेखर की हत्या को लेकर उठते हैं. 31 मार्च 1997 को सिवान के जेपी चौक पर चंद्रशेखर समेत सीपीआई माले के एक नेता की गोली मारकर हत्या की गई थी. इस हत्याकांड में लालू प्रसाद यादव के करीबी बाहुबली नेता शहाबुद्दीन का नाम आया था. लेकिन वाम दल अब शायद इतिहास को भूलकर आगे बढ़ना चाहते हैं. ये उनकी मजबूरी भी है. यही वजह है कि जिस पार्टी पर चंद्रशेखर की हत्या करवाने, हत्या आरोपियों को बचाने के आरोप थे, उसी पार्टी के साथ वे चुनाव मैदान में हैं. 

बिहार में महागठबंधन के तहत वामपंथी दलों को 29 सीटें मिली हैं. इनमें से माले 19, सीपीएम चार और सीपीआई छह सीटों पर लड़ रही है. बिहार में किसी जमाने में सीपीआई विपक्षी दल की भूमिका में हुआ करती थी, लेकिन पिछले चुनाव में उसका खाता तक नहीं खुला. अब उससे ज्यादा मजबूत स्थिति में सीपीआई माले है. बिहार में वामदलों का वोट प्रतिशत पिछले कुछ चुनावों में तीन से चार फीसदी के बीच ही रहा है, लेकिन जहानाबाद, बेगूसराय, सिवान, चंपारण, बरौनी क्षेत्र वामपंथियों के गढ़ माने जाते रहे हैं. 

दरअसल, वामदल बिहार में संगठन की कमी के साथ-साथ नेतृत्व के संकट से भी जूझ रहे हैं. कभी बड़े वाम नेताओं के गढ़ रहे बिहार में इस बार वामदलों की उम्मीदें कन्हैया कुमार पर टिकी हुई हैं. ऐसे में देखना होगा कि बिहार में इस बार आरजेडी के सहारे वामपंथी दल राजनीतिक तौर पर क्या सियासी गुल खिला पाते हैं. 

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