
बिहार एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है. एनडीए के चुनावी फेस नीतीश कुमार हैं तो महागठबंधन का चेहरा तेजस्वी यादव को माना जा रहा है. लालू की सियासी गैरमौजूदगी में जेडीयू इस बार के चुनाव को एकतरफा बता रही है तो तेजस्वी यादव बदलाव के नारे के साथ मैदान में हैं और बाढ़ और कोरोना संकट के बीच लगातार जनता के बीच जाकर लोगों से जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
चुनावी मुकाबले को लेकर दोनों गठबंधन इतने सीरियस हैं कि अभी से एक-दूसरे के नेताओं को तोड़ने, नए दलों को अपने गठबंधन में शामिल कराने की होड़ सी दिख रही है. लेकिन जानकार नीतीश कुमार के लिए चुनाव का सही वक्त मानने के साथ-साथ उनके 43 साल के सियासी करियर में इस चुनाव को सबसे टफ भी मान रहे हैं.
क्यों इस बार आसान नहीं 'विकास पुरुष' की राह?
पटना के पत्रकार संजीत नारायण मिश्रा कहते हैं- 'नीतीश कुमार भले देशभर में एक बेहतर नेता के रूप में जाने जाते रहे हों, पर हाल के दिनों में उनकी लोकप्रियता घटी है. जिस कारण चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. एनडीए भले सरकार बना ले पर जदयू के खाते में सीटें और कम हो सकती हैं. सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई जांच कराने का क्रेडिट नीतीश जरूर लेंगे, पर सच ये है वो आखिरी दौर में एक्टिव हुए हैं. उनसे पहले तेजस्वी और चिराग इस मामले में कूद चुके थे, जिसे वे भी भुनाएंगे. सुशांत के अलावा प्रवासी मजदूरों को बिहार बुलाने तथा कोटा से छात्रों की घर वापसी में यूपी व झारखंड सरकार से पीछे तो रहे ही, कोरोना को लेकर कम टेस्टिंग व खस्ताहाल अस्पतालों में बदइंतजामी पर भी जनता गुस्सा दिखा सकती है.'
कोरोना-बाढ़-प्रवासी मजदूरों की दिक्कतों, बेरोजगारी आदि कई चुनौतियों के बीच इस बार नीतीश के सामने 4 युवा चेहरों की चुनौती भी है. इनमें से कुछ युवा चेहरे वोट के मैदान में नीतीश को चुनौती दे रहे हैं तो कुछ परसेप्शन की लड़ाई में. ये चेहरे हैं- तेजस्वी यादव, प्रशांत किशोर, कन्हैया कुमार और चिराग पासवान. तीन चेहरे तो खुले तौर पर विरोध में हैं लेकिन चिराग पासवान तो एनडीए का हिस्सा होकर भी लगातार विरोध का झंडा बुलंद किए हुए हैं-
1. तेजस्वी यादव
तेजस्वी यादव महागठबंधन की अगुवाई कर रहे हैं. उनके पीछे आरजेडी की विरासत है, कांग्रेस का साथ है और रांची में बैठे लालू की रणनीति है. वो नीतीश को सीधे मैदान में उतरकर ललकार रहे हैं.
2. प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर भी जेडीयू छोड़ने के बाद से नीतीश पर हमलावर हैं. अपने संगठन 'यूथ इन पॉलिटिक्स' के जरिए वह बिहार में बेरोजगारी, उद्योगों की बदहाली, युवाओं की समस्याओं को उठाकर युवा आबादी में संवाद कायम करने की कोशिश कर रहे हैं. वे सीधे तौर पर अभी राजनीतिक लड़ाई में तो नहीं कूदे हैं लेकिन उनके हर सवाल और अभियान के निशाने पर नीतीश कुमार ही दिखते हैं.
3. कन्हैया कुमार
लोकसभा चुनाव हारने के बाद से सीपीआई के कन्हैया कुमार बिहार में लगातार जनयात्राएं कर रहे हैं. जेएनयू छात्र रहे कन्हैया नीतीश सरकार के 15 साल में बिहार की बदहाली का मुद्दा जनता के बीच उठा रहे हैं. आरजेडी और वामपंथी दलों के बीच गठजोड़ की बातचीत चल रही है ऐसे में तेजस्वी और कन्हैया दोनों एक मंच पर चुनाव प्रचार करते भी दिख सकते हैं. कन्हैया एक अच्छे वक्ता हैं और युवाओं को आकर्षित करने में उनका अभियान महागठबंधन के लिए कारगर भी हो सकता है.
4. चिराग पासवान
चौथे चेहरे हैं एलजेपी के चिराग पासवान, जो वैसे तो एनडीए का हिस्सा हैं लेकिन साथ होकर भी विरोधी की छवि अबतक चिराग ने मेंटेन किया है. चाहे कोरोना संकट में चुनाव कराने की बात हो, प्रवासी मजदूरों का मुद्दा हो, सुशांत केस हो- हर जगह चिराग ने जेडीयू से अलग रुख अपना रखा है. चिराग नीतीश की छवि से अलग बिहार में अपनी अलग पहचान बनाने में जुटे हैं. बिहार के युवाओं को जोड़ने के लिए चिराग पासवान ने बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट का नारा दिया है.
पटना के पत्रकार संजीत नारायण मिश्रा कहते हैं- 'राज्य में लोगों के बीच ये चर्चा है कि आखिर लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को जंगलराज बता-बताकर नीतीश कुमार कब तक लोगों से वोट मांगते रहेंगे? इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश कुमार अपने लिए कम सीटों पर समझौता नहीं करेंगे, बड़े भाई इस बार भी बनेंगे, पर ये भी सच है कि अपने हिस्से की सीट निकालना मुश्किल जरूर होगा और नतीजतन नीतीश कुमार अपनी वो इमेज बरकरार रख पाएं, यह तो वक्त ही बताएगा.'
4 दशकों में कैसा रहा नीतीश का सियासी सफर?
1970 के दशक में जेपी आंदोलन के दौरान पटना यूनिवर्सिटी में छात्र नेता के तौर पर नीतीश कुमार शामिल हुए थे. इसके बाद जनता पार्टी से अपनी सियासी पारी शुरू की. 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर हरनौत से नीतीश ने पहला विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन सफलता नहीं मिली. 1985 में हरनौत से ही पहली बार नीतीश कुमार ने चुनावी जीत हासिल की. जनता पार्टी, फिर जनता दल, समता पार्टी और फिर अपनी पार्टी जेडीयू बनाकर नीतीश कुमार कई गठबंधनों के साथ रहे.
गठबंधन बदलता रहा लेकिन नीतीश का करिश्मा नहीं
पहली बार साल 2000 में 7 दिन के लिए नीतीश सीएम बने. उसके बाद केंद्र की राजनीति में रेल मंत्री समेत कई जिम्मेदारियां निभाईं. 24 नवंबर 2005 को नीतीश ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में फिर सत्ता संभाली. 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए जीतनराम मांझी को सीएम बनाया लेकिन फरवरी 2015 में नीतीश फिर से सीएम बन गए, तब से अबतक नीतीश के हाथ में बिहार की सियासत की कमान है.
नीतीश कुमार ने 2015 का चुनाव आरजेडी के समर्थन से जीतकर सरकार बनाई थी. लेकिन जुलाई 2017 में बीजेपी के साथ आ गए और तबसे एनडीए की सरकार चला रहे हैं. इस बार भी एनडीए ने नीतीश को ही अपना चेहरा बनाया है.
जेडीयू क्यों मान रही चुनाव का सबसे सही मौका?
कोरोना संकट के बीच जहां विपक्ष चुनाव टालने की मांग कर रहा था वहीं नीतीश कुमार चुनाव कराने पर अड़े हुए हैं. इससे साफ संकेत है कि अभी लालू की सियासी गैरमौजूदगी में नीतीश को चुनाव कराना सबसे मुफीद लग रहा है. जानकार इसका कारण बताते हैं कि नीतीश कुमार अपने सियासी चरम पर हैं. लालू सीन से फिलहाल बाहर हैं. तेजस्वी यादव अभी पूरी तौर पर सियासी मैदान में जम नहीं पाए हैं और बीजेपी के साथ ने नीतीश कुमार का रास्ता आसान बना दिया है. लेकिन सियासत में कब किसका पत्ता चल जाए कहा नहीं जा सकता. इसलिए इस बार का बिहार चुनाव काफी रोचक होगा.