Advertisement

बिहार: 2005 का वो चुनाव, जब 'बेअसर' हो गए लालू, 7 महीने में नीतीश की ओर शिफ्ट हो गया जनादेश

फरवरी 2005 के बाद बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार को पूर्ण रूप से काबिज होने में एक चुनाव और लग गया. ये 'चुनाव' नीतीश के सामने मात्र 7 महीने बाद फिर आ गया. फरवरी 2005 में खंडित जनादेश का हश्र देख चुके बिहार में अक्टूबर 2005 में एक बार फिर चुनावी रणभेरी बजी.

नीतीश कुमार और लालू यादव (फाइल फोटो -Getty image) नीतीश कुमार और लालू यादव (फाइल फोटो -Getty image)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 01 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 4:46 PM IST
  • बिहार की राजनीतिक का बेस ईयर है 2005
  • इसी साल 15 वर्ष बाद लालू बिहार की सत्ता से बाहर हुए
  • लालू का मुस्लिम वोट नीतीश की ओर शिफ्ट हुआ

साल 2005 को बिहार की राजनीति का बेस ईयर यानी आधार वर्ष भी कहा जा सकता है. ये वही साल था जब बिहार की राजनीति एक धारा से दूसरी धारा की ओर चल पड़ी. बिहार की राजनीति में लालू-राबड़ी युग के बाद नीतीश कुमार का पदार्पण हुआ.

इस साल दो चुनाव हुए थे. पहला फरवरी 2005 में और दूसरा अक्टूबर 2005 में. फरवरी 2005 चुनाव के नतीजों के गहरे निहितार्थ थे, ये नतीजे लालू के किले में पैदा हो चुके दरार का संकेत था, लालू का वोट छिटकने लगा था, MY समीकरण का तिलिस्म टूट रहा था.

Advertisement

फरवरी 2005 में चुनाव हारकर भी सबसे बड़ी पार्टी RJD

फरवरी 2005 के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल 75 सीटें जीतकर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. इस चुनाव में आरजेडी 210 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. पार्टी को 25.07 वोट हासिल हुए और 75 सीटों पर जीत मिली. 

नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड का उभार इसी चुनाव से शुरू हो गया था. जेडीयू 138 सीटों पर चुनाव लड़ी और 55 सीटें जीतीं, जबकि वोटों का प्रतिशत 14.55 रहा. साल 2000 के मुकाबले इस चुनाव में जेडीयू को 17 सीटें ज्यादा मिली. जबकि फरवरी 2005 में बीजेपी 103 सीटों पर लड़ी और 37 सीटें जीती. बीजेपी को 10.7 फीसदी वोट मिला.

लालू की विदाई तो हुई, लेकिन नीतीश की ताजपोशी नहीं हो सकी

इस फरवरी 2005 के चुनाव ने लालू एंड फैमिली की बिहार की सत्ता से विदाई तो कर दी, लेकिन नीतीश के लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सका. दरअसल इस चुनाव में पासवान 29 सीट लेकर ऐसे क्षत्रप के रूप में उभरे जिनके पास सत्ता की चाभी थी. लालू पासवान को मनाते रह गए, लेकिन वे पासवान की मुस्लिम सीएम की जिद को कोई पूरा नहीं कर सके. 

Advertisement

बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार को पूर्ण रूप से काबिज होने में एक चुनाव और लग गया. ये 'चुनाव' नीतीश के सामने मात्र 7 महीने बाद फिर आ गया. फरवरी 2005 में खंडित जनादेश का हश्र देख चुके बिहार में अक्टूबर 2005 में एक बार फिर चुनावी रणभेरी बजी. 

7 महीने में नंबर वन से तीसरे नंबर की पार्टी बन गई RJD

फरवरी के नतीजों में लालू का संदेश छुपा तो था, लेकिन सत्ता से बाहर होने के बावजूद इस चुनाव की नंबर वन पार्टी होने का दंभ लालू नहीं भूल पाए. फरवरी चुनाव में उनका वोट बैंक फिसलने लगा था, अक्टूबर आते आते इसमें मार्के का क्षरण हुआ और लालू को अपने सियासी जीवन का बड़ा चोट झेलना पड़ा. 

अक्टूबर 2005 के चुनाव में 139 सीटों पर चुनाव लड़कर नीतीश कुमार की जेडीयू 88 सीटें जीतीं, जबकि राष्ट्रीय जनता दल 175 सीटों पर चुनाव लड़ी और मात्र 54 सीटें जीत पाई. बीजेपी भी आरजेडी से आगे ही रही. जेडीयू के साथ लड़ने वाली बीजेपी 102 सीटों पर लड़ी और 55 सीटें जीतीं. फरवरी 2005 के मुकाबले इस बार आरजेडी को 21 सीटें कम मिली. 

इस चुनाव में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के प्रदर्शन की चर्चा जरूरी है. मात्र 7 महीने पहले बिहार की सत्ता की चाभी रखने वाले पासवान के सारे अरमां इस चुनाव में आंसुओं में बह गए. पासवान की पार्टी इस चुनाव में अकेले दम पर (कुछ जगहों पर सीपीआई के साथ समझौता) सबसे ज्यादा 203 सीटों पर चुनाव लड़ी मगर 10 सीटें ही जीत पाई, उन्हें 19 सीटों का भारी-भरकम नुकसान हुआ. 

Advertisement

पासवान को उम्मीद थी कि फरवरी में जो उन्होंने मुस्लिम मुख्यमंत्री का दांव चला था, उसके बदले में उन्हें लगभग 15 फीसदी मुसलमान वोटों का कुछ हिस्सा तो जरूर हासिल होगा, लेकिन बिहार के सुजान मुस्लिम मतदाता इस दांव की हकीकत पढ़ गए थे. इस बार ये वोट नीतीश के साथ जाने का मन बना चुका था. 

इस चुनाव से पहले नीतीश कुमार पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण का भी समर्थन कर चुके थे. वहीं जब इस मुद्दे पर लालू यादव के बोलने की बारी आई तो वे वाक चातुर्य से इस पर गोल-मोल बोलकर निकल गए. नीतीश के लिए इसका सकारात्मक असर पड़ा. 

लालू यादव और नीतीश कुमार (फाइल फोटो- Getty image)

नीतीश अपनी विकास की छवि तो पेश कर ही रहे थे, वे यादव और पासवान को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों और दलित मतदाताओं को गोलबंद करने में जुटे हुए थे. यानी कि वे इन्हें अपना कोर वोटर बनाना चाहते थे. नीतीश इस रणनीति में काफी हद तक कामयाब भी रहे. चुनाव के कई नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं. 

यादव बेल्ट में बेअसर होते गए लालू

इस चुनाव में लालू के पारंपरिक वोट बैक यादवों में लालू के प्रति उदासीनता दिखी. लालू की शख्सियत के इर्द-गिर्द लड़ गए इस चुनाव को यादव मतदाता चौथी बार स्वीकार कर नहीं पा रहा था. 1990, 1995, 2000 में लालू इस जाति के जुड़ाव की भावनात्म फसल को काट चुके थे, लेकिन इस बार का यादव मतदाता का मिजाज अलग था. 

Advertisement

मधेपुरा, छपरा, गोपालगंज, यादव बेल्ट में धराशायी रहे लालू

लालू यादव को इस चुनाव में अपने मजबूत दुर्ग मधेपुरा, छपरा, पटना में मनमाफिक वोट नहीं मिला. यहां आरजेडी उम्मीदवारों का मतदान प्रतिशत भरभराकर गिर पड़ा. मधेपुरा और गोपालगंज जैसे यादव बहुल क्षेत्रों में भी लालू जादू नहीं दिखा पाए. 

फरवरी 2005 के चुनाव में अन्य कारणों के अलावा लालू का यादव वोट छिटकने की वजह शायद ये थी कि दो बड़े यादव नेता पप्पू यादव और साधु यादव लालू का साथ छोड़ गए और उनके दुर्ग की दीवार में बड़ी छेद कर गए.

आरजेडी के साथ मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी का आलम ये था कि मुस्लिम बहुल अररिया जिले में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और आरजेडी के बड़े नेता तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज अहमद को जोकिहाट सीट से हार का मुंह देखना पड़ा. जबकि मुस्लिम बहुल होने की वजह से ये सीटें लालू की प्रयोगशाला थी और इन सीटों पर पार्टी उम्मीदवार की जीत को लेकर वे हमेशा आश्वस्त रहते थे. 

सारण क्षेत्र में हार

इस नाराजगी का विस्तार और दूसरी सीटों पर भी देखने को मिला. कभी आरजेडी के दबंग छवि के नेता कहे जाने वाले शहाबुद्दीन के नजदीकी रिश्तेदार एजाजुल हक को भी जीरादेई सीट से शिकस्त झेलनी पड़ी. आरजेडी के बड़े चेहरों का इस तरह से धराशायी होना मतदाताओं के मिजाज का ताना-बना बता रहा था. 

Advertisement

सारण क्षेत्र में 24 सीटें हैं. फरवरी के चुनाव में लालू और नीतीश दोनों खेमें को 7-7 सीटें गई थीं. अक्टूबर में ये आंकड़ा बदल गया. NDA को 15 सीटें मिली जबकि RJD के खाते में 9 सीटें आईं. बाकी सीटें अन्य के खाते में गई. 

आरजेडी के कद्दावर नेता जय प्रकाश यादव के भाई विजय प्रकाश और मां शांति देवी भी जमुई और हवेली खड़गपुर सीट से चुनाव हार गईं. चारा घोटाले का चर्चित नाम रहे आरजेडी नेता आरके राणा के बेटे अमित राणा को भी गोपालपुर सीट से हार का मुंह देखना पड़ा. 

पटना में पटखनी खाई

पटना क्षेत्र में लालू का काफी नुकसान उठाना पड़ा. इस क्षेत्र में 43 सीटें हैं. फरवरी के चुनाव में यहां लालू को 11 सीटें मिली थी, जबकि एनडीए को 26 सीटें मिली थी. अक्टूबर में आरजेडी का परफॉर्मेंस और बिगड़ गया. पार्टी को मात्र 6 सीटें मिली, जबकि एनडीए को 29 सीटें आईं. 

इस चुनाव में अगर मतों के प्रतिशत की बात करें तो फरवरी 2005 में आरजेडी को 25.07 प्रतिशत वोट मिला था, लेकिन अक्टूबर में लालू का वोट प्रतिशत घटकर 23.45 हो गया और उन्हें 21 सीटों का नुकसान हुआ. 

जेडीयू को फरवरी 2005 में 14.55 प्रतिशत वोट मिले, वहीं अक्टूबर में जेडीयू को मिलने वाला मत प्रतिशत 20.46 हो गया. इस तरह से जेडीयू का मत प्रतिशत लगभग 6 फीसदी बढ़ा और पार्टी की सीटों में 33 का इजाफा हुआ. 

Advertisement

यहां एक रोचक तथ्य यह भी है कि अक्टूबर 2005 के चुनाव में जेडीयू के 20.46 प्रतिशत के मुकाबले आरजेडी का वोट शेयर 23.45 यानी कि लगभग 3 फीसदी ज्यादा था, लेकिन आरजेडी का ये वोट जीतने वाले सीटों में तब्दील नहीं हो सका. 

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement