
Bihar Election 2020: राजनीति में कोई दोस्त और दुश्मन स्थायी नहीं होता. चुनाव में सीटों के हिसाब से समीकरण बदल जाते हैं. दो धुर विरोधी नेता चुनाव में एक हो जाते हैं तो अपने नेता के लिए जान की कसमें खाने वाले लोग अलग. राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव और लालू प्रसाद यादव की कहानी कुछ ऐसी ही है.
उस तस्वीर ने राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचा था, जिसमें पप्पू जीप चला रहे हैं और लालू यादव हाथ जोड़े खड़े हैं. तब पप्पू अपने को लालू यादव का सारथी मानते थे, लेकिन हालात बदले तो उनकी जरूरत खत्म सी हो गई. परिस्थितियां बदलीं तो घनिष्ठता भी बढ़ी लेकिन वह बहुत दूर तक नहीं चल पाई. लालू ने किसी ऐसे को नहीं पनपने दिया जो उनके बेटों के सामने मुसीबत खड़ी कर दे. कभी राजद के सांसद रहे पप्पू यादव ने 2015 में अपनी पार्टी बना ली थी लेकिन आज लालू से अपील कर रहे हैं कि बिहार को बचाने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए.
कॉलेज टाइम से लालू यादव को मानने लगे थे आदर्श
कहानी शुरू होती है 1986-87 से जब पप्पू यादव तरूणाई में थे और लालू यादव विरोधी दल का नेता बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे. पप्पू तब कॉलेज में थे और लालू यादव को अपना आदर्श मानने लगे थे. पप्पू यादव ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वह फियेट कार (fiat car) से कुछ दोस्तों के साथ लालू यादव से मिलने पटना के वेटनरी कॉलेज के सर्वेंट क्वॉर्टर पहुंचे थे. उन्होंने लालू के लिए लड़ने का संकल्प जताया था और लालू ने कहा था कि लोगों को न्याय दिलाने के लिए खुद को सुरक्षित रखना जरूरी है.
राजेश रंजन उर्फ पप्पू दावा करते हैं कि लालू ने जब विरोधी दल के नेता का दावा ठोका था तो उनके साथ पर्याप्त विधायक नहीं थे. विरोधी दल के नेता की दौड़ में मुंशी लाल यादव, अनूप लाल यादव और सूर्यनारायण भी शामिल थे. ऐसा माना जाता था कि जो विरोधी दल का नेता बनेगा वह ही आगे चलकर बिहार का मुख्यमंत्री बनेगा. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लालू एक तीर से दो निशाने लगाना चाहते थे. पहला तो इससे साबित होता कि वह कर्पूरी ठाकुर के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं दूसरा इससे सीएम की कुर्सी पर उनका दावा मजबूत होता. पप्पू बताते हैं कि उन्होंने नवल किशोर से बात कर लालू के लिए जमीन तैयार की थी.
विरोधी दल का नेता बनने के एक दिन बाद ही पटना के अखबारों में छपा की कांग्रेस नेता शिवचंद्र झा की हत्या करने पूर्णिया का कुख्यात अपराधी पप्पू यादव आया है. उन पर केस दर्ज कर लिया गया. देखते ही देखते उन्हें माफिया घोषित कर दिया गया. हालांकि तब तक उनके खिलाफ किसी थाने में कोई केस दर्ज नहीं था. वह कोलकाता भाग गए लेकिन उनके घर की कुर्की कर ली गई. उनके माता-पिता को सड़क पर सोना पड़ा.
इसके बाद आया 1990 का विधानसभा चुनाव. तमाम कोशिशों के बावजूद पप्पू यादव को जनता दल का टिकट नहीं मिला. पप्पू ने भी ठान लिया था कि उन्हें विधायक बनना है. उन्होंने यादव बाहुल्य मधेपुरा के सिंघेश्वरस्थान विधानसभा से पर्चा दाखिल कर दिया. उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने मधेपुरा ही नहीं पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, कटिहार जिलों में अपना मजबूत नेटवर्क खड़ा कर लिया. संपन्न परिवार से आने वाले पप्पू यादव ने गरीबों शोषितों के पक्ष में आवाज उठानी शुरू कर दी. वह रिक्शे के किराए से लेकर डॉक्टरों की फीस तक तय करने लगे.
1990 में ही जनता दल के टिकट पर आनंद मोहन सिंह पहली बार विधायक बने थे. उधर विश्वनाथ प्रताप सिंह की केंद्र में चल रही सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी. सहरसा-सुपौल इलाके में आनंद मोहन सिंह ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर दी. उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों का मुखर विरोध किया. दूसरी ओर पप्पू यादव ने इसका समर्थन किया. आनंद मोहन कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण के प्रवाधानों का भी मुखर विरोध कर चुके थे.
आनंद मोहन से मुकाबले में मिला था लालू का साथ !
पटना से वरिष्ठ पत्रकार राहुल कुमार बताते हैं कि आनंद मोहन स्वंतत्रता संग्राम सेनानी परिवार से आते थे और सवर्णों के साथ ही इलाके के दूसरों वर्गों में भी उनकी मजबूत पकड़ थी. उनकी छवि रॉबिनहुड की थी. लालू को एक ऐसे बाहुबली की जरूरत थी जो आनंद मोहन से लोहा ले सके. पप्पू इस खांचे में फिट बैठते थे. 1991 में सहरसा के बनमनखी में आनंद मोहन के काफिले पर फायरिंग हुई, इसमें 2 लोग मारे गये थे. आरोप तत्कालीन विधायक पप्पू यादव और उनके साथियों पर लगा. कहा जाता है कि लालू के समर्थन से पप्पू पर आंच नहीं आई.
लेकिन लालू और पप्पू की नजदीकी चुनाव में काम नहीं आई. 1991 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव को टिकट नहीं मिला, उन्होंने पूर्णिया से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पर्चा दाखिल कर दिया और संसद पहुंच गए. इसके बाद 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद बने, 1999 में फिर समीकरण बदले और उन्हें निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा लेकिन जीतने में सफल रहे.
वरिष्ठ पत्रकार राहुल कुमार बताते हैं कि 2004 के पहले लालू का जलवा कमजोर पड़ने लगा था. उन्हें लगने लगा था कि वह मधेपुरा से चुनाव हार सकते हैं. लालू ने मधेपुरा के साथ ही छपरा से पर्चा भर दिया और दोनों सीटों से जीत गए. लेकिन बाद में मधेपुरा सीट छोड़ दी. दोनों का साथ यहां परवान चढ़ा और मधेपुरा के उपचुनाव में पप्पू यादव राजद के उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरे और जीत हासिल की.
हत्या से बरी होने के बाद लालू ने दिया टिकट
इस बीच विधायक हत्या का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. माकपा विधायक अजित सरकार की 14 जून 1998 को पूर्णिया में हत्या कर दी गई थी. आरोप पप्पू यादव पर लगा था. उन्हें गिरफ्तार कर सिक्किम की जेल में भेज दिया गया. राजनैतिक पहुंच के चलते उनका ट्रांसफर बेउर जेल में हो गया. जांच सीबीआई को मिली तो उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल भेज दिया गया. हत्या में दोषी पाए जाने पर सीबीआई की विशेष अदातल ने उन्हें फरवरी 2008 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई. लेकिन पटना हाई कोर्ट ने मई 2013 में उन्हें बरी कर दिया. पप्पू 5 साल जेल में रहे. एक तरह से उनकी जिंदगी का यह काला अध्याय था, संगी साथी छूटते जा रहे थे लेकिन लालू का उनके प्रति प्रेम ही था कि अपनी सीट खाली करने के बाद उन्होंने 2014 में पप्पू यादव को मधेपुरा से चुनाव लड़ा दिया और वह जद यू के शरद यादव को हराकर सांसद बन गए.
लेकिन यह संबंध बहुत दिनों तक नहीं चला, कहते हैं कि राजद से सांसद बनने के बाद पप्पू यादव की हसरतें कुलांचे मारने लगीं. वह अपने आपको लालू यादव का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानने लगे. उन्हें लगने लगा कि तेजस्वी और तेजप्रताप को आगे बढ़ाकर उनके साथ छल किया जा रहा है. लालू पर सीधे आक्षेप करने से बचने वाले पप्पू यादव वंशवाद की बात करने लगे. हालात ऐसे हो गए कि 2015 में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
बना ली अपनी पार्टी
इसके बाद पप्पू यादव ने जन अधिकार पार्टी बना ली और समाजवादी पार्टी समेत कई दलों के साथ मिलकर मोर्चा बनाया. इसके तहत 64 उम्मीदवार उतारे गए लेकिन एक भी उम्मीदवार जीत हासिल नहीं कर पाया. अब वो फिर लालू का राग अलाप रहे हैं, तेजस्वी पर भी कटाक्ष करने से बच रहे हैं लेकिन अब मिलन के आसार कम दिख रहे हैं. तेजस्वी लालू-राबड़ी शासन की गलतियों के लिए जनता से माफी मांग चुके हैं. अब तो पोस्टर से भी लालू यादव गायब हैं, इसलिए पप्पू उनसे कितना जुड़ पाते हैं यह देखने वाली बात होगी.