
रघुवंश प्रसाद सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं. लालू प्रसाद यादव जेल में हैं. शरद यादव और रामविलास पासवान बीमारी से जूझ रहे हैं. लालू के बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप दम ठोंक रहे हैं लेकिन पहली बार ऐसा होगा जब विधानसभा चुनाव में कम से कम दो कद्दावर नेता नहीं दिखेंगे. रघुवंश और लालू प्रसाद यादव.
रघुवंश प्रसाद सिंह 32 साल तक लालू के पीछे चट्टान की तरह खड़े रहे. लालू को सीएम बनाने के लिए उन्होंने कभी जदगानंद सिंह और नीतीश कुमार के साथ दिन रात एक कर दिया था. धीरे-धीरे लालू के कई साथी एक-एक कर दूर होते गए लेकिन रघुवंश बाबू ने कभी विरोध का बिगुल नहीं बजाया. वह पार्टी के साथ रहे, पार्टी को निशाने पर भी लेते रहे और लालू उन्हें हंसकर टालते रहे. लेकिन अब उन्हें पार्टी में रहना बोझिल लगने लगा था. एम्स के बेड पर सोए-सोए उन्होंने लालू को इस्तीफा लिख दिया था कि 32 साल आपके साथ रहा लेकिन अब और नहीं. और लालू ने जवाब में लिखा था आप कहीं नहीं जा रहे हैं.
जानकार बताते हैं कि अब वह राष्ट्रीय जनता दल में असहज महसूस करने लगे थे. बताते हैं कि वह एक ऐसे नेता थे जो लालू के साथ बैठकर घंटों चर्चा करते थे. लालू को भले ही बहुत मजाकिया माना जाता हो लेकिन दो ही नेता ऐसे थे जिनके सामने लालू गंभीर बने रहते थे. एक थे रघुवंश बाबू और दूसरे जगदानंद सिंह. जानकार कहते हैं कि रामा सिंह को पार्टी में शामिल करने का विरोध तो एक बहाना था. असल में वह अब राजद को चला रहे तेजस्वी और तेजप्रताप से किस तरह लय मिलाते. अब सोशल मीडिया और हाईटेक जमाने में वह बच्चों से क्या चर्चा करते, उन्हें तो मोबाइल तक साथ रखना पसंद नहीं था. दूसरी बात कहीं न कहीं उनके समर्थकों को खटकती थी कि लोकसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी ने उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा. जबकि 2016, 18 और 19 में पार्टी के पास यह मौका था.
अखर गया तेजप्रताप का बयान!
लालू जेल में थे और उनके बेटों की नजर में रघुवंश बाबू की अहमियत कम हो गई थी. तेजप्रताप का यह बयान कि समुद्र से एक लोटा पानी निकल जाए तो क्या फर्क पड़ता है, रघुवंश को यह बात अखर गई थी. कहा तो यह भी जाता है कि इस बयान के बाद लालू ने तेजप्रताप को रांची बुलाया था और जमकर फटकार लगाई थी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. रघुवंश ने अलग राह पर जाने का फैसला कर लिया था. हालांकि लालू को उन्होंने जो 38 शब्द लिखे थे उसमें यह कहीं नहीं था कि वह पार्टी छोड़ रहे हैं. उन्होंने लिखा था कि 32 साल तक आपके साथ चलता रहा लेकिन अब नहीं.
रघुवंश प्रसाद गणित के प्रोफेसर रहे लेकिन राजनीति में कभी गुणा गणित को तवज्जो नहीं दी. वह लालू की पार्टी में सवर्णों का बड़ा चेहरा थे, लेकिन कभी इसका दंभ नहीं पाला. राजपूत होते हुए भी उन्होंने कभी यह ठप्पा नहीं लगने दिया कि वह किसी जाति विशेष में विश्वास करते हैं. वह पिछड़े, अति पिछड़े और दलितों से वैसे ही मिलते जैसे औरों से मिलते. वोट बैंक की राजनीति में उनका विश्वास नहीं था. बिहार के हर वर्ग के बुद्धिजीवी उनका सम्मान करते थे. सादगी, सरलता, सहजता ही उनकी पहचान रही. वह जब तक रहे खांटी समाजवादी की तरह ही रहे.
शुरू से ही विद्रोही तेवर के रघुवंश प्रसाद सिंह ने 1975 में लगी इमरजेंसी का पुरजोर विरोध किया. जेपी आंदोलन में भी उन्होंने बढ़ चढ़कर भाग लिया. टुकड़ों-टुकड़ों में वो तकरीबन 10 बार जेल गए. इमरजेंसी के विरोध के चलते उनकी नौकरी भी चली गई. 1988 में कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था. इसके बाद लालू प्रसाद ने उनके उत्तराधिकारी का दावा कर दिया था. वह नेता विपक्ष बनना चाहते थे लेकिन विधायक उनके साथ नहीं थे. रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह और नीतीश कुमार ने तब मोर्चा संभाला था और लालू की ताजपोशी कराई थी.
लालू के साथ ऐसे मजबूत होता गया साथ
1990 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए और जनता दल को सरकार बनाने का मौका मिला. केंद्र में उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी. लालू प्रसाद यादव तब सांसद थे. वीपी सिंह का कहना था कि वहां और लोग मौजूद हैं फिर लालू को क्यों सीएम बनाया जाए. वीपी सिंह किसी और को चाहते थे और उनके धुर विरोधी चंद्रशेखर को यह मंजूर नहीं था. लालू चंद्रशेखर को यह समझाने में सफल हो गए कि एक राजा हम दोनों को किनारे लगाना चाह रहा है. उस दौरान भी रघुवंश बाबू ने लालू के पक्ष में मजूबत फील्डिंग की थी. उन्हें इसका इनाम भी मिला. विधानसभा चुनाव में उन्हें हार मिली थी लेकिन लालू ने उन्हें एमएलसी बनाया फिर मंत्री.
कभी श्रेय लेने की होड़ नहीं
रघुवंश प्रसाद को मनरेगा का शिल्पकार माना जाता है. यूपीए वन के कार्यकाल में वह यह योजना लेकर आए थे जिसमें गरीबों को 100 दिन का रोजगार देने की गारंटी थी. लेकिन केवल उन्हें इसका श्रेय नहीं मिला. उस समय प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे संजय बारू. उन्होंने एक किताब लिखी है ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’. उसमें यह बताया गया है कि 26 सितंबर 2007 को राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी नेताओं का एक प्रतिनिधमंडल पीएम से मिला और पूरे देश में इस योजना को लागू करने का ज्ञापन दिया. बारू से कहा गया कि पूरे देश के अखबारों में विज्ञापन दिया जाए कि राहुल गांधी ने पीएम से मनरेगा को पूरे देश में लागू करने को कहा है. अगले दिन यह देश के अखबारों में छपा भी लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने वह छापा जो बारू ने बताया था. बारू चाहते थे कि मनमोहन सिंह और रघुवंश प्रसाद को इस योजना का क्रेडिट मिले. लेकिन रघुवंश प्रसाद कभी इसके लिए आगे नहीं आए.
यूपीए टू के कार्यकाल में कांग्रेस ने राजद को मंत्रिमंडल में स्थान देने से मना कर दिया. लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा थी कि रघुवंश प्रसाद को मंत्रिपद ऑफर किया गया था, जिसे उन्होंने विनम्रता से ठुकरा दिया और लालू के साथ बने रहे. हालांकि रघुवंश बाबू को बहुत कम विरोधों का सामना करना पड़ा, लेकिन जानकार कहते हैं कि एक तबका ऐसा था जो चाहता था. वह उस समय भी लालू के फैसलों का विरोध करते जब बिहार में जंगलराज कामय था और एक से एक अपराधियों को राजद से टिकट दिया जा रहा था. एक आक्षेप यह भी लगता है कि उन्होंने कभी अपने परिवार या बेटे को राजनीति में नहीं आने दिया लेकिन उन्होंने लालू के परिवार को पार्टी से ऊपर रखा. लालू ने बेटों को कमान दे दी, लेकिन रघुवंश बाबू पार्टी उपाध्यक्ष बनकर ही खुश रहे. बहुत से मामलों में वह भीष्म की तरह सब कुछ देखते रहे. बरगद बनकर उन्होंने लालू परिवार की रक्षा की, लेकिन गलत फैसलों का बेबाक विरोध करके ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा मान लिया. हालांकि बिहार के लोगों को उनसे बहुत अपेक्षाएं थीं.
रघुवंश साल 1977 से 1979 तक बिहार सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे. लोकसभा के सदस्य के तौर पर उनका पहला कार्यकाल साल 1996 से शुरू हुआ और वो केंद्र की राजनीति में आ गए. 1998- 99 और 2004 में वह लगातार जीतते रहे. 2004-9 तक वह ग्रामीण विकास मंत्री स्वतंत्र प्रभार रहे. लोकसभा में वह आरजेडी का चेहरा हुआ करते थे, सांसद उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे क्योंकि उसमें तर्क होता था. सरकारी पैसों का बेजा इस्तेमाल न हो, इसके लिए एक वाकया बताया जाता है कि जब वह केंद्रीय मंत्री थे तो कुछ अधिकारी विदेश दौरे की तैयारी कर रहे थे. फाइल रघुवंश बाबू के टेबल पर पहुंची तो उन्होंने कहा कि तकनीक के सहारे मीटिंग हो सकती है तो जनता का इतना पैसा क्यों खर्च करना और दौरा टल गया. उन्होंने खुद कभी विदेश यात्रा को तवज्जो नहीं दी.