
कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर सामने आई बीजेपी को सरकार बनाने का निमंत्रण देना विवाद का विषय बन गया है. खासकर तब जबकि बीजेपी विधानसभा में फ्लोर टेस्ट का सामना भी नहीं कर सकी और उससे पहले ही मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया. इस विवाद के केन्द्र में कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला हैं और सवाल उनके विवेकाधिकार व राज्यपाल के पद की गरिमा पर उठे हैं. अब जबकि येदियुरप्पा का इस्तीफा हो गया है तो एक सवाल ये भी उठ रहा है कि वजुभाई वाला अपनी चूक स्वीकार करते हुए पद से इस्तीफा देंगे?
कर्नाटक में विधानसभा चुनावों में वोटों की गिनती जारी थी. रुझानों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आ रही थी. इससे पहले कि रुझान नतीजों में बदलते कांग्रेस और जेडीएस ने गठबंधन का दांव चलते हुए ऐलान कर दिया कि जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कर्नाटक की नई सरकार का गठन किया जाएगा और कांग्रेस बिना किसी शर्त के इस सरकार को समर्थन देगी.
चुनाव नतीजों का अंकगणित पूरी तरह से इस गठबंधन के पक्ष में था. बीजेपी के 104 विधायकों के जवाब में कांग्रेस के 78 और जेडीएस के 37 विधायकों का गठजोड़ 221 सदस्यों की विधानसभा में बहुमत के लिए काफी था. लेकिन संविधान की शपथ के साथ राज्य के राज्यपाल की भूमिका में बैठे वजुभाई वाला को यह अंकगणित समझ नहीं आया. संभवत: केन्द्र में बैठी बीजेपी सरकार का दबाव वजुभाई वाला को यह गणित समझने नहीं दे रहा था.
जिस तरह बीजेपी के लिए कर्नाटक को कांग्रेस मुक्त करना अहम था, राज्यपाल वजुभाई वाला के सामने कर्नाटक में बीजेपी सरकार का गठन कराने की चुनौती थी. इस चुनौती के आगे राज्यपाल ने न सिर्फ कांग्रेस और जेडीएस के नए चुने हुए विधायकों के दल को नजरअंदाज किया, बल्कि सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी बीजेपी के नेता बीएस येदियुरप्पा के सरकार बनाने के दावे को सही मानते हुए उसे तुरंत सरकार बनाने के लिए निमंत्रण दे दिया.
इतना ही नहीं, आमतौर पर किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं होने की स्थिति में राज्यपाल 7 दिनों में नई सरकार को बहुमत साबित करने का समय देता है. लेकिन वाला ने येदियुरप्पा को 15 दिन का समय दिया. इस बीच कांग्रेस और जेडीएस सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी थीं लेकिन इसका संज्ञान न लेते हुए राज्यपाल ने पहला मौका पाते ही बीजेपी की येदियुरप्पा सरकार को शपथ ग्रहण करा दी.
गौरतलब है कि भारतीय संविधान में राज्यपाल के पद को शामिल करने के लिए ब्रिटिश सरकार के समय गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में गवर्नर के प्रावधान को आधार बनाया गया. हालांकि ब्रिटिश सरकार के एक्ट में इसका प्रावधान इसलिए किया गया था जिससे गुलाम भारत में ब्रिटिश प्रांतों में लोकतांत्रिक चुनावों के बाद बनने वाली प्रांतीय सरकार को काबू में रखने के लिए गवर्नर का इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन आजादी के बाद देश के संविधान में इस पद को जारी इसलिए रखा गया जिससे देश के राज्यों को संविधान के अनुरूप चलाने में राज्यपाल देश के राष्ट्रपति की आंख और कान बन सकें. लेकिन समय के साथ इस पद का राजनीतिक दुरुपयोग होता रहा और राज्यपाल की भूमिका केन्द्र सरकार के एजेंट के रूप में विकसित होती गई.
एक बार फिर कर्नाटक में चुनाव के बाद चले नाटक से यह साफ हो चुका है कि राज्यपाल ने संविधान से मिले अपने कर्तव्यों को राजनीति से परे रखने में विफलता का परिचय दिया है. ऐसे में क्या कर्नाटक में राज्यपाल अपने पद से इस्तीफा देंगे? क्या महज कर्नाटक की स्थिति में राज्यपाल वजूभाई वाला के इस्तीफे से इस समस्या का पूरा समाधान हो जाएगा या फिर नए सिरे से सोचने की जरूरत है कि क्या देश को राज्यों में राज्यपाल की जरूरत है.
यदि चुनाव के बाद नई सरकार के गठन में राज्यपाल की ऐसी भूमिका संभव है तो क्या इस बात की गारंटी है कि नई सरकार के गठन के बाद राज्यपाल नई सरकार को स्वतंत्र तौर पर काम करने देगा? खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से जब ये सवाल किया गया तब उनका भी यही जवाब था कि राज्यपाल को बदला जाना चाहिए लेकिन जिस नए शख्स की इस पद पर नियुक्ति होगी वो भी यही नहीं करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं
है.