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कर्नाटक: कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा, सिद्धारमैया पर दारोमदार

सिद्धारमैया 2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के दिग्गज नेता के तौर पर अपने आपको स्थापित करने में सफल रहे. 2013 में कांग्रेस की उनके नेतृत्व में वापसी हुई. सिद्धारमैया पार्टी विधायकों पर बहुत अच्छी पकड़ के चलते वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पछाड़ सीएम बने थे.

सिद्धारमैया सिद्धारमैया
कुबूल अहमद/वरुण शैलेश
  • नई दिल्ली,
  • 15 मई 2018,
  • अपडेटेड 8:42 AM IST

कर्नाटक में कांग्रेस का चेहरा राहुल गांधी नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया है. यही वजह है कि राज्य में पार्टी की जीत का सारा दारोमदार उन्हीं के कंधे पर है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस पहली बार बीजेपी को सीधे तौर पर कड़ी टक्कर देती हुई नजर आ रही है. सिद्धारमैया पिछले पांच साल के अपने कामकाज और विकास मॉडल की वजह से कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बनने में सफल रहे हैं. इसीलिए पार्टी ने उन्हें कर्नाटक में स्वतंत्र तरीके से काम करने की छूट दे रखी थी.मतगणना में सिद्धारमैया बादामी से आगे चले रहे हैं जबकि चामुंडेश्वरी से पीछे चल रहे हैं.

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बेखौफ और बेलाग अंदाज वाले सिद्धारमैया के सहारे कांग्रेस कर्नाटक में सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश में लगी है. कांग्रेस चुनाव जीतती है तो इसका श्रेय उन्हीं को जाएगा और हारती है तो भी ठीकरा उन्हीं के सिर फूटेगा. यही वजह है कि कर्नाटक में वे किसी तरह की कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. इस बार वे दो विधानसभा सीटों से चुनाव मैदान में हैं. वे चामुंडेश्वरी और बादामी विधानसभा सीट से प्रत्याशी हैं.

सियासी सफर

मैसूर जिले के सिद्धारमनहुंडी गांव में एक गरीब किसान परिवार में 12 अगस्त, 1948 को सिद्धारमैया का जन्म हुआ था. उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक किया. यहीं से उन्होंने वकालत की डिग्री भी हासिल की और कुछ समय तक वकालत भी की.

डॉ. राम मनोहर लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रभावित और ‘जनता परिवार’के सदस्य रहे सिद्धारमैया ने वकालत के पेशे को छोड़कर राजनीति अपनायी थी. उन्होंने साल 1983 में पहली बार लोकदल के टिकट पर चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से जीत दर्ज की और बाद में जनता पार्टी में शामिल हो गए.

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राज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में कन्नड़ के उपयोग की निगरानी के लिए राम कृष्ण हेगड़े के मुख्यमंत्रित्व काल में बनी निगरानी समिति ‘कन्नड़ कवालू समिति’ के वह पहले अध्यक्ष थे. दो साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में उन्होंने दोबारा जीत हासिल की और हेगड़े की सरकार में पशुपालन एवं पशु चिकित्सा मंत्री बने.

सिद्धारमैया खुद को दलितों के नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए तीन बार 'अहिंदा' (अल्पसंख्यक, पिछड़ों और दलितों को परिभाषित करने वाला कन्नड़ शब्द) सम्मेलन का आयोजन किया. हालांकि साल 2005 में देवगौड़ा ने पुत्रमोह में आकर सिद्धारमैया को पार्टी से बाहर कर दिया था. जेडीएस का ये कदम देवगौड़ा की सियासत के लिए मुसीबत का सबब बन गया.

कांग्रेस के साथ रिश्ता

इसके बाद साल 2006 में सिद्धारमैया अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस से जुड़ गए. दिसंबर 2007 में मैसूर में चामुंडेश्वरी के उपचुनाव में उन्होंने एक बार फिर से जीत दर्ज की. वर्ष 2008 में हुए चुनाव में वह कांग्रेस की प्रचार समिति के अध्यक्ष बने. इसके बाद वे वरुणा विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और विधायक बने.

सिद्धारमैया 2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के दिग्गज नेता के तौर पर अपने आपको स्थापित करने में सफल रहे. 2013 में कांग्रेस की उनके नेतृत्व में वापसी हुई. सिद्धारमैया पार्टी विधायकों पर बहुत अच्छी पकड़ के चलते वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को पछाड़ सीएम बने थे.

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